रायपुर. राजधानी और आसपास जमीन की अफरातफरी का रोजाना औसतन एक
मामला थाने पहुंच रहा है, घने इलाके में प्लाट की बेहद कमी है, रेट इतना है
कि लोग खरीद नहीं पा रहे हैं और इन हालात में देवेंद्र नगर जैसी पॉश
कॉलोनी से लगी हुई मंडी की लगभग 50 एकड़ (कलेक्टर रेट पर कीमत करीब 11 सौ
करोड़ रुपए की) जमीन कूड़ेदान में तब्दील हो गई है। मौके पर मंडी की करीब
110 एकड़ जमीन है, जिसमें से 50 एकड़ का यह प्लाट सालों से खाली पड़ा है।
इसका इस्तेमाल न तो मंडी प्रबंधन कर रहा है, और न ही सरकार ध्यान दे रही
है। यही वजह है कि इस प्लाट का इस्तेमाल कूड़ेदान के रूप में होने लगा है।
मामला थाने पहुंच रहा है, घने इलाके में प्लाट की बेहद कमी है, रेट इतना है
कि लोग खरीद नहीं पा रहे हैं और इन हालात में देवेंद्र नगर जैसी पॉश
कॉलोनी से लगी हुई मंडी की लगभग 50 एकड़ (कलेक्टर रेट पर कीमत करीब 11 सौ
करोड़ रुपए की) जमीन कूड़ेदान में तब्दील हो गई है। मौके पर मंडी की करीब
110 एकड़ जमीन है, जिसमें से 50 एकड़ का यह प्लाट सालों से खाली पड़ा है।
इसका इस्तेमाल न तो मंडी प्रबंधन कर रहा है, और न ही सरकार ध्यान दे रही
है। यही वजह है कि इस प्लाट का इस्तेमाल कूड़ेदान के रूप में होने लगा है।
जयस्तंभ चौक से पांच किमी के दायरे में इतना बड़ा सरकारी तथा खाली प्लाट
कहीं नहीं है। एक तरफ सरकारी एजेंसियां बच्चों के स्कूलों के खेल मैदानों
से जमीन छीन रही है, तो दूसरी ओर इतनी कीमती जमीन पर किसी एजेंसी ने कोई
विचार ही नहीं किया है। मंडी की इस जमीन को लेकर प्रशासन से लेकर मंडी
प्रबंधन तक, किसी के पास कोई कारगर योजना नहीं है। बीच-बीच में मंडी
प्रबंधन कुछ योजनाएं बनाता रहा, लेकिन ये कागजों में ही दम तोड़ती रहीं।
कुछ साल पहले मंडी प्रबंधन ने इसे राज्य औद्योगिक विकास निगम को किराए से
देने पर विचार किया।
सोच ये थी कि यहां उद्योग विभाग प्रदर्शनी या मेला ग्राउंड बना सके।
किराए को लेकर उद्योग विभाग और मंडी के बीच बात नहीं बनी, इसलिए योजना फेल
हो गई। इसके बाद मंडी प्रबंधन ने जमीन कुछ अन्य संस्थाओं को भी किराए से
देने पर विचार किया, लेकिन बातें चर्चा के स्तर पर ही सीमित रहीं, अथवा
तात्कालिक उपयोग के बाद संस्थाओं ने जमीन छोड़ दी। व्यावसायिक तो दूर, शहर
के बीच इतने बड़े प्लॉट के सरकारी इस्तेमाल की भी कोई स्थायी तथा ठोस योजना
अब तक नहीं बनाई जा सकी।
किराए को लेकर उद्योग विभाग और मंडी के बीच बात नहीं बनी, इसलिए योजना फेल
हो गई। इसके बाद मंडी प्रबंधन ने जमीन कुछ अन्य संस्थाओं को भी किराए से
देने पर विचार किया, लेकिन बातें चर्चा के स्तर पर ही सीमित रहीं, अथवा
तात्कालिक उपयोग के बाद संस्थाओं ने जमीन छोड़ दी। व्यावसायिक तो दूर, शहर
के बीच इतने बड़े प्लॉट के सरकारी इस्तेमाल की भी कोई स्थायी तथा ठोस योजना
अब तक नहीं बनाई जा सकी।
अस्पताल को दी थी जमीन
मंडी की करीब छह एकड़ जमीन कुछ साल पहले राज्य सरकार ने ली थी। उसके बदले
में मंडी को तुलसी-बाराडेरा में करीब 55 एकड़ जमीन दी है। इस जमीन पर मंडी
प्रबंधन ने फल व सब्जी मंडी बनाई है। सरकार ने जो जमीन मंडी से ली थी, उसे
टोकन रेट पर अस्पताल के लिए तीन संस्थानों को आवंटित किया। एक संस्थान ने
यहां अपना अस्पताल शुरू भी कर लिया है।
मंडी की जमीन अस्पताल के लिए देने, खासकर कामर्शियल परपज के लिए निजी
अस्पताल को दिए जाने का तगड़ा विरोध हुआ था, लेकिन बाद में मामला शांत हो
गया। अविभाजित मध्यप्रदेश के समय 1998 में मंडी की करीब 30 हजार वर्गफीट
जमीन 12 लाख रुपए में बेची भी गई थी।
किसानों से ली थी जमीन
जिला कृषि उपज मंडी समिति ने 1969 के आसपास यह जमीन मंडी बनाने के लिए
किसानों से अधिगृहीत की थी। किसानों के लिए सर्वसुविधायुक्त विपणन केंद्र
की परिकल्पना की गई थी। किसानों ने भी दिल खोलकर जमीन दी। मंडी को तब 110
एकड़ जमीन मिली थी। लेकिन उसके बाद से ही मंडी प्रबंधन कभी भी पूरी जमीन का
उपयोग हीनहीं कर पाया। आधे हिस्से में मंडी कैंप और कर्मचारियों के लिए
आवास बनाए गए। शेष हिस्सा खाली अब तक खाली पड़ा है।