नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने जा रहे हैं, तो पाकिस्तानियों के मन में बेचैनी है। लेकिन यह बेचैनी गलत कारणों को लेकर है। ज्यादातर पाकिस्तानी मोदी के हिंदू राष्ट्रवाद को लेकर सशंकित हैं, जबकि इसका सीधा कोई प्रभाव हम पर नहीं पड़ने जा रहा है। इस बीच हम उस तथ्य को अनदेखा कर रहे हैं, जिसे लेकर हमें वास्तव में चिंतित होना चाहिए। यह है मोदी का आर्थिक एजेंडा, जिससे एक लंबे समय तक हमारा साबका पड़ने वाला है।
लेकिन पहले हम थोड़ा पीछे मुड़कर देखें। वर्ष 1988 में एक औसत भारतीय की प्रति व्यक्ति आय किसी आम पाकिस्तानी के मुकाबले 32 फीसद कम थी। किंतु वर्ष 2012 तक आते-आते यह स्थिति पलट गई। विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक पर्चेसिंग पॉवर पैरिटी के लिहाज से एक औसत भारतीय व्यक्ति पाकिस्तानी नागरिक के मुकाबले 33 फीसद ज्यादा अमीर हो गया। इससे भी ज्यादा हताशाजनक एक और बात है। वह यह कि यह वर्ष 2005 में हुआ। यानी उस साल में, जिसे पाकिस्तान के आर्थिक विकास के इतिहास में बेहतरीन वर्षों में से एक माना जाता है। इसका सीधा मतलब यह है कि आर्थिक मोर्चे पर हमारा बेहतरीन प्रदर्शन भी तेजी से आगे बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ चलने के लिहाज से पर्याप्त नहीं था।
भारतीय अर्थव्यवस्था का सतत विकास 1990 के दशक के आरंभिक दौर से शुरू हुआ, जब उसने नियंत्रण-राज और सबसिडी के प्रभावी स्वरूप वाले आर्थिक एजेंडे की नाकामी को स्वीकारते हुए आर्थिक सुधारों का सूत्रपात किया। इसके बाद भारतीय अर्थव्यस्था मानो सुनामी की रफ्तार से आगे बढ़ी और यह जल्द ही पाकिस्तान को पीछे छोड़ते हुए विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो गई।
ऐसे में पाकिस्तानियों को हमेशा के लिए यह विचार त्याग देना चाहिए कि हमारा मुल्क आर्थिक मायनों में कभी भी भारत जितना बड़ा या अहम हो सकता है। लेकिन हम कम से कम प्रति व्यक्ति आय के आधार पर तो प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं और करना भी चाहिए, इस तथ्य को देखते हुए कि अतीत में ज्यादातर समय एक औसत पाकिस्तानी किसी आम भारतीय के मुकाबले ज्यादा अमीर रहा है। हालांकि ऐसा कुछ हद तक अमेरिका की बाहरी मदद के कारण भी है, लेकिन भारत और पाकिस्तान के आर्थिक प्रदर्शन के बीच बड़े फासले का प्रमुख कारण यही हो सकता है कि पाकिस्तान भारत की अपेक्षा हमेशा से ही थोड़ी ज्यादा खुली और उदार अर्थव्यवस्था रहा है। यदि उद्यमियों के लिए यहां दिक्कतें हैं, तो वाघा सीमा के उस पार इससे भी ज्यादा दिक्कतें रही हैं।
वास्तव में मोदी व्यापक जन-समर्थन की लहर पर सवार होकर इसीलिए चुने गए, क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था पर्याप्त रूप से खुली नहीं है। सुधारों की रफ्तार थमने से भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से लुढ़कने लगी (इसकी विकास दर 8 फीसद से फिसलकर पांच फीसद से कुछ नीचे पहुंच गई, हालांकि पाकिस्तानी स्टैंडर्ड के हिसाब से यह अब भी प्रभावी दर है)। इस वजह से मतदाताओं में बदलाव की मांग उठी। ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल" के सदानंद धुमे के हवाले से कहें तो मतदाताओं ने मोदी के ‘थैचरनुमा मंत्र ‘अधिकतम प्रशासन, लघुतम शासन"" पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी।
