सरकार स्थिति को नियंत्रण में बता रही है। मगर इस तरह की शांति के बाद भी वहां हिंसा कीघटनाएं होती रही हैं। दो साल पहले हुई जातीय हिंसा में चौहत्तर से अधिक लोग मारे गए थे। साढ़े चार लाख से ऊपर औरत-मर्द-बच्चे राहत शिविरों में खौफ के साए में जीने को मजबूर हुए। अभी उन राहत शिविरों में रहने वाले लोग पूरी तरह अपने घर वापस भी नहीं गए कि हिंसा का यह ताजा दौर शुरूहो गया। इसका निदान ढूंढ़ना जरूरी है। इसकी पहली शर्त है कि आप इसे सांप्रदायिकता के चश्मे से न देखें।
भाजपा इस पूरे प्रकरण को सांप्रदायिक रंग देती रही है। इस लिहाज से मोदी और आडवाणी में कोई खास फर्क नहीं है। इस बार घुसपैठियों के खिलाफ मोदी का शंखनाद हुआ। पिछली बार आडवाणी का बयान आया था कि समस्या के मूल में बांग्लादेशी मुसलमान हैं, जो अवैध तरीके से उस इलाके में प्रवेश कर गए हैं। चुनाव आयुक्त हरिशंकर ब्रह्मा ने इंडियन एक्सप्रेस में पिछले साल 28 अगस्त को प्रकाशित अपने लेख ‘हाउ टु शेयर असम’ में कहा था कि साठ के दशक के अंतिम वर्षों और सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों के बीच इस इलाके में प्रवासी बांग्लादेशियों के प्रवेश से हालात बिगड़े हैं। इस बहस के अगले दिन दिल्ली के एक सेशन जज ने डकैती के एक मामले में दो बांग्लादेशी अभियुक्तों को सजा सुनाते हुए कहा कि इस देश में करीब तीन करोड़ बांग्लादेशी राष्ट्रीयता वाले लोग हैं, जो यहां की सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं, जबकि यहां के संसाधनों पर पहला हक भारतीय नागरिकों का है। केंद्र सरकार उन्हें चिह्नित कर बाहर निकालने में विफल रही है। यानी कुल मिलाकर ठीकरा उन्हीं लोगों के सिर पर फोड़ा जाता है, जो जातीय हिंसा के शिकार होते हैं।
हालांकि इसके पहले आठ अगस्त को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित अपने लेख में बनजीत हुसैन ने इस तथ्य को चुनौती देते हुए कहा था कि असम में मुसलमानों का प्रवेश आजादी के पहले ही हो चुका था। पश्चिम बंगाल से असम में प्रवेश करने वाले मुसलमान उस वक्त अविभाजित जिला गोआलपाड़ा में बसे, जो अस्सी के दशक तक चार जिलों- कोकराझार, बोंगईगांव, चिरांग और ढुबरी- में बंट गया।
यह बात दावे से नहीं कहीजा सकती कि असम में बसे सारे मुसलमान बांग्लादेश बनने और उसके बाद हुए युद्ध के दौरान वहां से भाग कर आए। फिर इस तथ्य से भी स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि मुसलमान बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों में या सत्तर के दशक में असम पहुंचे। दरअसल, जैसे-जैसे जीवन यापन के संसाधन कम होते गए, जमीन और रोजगार की किल्लत बढ़ने लगी, असम में जातीय-नस्ली हिंसा और दंगे-फसाद भड़कने लगे। कभी बोडो मूलवासी मुसलमानों से टकराते हैं, तो कभी झारखंड से गए आदिवासियों से। उस इलाके में सदियों से बसे अन्य आदिवासी समुदायों के बीच भी तकरार होती रहती है। इसलिए इसे सांप्रदायिक नजरिए से देखना एक बुनियादी भूल होगी।
मगर राजनीतिक दलों के नेता लगातार ऐसा ही करते रहे हैं, क्योंकि उनकी समझ और साजिश यह है कि क्षेत्रीय असंतोष से उपजे जातीय ध्रुवीकरण को सांप्रदायिक रंग देकर वे अपने अपने-तरीके से वोट की राजनीति कर सकते हैं।
