निर्मल गंगा की सार्थक धारा- जैको वल्विस

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की सबसे पवित्र नदी को साफ करने
का वादा किया है। वाराणसी से चुनाव लडम्कर एक तरह से उन्होंने इस असंभव से
लगने वाले मुद्दे पर अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगा दिया। गंगा की जो
हालत है, वह भारत के अंतर्विरोधों का सबसे अच्छा उदाहरण है।

एक तरफ तो देश की इस सबसे पावन नदी की लोग पूजा करते हैं, इसके जल को
सबसे पवित्र माना जाता है, और दूसरी तरफ, इसका इस्तेमाल एक नाले की तरह भी
होता है। अगर इस समस्या का समाधान कर दिया जाए, तो यह भारत की क्षमता का
सबसे बड़ा उदाहरण बन जाएगा। साथ ही, यह इस बात का भी प्रतीक होगा कि भारत
अपने परंपरागत मूल्यों का कितना सम्मान करता है। लेकिन यह समस्या बड़ी जटिल
है।

इसमें वे लाखों लोग शामिल हैं, जिनके आर्थिक हित इस नदी को प्रदूषित
करने में हैं, बल्कि गंगा की सफाई में किसी का आर्थिक हित शामिल नहीं है।
यह धारा बहुत तेज है और इसके खिलाफ तैरना आसान नहीं। गंगा की समस्या जिस
तरह की है, वैसी समस्या दुनिया के कई देशों में है। यह नकारात्मक किस्म की
आर्थिक सोच का नतीजा है। समस्या इसलिए है, क्योंकि कई किस्म के लोग अपने
फायदे के लिए ऐसे काम करते हैं, जिनकी कीमत बहुत से दूसरे लोगों को चुकानी
पड़ती है। इसे हम गंगा के किनारे चलने वाले टेनरी उद्योग के उदाहरण से समझ
सकते हैं।

मसलन, कानपुर को ही लें। यहां तकरीबन 400 टेनरी फैक्टरियां हैं, जो
दुनिया भर के लिए चमड़ा तैयार करती हैं। इनसे जो गंदा पानी निकलता है, उसकी
मात्रा इतनी ज्यादा होती है कि स्थानीय शोधन संयंत्र में उसे साफ नहीं
किया जा सकता। नतीजा यह होता कि टेनरी में इस्तेमाल होने वाले डाई, नमक,
तेजाब और क्रोमियम के मिश्रण से एक गहरा काला द्रव बनता है, जो नदी में बहा
दिया जाता है। कानपुर के पर्यावरण संगठन ईको-फ्रेंड्स के राकेश जायसवाल के
अनुसार, टेनरी से निकलने वाले गंदे पानी में ‘ये सारे खतरनाक रसायन मिलकर
एक जहरीला मिश्रण तैयार करते हैं।’

इससे दो चीजें होती हैं। एक तो इन टेनरी फैक्टरियों को गंदे पानी को
बहाने से पहले साफ करने का खर्चा नहीं उठाना पडम्ता, जिसके कारण उनकी
उत्पादन लागत कम हो जाती है। वे अपना माल सस्ती कीमत पर बेच सकती हैं,
सस्ता होने की वजह से मांग बढ़ती है, और फिर वे उत्पादन के साथ ही प्रदूषण
बढ़ाती हैं। दूसरी चीज यह होती है कि इस प्रदूषण के कारण उत्तर भारत से
लेकर बांग्लादेश तक लोगों और मवेशियों के लिए स्वास्थ्य का जोखिम पैदा होता
है। लोग इसी गंगा में स्नान करते हैं, इसी के पानी से फसलों की सिंचाई
करते हैं। इस प्रदूषण का शिकार बनने वालों के पास ऐसा कोई कानूनी तरीका
नहीं है, जिससे वे इस नुकसान और जोखिम की कीमत प्रदूषण फैलाने वालों से
वसूल सकें।