एक पाकिस्तानीहोने के नाते मेरी चिंता यह नहीं है कि मोदी भारतीय मुस्लिमों के प्रति सख्त हो सकते हैं। मेरी चिंता यह है कि वे भारतीय अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे बढ़ाते हुए हमें आर्थिक मोर्चे पर और पीछे छोड़ सकते हैं। बेशक यदि मोदी सफल होते हैं तो अपने भारतीय पड़ोसियों की समृद्धि से मुझे भी खुशी ही होगी। मैं तो सिर्फ अपने देश के पिछड़ने को लेकर चिंतित हूं। दरअसल हम आर्थिक असंतोष पर अच्छी तरह से लगाम नहीं लगा पाते हैं।
वैसे प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को इस बात का श्रेय देना होगा कि उन्होंने इस मौके पर लोकलुभावन बयानबाजियों से परहेज किया है, जैसी कि अक्सर मीडिया में होती रही हैं। वे भारत के साथ संबंधों (खासकर आर्थिक संबंध) को सुधारने को लेकर गंभीर लग रहे हैं। दोनों देश बातचीत के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं, तो पाकिस्तानी वार्ताकारों के लिए जरूरी होगा कि वे हमारे मजबूत आर्थिक पहलुओं पर फोकस रखें। हम यह मानें कि भारत के साथ व्यापार के रास्ते खोलने पर कुछ उद्योगों को फायदा होगा, जबकि कुछ अन्य को दिक्कतें भी हो सकती हैं और वे खत्म भी हो सकते हैं।
अब मोदी भारत में प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने जा रहे हैं, तो पाकिस्तानियों को इस बात पर फोकस करना चाहिए कि इससे उनके लिए क्या आर्थिक अवसर निर्मित हो सकते हैं। वे यह न सोचें कि मोदी के सत्ता संभालने से वहां के नागरिक अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ेगा। क्योंकि जहां तक अल्पसंख्यकों से बर्ताव का सवाल है तो इस मामले में नैतिक रूप से हमारी स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है।
नरेंद्र
मोदी भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने जा रहे हैं, तो
पाकिस्तानियों के मन में बेचैनी है। लेकिन यह बेचैनी गलत कारणों को लेकर
है। ज्यादातर पाकिस्तानी मोदी के हिंदू राष्ट्रवाद को लेकर सशंकित हैं,
जबकि इसका सीधा कोई प्रभाव हम पर नहीं पड़ने जा रहा है। इस बीच हम उस तथ्य
को अनदेखा कर रहे हैं, जिसे लेकर हमें वास्तव में चिंतित होना चाहिए। यह है
मोदी का आर्थिक एजेंडा, जिससे एक लंबे समय तक हमारा साबका
पड़ने वाला है।
लेकिन
पहले हम थोड़ा पीछे मुड़कर देखें। वर्ष 1988 में एक औसत भारतीय की प्रति
व्यक्ति आय किसी आम पाकिस्तानी के मुकाबले 32 फीसद कम थी। किंतु वर्ष 2012
तक आते-आते यह स्थिति पलट गई। विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक पर्चेसिंग
पॉवर पैरिटी के लिहाज से एक औसत भारतीय व्यक्ति पाकिस्तानी नागरिक के
मुकाबले 33 फीसद ज्यादा अमीर हो गया। इससे भी ज्यादा हताशाजनक एक और बात
है। वह यह कि यह वर्ष 2005 में हुआ। यानी उस साल में, जिसे पाकिस्तान के
आर्थिक विकास के इतिहास में बेहतरीन वर्षों में से एक माना जाता है। इसका
सीधा मतलब यह है कि आर्थिक मोर्चे पर हमारा बेहतरीन प्रदर्शन भी तेजी से
आगे बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ चलने के लिहाज से पर्याप्त नहीं था।
भारतीय
अर्थव्यवस्था का सतत विकास 1990 के दशक के आरंभिक दौर से शुरू हुआ, जब
उसने नियंत्रण-राज और सबसिडी के प्रभावी स्वरूप वाले आर्थिक एजेंडे की
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नाकामीको स्वीकारते हुए आर्थिक सुधारों का सूत्रपात किया। इसके बाद भारतीय