दरअसल, संपूर्ण जनजातीय क्षेत्र ही आज एक बेचैनी से गुजर रहा है। असम में अगर नगा विद्रोही सक्रिय हैं, तो पूर्व, मध्य और दक्षिणी प्रदेशों में माओवादी। हमें गहराई से उन कारणों पर विचार करना चाहिए कि आदिवासी समाज के असंतोष की वजह क्या है, क्योंकि समाधान यहीं से निकलेगा। भारत के किसी भी हिस्से के जंगलों, पर्वतीय अंचलों में चले जाइए, अपनी नीरवता में जीते किसी न किसी आदिवासी समुदाय के लोग आपको मिल जाएंगे। ये कम से कम दो सौ किस्म की भाषाएं बोलते हैं। इनके रूप-रंग में भी भिन्नता है। कुछ मलय मूल से मिलते-जुलते हैं, कुछ चीनी मूल के लोगों से। इनके बारे में आज हमारे पास पहले से ज्यादा जानकारी है, लेकिन आज भी वे एक धुंध में लिपटे नजर आते हैं। इसीलिए देश की राजधानी में पहुंचे इस क्षेत्र के लोगों को बहुधा विदेशी ही समझ लिया जाता है।
इन जनजातीय समुदायों में बोडो असम के सबसे पुराने बाशिंदे हैं। इतिहासकारों के अनुसार, सदियों पहले तिब्बत होते हुए ये ब्रह्मपुत्र घाटी में पहुंचे और पूर्वी हिमालय के संपूर्ण तराई क्षेत्र- असम, त्रिपुरा, उत्तरी बंगाल और आज के बांग्लादेश के कुछ हिस्सों- में बस गए। ये तिब्बत-बर्मी भाषा परिवार की एक भाषा बोलते हैं। ये एनिमिस्ट परंपरा के लोग थे, लेकिन अब हिंदू हैं। उसी तरह जैसे झारखंड के आदिवासी भी हिंदू बताए जाते हैं। इनके पास अपनी लिपि थी, जो संरक्षण के अभाव में खत्म हो गई। शुरू में इन्होंने लैटिन और बंगाली लिपि को अपनाया। अब देवनागरी में लिखते
हैं। इसी समुदाय ने अपने इलाके में धान के खेत तैयार किए, चाय के बगान लगाए, लेकिन उतना ही जितने की उनको जरूरत थी।
इसके अलावा, ये रेशम पैदा करने वाला कीड़ा पालते हैं। हर घर में एक करघा जरूर होता है। अपना बुना कपड़ा पहनते हैं। बांस के सामान बनाते हैं। पहाड़ी अंचलों में जीवन कठिन होता है। ऊंचे-नीचे रास्तों से होकर र्इंधन के लिए लकड़ी जुटाना, ढलानों पर खेती, जंगल पर निर्भरता, सामूहिक श्रम और आनंद वाली संस्कृति। लेकिन हमारी राजनीति और अदूरदर्शिता ने इस सीधी-सादी जनजाति को हिंस्र विद्रोही में बदल दिया है।
आवागमन की सुविधा बढ़ने के साथ इसक्षेत्रमें बहिरागतों का प्रवेश हुआ। आजादी के बाद प्रखंड इकाई तक सरकारी कार्यालय बने। विकास के साथ सुदूर इलाकों में सरकारी अमले, अधिकारी, अभियंता, ओवरसीयर, ठेकेदार, जमादार आदि भी पहुंचे। बहिरागतों की संख्या बढ़ती गई। दुकानें, बाजार पसरते गए। इसके अलावा रोजगार की तलाश में पहुंचे अन्य इलाकों के लोगों से आबादी का संतुलन बिगड़ने लगा। तथाकथित विकास के साथ लिपटी बीमारियां तो पसरती गर्इं, लेकिन यहां के लोगों को विकास का लाभ नहीं मिला। शैक्षणिक संस्थानों में बोडो छात्रों की संख्या गिनती की होती थी। सरकारी नौकरियों में आरक्षित पद भी खाली रह जाते। परिणाम यह कि क्षेत्रीय असंतोष भड़कने लगा।
बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दिनों में भारी संख्या में बांग्लादेशी मुसलमानों का इस क्षेत्र में प्रवेश हुआ। सरकारी रिकार्ड के अनुसार, कम से कम तीन करोड़ बांग्लादेशी मुसलमान आज देश में हैं। इसका बड़ा हिस्सा पूर्वोत्तर राज्यों में सिमटा हुआ है। हम बांग्लादेशी मुसलमानों को इन सबके लिए दोषी नहीं ठहरा सकते। वे इतिहास और समय के मारे लोग हैं। उनमें से बहुसंख्यक कभी दलित-पिछड़े हिंदू ही थे, जो अगड़ी जातियों के उत्पीड़न का शिकार होकर मुसलमान बन गए। उनमें से अधिकतर बुनकर थे, जो इंग्लैंड में हुई औद्योगिक क्रांति से तबाह हो गए। लंकाशायर के कपड़े के बाजार के लिए उन्हें बर्बाद कर दिया गया। देश का विभाजन हुआ और वे दर-बदर हो गए। बांग्लादेश के गठन के वक्त एक बार फिर उन पर गाज गिरी और वे भारी संख्या में शरणार्थी बन कर भारत में चले आए, जो कभी उनका भी देश था। उनमें से अधिकतर अब भारत में रहते हैं।