मान लीजिए, ये लोग कानूनी तरीके से अपने नुकसान की कीमत वसूलने की ठान
लें, तो इसकी लागत बहुत ज्यादा होगी। यह संभव नहीं है, इसलिए प्रदूषण बना
रहेगा। और अगर ऐसा कोई तरीका बना दियाजाए, जिसमें यह लागत जीरो हो जाए, तो
लोग इस समस्या का समाधान खुद ही कर लेंगे। इसमें सरकार की कोई जरूरत ही
नहीं पड़ेगी। समाधान इसी जगह पर है, यह समस्या सिर्फ सरकार के भरोसे नहीं
खत्म होगी।

गंगा के धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व के साथ ही इसके आस-पास रहने वालों
का जीवन इस समस्या को और जटिल बना देता है। यूरोप की राइन नदी का उदाहरण
लें, जो गंगा के मुकाबले काफी साफ थी। राइन की सफाई पर 40 अरब यूरो का खर्च
आया था। लेकिन विश्व बैंक के भारत निर्देशक ओन्नों रहल का गंगा परियोजना
के बारे में कहना है कि ‘गंगा बहुत बड़ी है, इसके आस-पास बहुत बड़ी आबादी
है, यह ज्यादा प्रदूषित है। इसलिए यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि गंगा को
बहुत सस्ते में साफ किया जा सकता है।’

गंगा को साफ करने का अभियान अच्छी चीज है, पर इसकी राजनीतिक चुनौतियां
बहुत बड़ी हैं। मसलन, भारत सरकार टेनरी पर दबाव डाल सकती है कि वे गंगा में
पानी बहाने से पहले उसे अपने खर्च से साफ करें। ऐसा नहीं है कि टेनरी वाले
जान-बूझकर गंगा के आस-पास रहने वाले लोगों को परेशान करने के लिए नदी को
प्रदूषित करते हैं, उनमें कई ऐसे भी होंगे, जो गंगा की पवित्रता को भी बनाए
रखना चाहते होंगे। लेकिन अगर वे खुद अपनी इकाई के गंदे पानी को साफ करते
हैं, तो इसका खराब असर उनके कारोबार पर पड़ेगा।

इसी तरह गंगा के आस-पास रहने वाले चाहते हैं कि गंगा साफ रहे, लेकिन वे
ये नहीं चाहेंगे कि किसी कारोबार का कोई नुकसान हो। इसलिए अगर हमें इस
समस्या से निपटना है, तो ऐसी गंगा रणनीति बनानी होगी, जो दोनों तरह के
लोगों को साथ ला सके। इसलिए इसे सोचा जा सकता है कि टेनरी प्रदूषण से
मुक्ति का रास्ता निकालने को तैयार हों और गंगा के आस-पास रहने वाले इसमें
अपना योगदान दें। अगर हम ऐसी कोई व्यवस्था बना सके, तो वह ज्यादा टिकाऊ
होगी, बजाय इसके कि सरकार ऊपर से कोई समाधान थोपे।

गहरी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक आस्था के साथ गंगा की सफाई के अभियान को
एक सामाजिक मकसद का रूप दिया जा सकता है। इसमें समाज के सभी स्तरों के
लोगों को शामिल किया जा सकता है। इस मकसद के आधार पर सहभागिता की एक योजना
बनाई जा सकती है, इसके लिए गंगा को साफ करने की रणनीति ऐसी होनी चाहिए कि
इसकी एकबारगी लागत बहुत बड़ी न हो। सफाई परियोजना को व्यावसायिक अवसर की
तरह भी विकसित किया जा सकता है, जिसमें कंपनियां सामाजिक समस्या का समाधान
करके मुनाफा भी कमा सकें।

नई सरकार अगर गंगा को साफ करना चाहती है, तो उसे अपने आध्यात्मिक और
नैतिक अभियान से आर्थिक ताकतों को भी जोड़ना होगा। तभी यह अभियान सार्थक भी
होगा और नतीजे भी सकारात्मक निकलेंगे। यह दुनिया के सामने भारत का जितना
बडम उदाहरण पेश करेगा, उसका महत्व शब्दों में नहीं आंका जा सकता। हमें यह
काम करना ही होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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