अर्थव्यस्था मानो सुनामी की रफ्तार से आगे बढ़ी और यह जल्द ही पाकिस्तान को
पीछे छोड़ते हुए विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो गई।
ऐसे
में पाकिस्तानियों को हमेशा के लिए यह विचार त्याग देना चाहिए कि हमारा
मुल्क आर्थिक मायनों में कभी भी भारत जितना बड़ा या अहम हो सकता है। लेकिन
हम कम से कम प्रति व्यक्ति आय के आधार पर तो प्रतिस्पर्धा कर सकते हैं और
करना भी चाहिए, इस तथ्य को देखते हुए कि अतीत में ज्यादातर समय एक औसत
पाकिस्तानी किसी आम भारतीय के मुकाबले ज्यादा अमीर रहा है। हालांकि ऐसा कुछ
हद तक अमेरिका की बाहरी मदद के कारण भी है, लेकिन भारत और पाकिस्तान के
आर्थिक प्रदर्शन के बीच बड़े फासले का प्रमुख कारण यही हो सकता है कि
पाकिस्तान भारत की अपेक्षा हमेशा से ही थोड़ी ज्यादा खुली और उदार
अर्थव्यवस्था रहा है। यदि उद्यमियों के लिए यहां दिक्कतें हैं, तो वाघा
सीमा के उस पार इससे भी ज्यादा दिक्कतें रही हैं।
वास्तव में मोदी
व्यापक जन-समर्थन की लहर पर सवार होकर इसीलिए चुने गए, क्योंकि भारतीय
अर्थव्यवस्था पर्याप्त रूप से खुली नहीं है। सुधारों की रफ्तार थमने से
भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से लुढ़कने लगी (इसकी विकास दर 8 फीसद से फिसलकर
पांच फीसद से कुछ नीचे पहुंच गई, हालांकि पाकिस्तानी स्टैंडर्ड के हिसाब से
यह अब भी प्रभावी दर है)। इस वजह से मतदाताओं में बदलाव की मांग उठी। ‘द
वॉल स्ट्रीट जर्नल" के सदानंद धुमे के हवाले से कहें तो मतदाताओं ने मोदी
के ‘थैचरनुमा मंत्र ‘अधिकतम प्रशासन, लघुतम शासन"" पर सकारात्मक
प्रतिक्रिया दी।
एक पाकिस्तानी होने के नाते मेरी चिंता यह नहीं है
कि मोदी भारतीय मुस्लिमों के प्रति सख्त हो सकते हैं। मेरी चिंता यह है कि
वे भारतीय अर्थव्यवस्था को तेजी से आगे बढ़ाते हुए हमें आर्थिक मोर्चे पर और
पीछे छोड़ सकते हैं। बेशक यदि मोदी सफल होते हैं तो अपने भारतीय पड़ोसियों
की समृद्धि से मुझे भी खुशी ही होगी। मैं तो सिर्फ अपने देश के पिछड़ने को
लेकर चिंतित हूं। दरअसल हम आर्थिक असंतोष पर अच्छी तरह से लगाम नहीं लगा
पाते हैं।
वैसे प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को इस बात का श्रेय देना होगा
कि उन्होंने इस मौके पर लोकलुभावन बयानबाजियों से परहेज किया है, जैसी कि
अक्सर मीडिया में होती रही हैं। वे भारत के साथ संबंधों (खासकर आर्थिक
संबंध) को सुधारने को लेकर गंभीर लग रहे हैं। दोनों देश बातचीत के रास्ते
पर आगे बढ़ते हैं, तो पाकिस्तानी वार्ताकारों के लिए जरूरी होगा कि वे हमारे
मजबूत आर्थिक पहलुओं पर फोकस रखें। हम यह मानें कि भारत के साथ व्यापार के
रास्ते खोलने पर कुछ उद्योगों को फायदा होगा, जबकि कुछ अन्य को दिक्कतें
भी हो सकती हैं और वे खत्म भी हो सकते हैं।
अब मोदी भारत में
प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने जा रहे हैं, तो पाकिस्तानियों को इस बात पर
फोकस करना चाहिए कि इससे उनके लिए क्या आर्थिक अवसर निर्मित हो सकते हैं।
वे यह न सोचें कि मोदी के सत्ता संभालने से वहां के नागरिक अधिकारों पर
क्या प्रभाव पड़ेगा।क्योंकि जहां तक अल्पसंख्यकों से बर्ताव का सवाल है तो
इस मामले में नैतिक रूप से हमारी स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है।
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