पूर्वोत्तर की जनजातीय आबादी को इस सबका खमियाजाभुगतना पड़ा। 1980 में उपेंद्रनाथ ब्रह्मा के नेतृत्व में बोडो आंदोलन शुरूहुआ। एक दशक लंबे संघर्ष के बाद बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद का गठन हुआ। लेकिन हकीकत यह है कि इस सबके बावजूद बोडो आबादी का अनुपात कम होता जा रहा है। उनकी जमीन उनसे छिनती जा रही है। उनकी संस्कृति, जातीय अस्मिता मिटती जा रही है। हिंदू धर्म से उनका कोई वास्ता नहीं था। लेकिन आज ऐनिमिस्ट परिपाटी से पूजा-पाठ करने वाले लोग वहां गिनती के रह गए हैं। सबसे बड़ी बात यह कि उनमें महाजनी व्यवस्था में जीने की बुद्धिमत्ता नहीं। इसलिए वे पिछड़ते जा रहे हैं।
हमारे लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली का मूलाधार संख्याबल है। अब जब उनकी आबादी का अनुपात घटता जा रहा है, धीरे-धीरे मताधिकार पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था ही उनके लिए बेमतलब बन कर रह जाने वाली है। यही असुरक्षा की भावना, अस्तित्व मिटने का भय, जब-तब हिंसक कार्रवाइयों के रूप में प्रगट होते हैं।
जिस तरह झारखंड और उससे सटे इलाकों में समाजवादियों, कम्युनिस्टों और चौहत्तर आंदोलनों से निकले सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं की सक्रियता रही है और लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत संघर्ष की एक परंपरा बनी, वैसा सुदूर पूर्वोत्तर में नहीं हो सका। इस वजह से अलग झारखंड राज्य का आंदोलन कमोबेश शांतिपूर्ण तरीके से चला। हिंसा की घटनाएं कभी-कभार ही हुर्इं, जबकि बोडो क्षेत्र में वहां के आदिवासियों के संघर्ष की उपलब्धि कम और हिंसा कहीं ज्यादा रही।
साठ के दशक में जेपी की अगुआई में नगा समस्या के हल कीदिशा में कुछ सार्थक बातचीत शुरूहुई थी। लेकिन वह प्रक्रिया बहुत दूर तक नहीं चली। दिल्ली के हुक्मरानों ने फौजी तरीके से हल निकालने के विकल्प में रुचि ली। इसका परिणाम यह हुआ कि उस इलाके में जनवादी आंदोलन भी हिंस्र तरीके से चला। क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया कि शरणार्थियों का बोझ सिर्फ असम क्यों उठाए? क्या शरणार्थियों को देश के अलग-अलग हिस्सों में नहीं बसाया जा सकता?
हमारे बहुत-से बुद्धिजीवियों को इस बात से आश्चर्य होता है कि आजाद भारत में आप किसी को देश के किसी हिस्से में जाने और बसने से कैसे रोक सकते हैं? लेकिन कोई न कोई हद तो मुकर्रर करनी ही पड़ेगी। क्या आप आक्रामक और विकसित सभ्यता-संस्कृति को अविकसित और भिन्न सभ्यता-संस्कृति को लील जाने की छूट देंगे? इतिहास में यह सब होता रहा है। लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी क्या ‘सर्वाइवल आॅफ द फिटेस्ट’ का ही सिद्धांत चलेगा? अगर समय रहते हम इन सवालों का हल नहीं ढूढ़ते, इस व्यवस्था को सही अर्थों में समतामूलक और न्यायपूर्ण नहीं बनाते, तो स्थिति दिनोंदिन और गंभीर होती जाएगी।