मतदाताओं में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन पूरे चुनाव के दौरान लगा कि राजनीतिक
पार्टियां अब भी बदलने को तैयार नहीं। अभी सर्वोच्च न्यायालय का एक फैसला
आया है कि चुनाव आयोग के पास पेड न्यूज की वजह से चुनाव खर्च की जांच करने
का अधिकार है। दरअसल विरोधी पार्टी की शिकायत पर चुनाव आयोग 2009 के
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण द्वारा
पेड न्यूज के खर्च की जांच कर रहा था। चव्हाण ने आयोग की पहल को इस आधार पर
चुनौती दी थी कि उसे पेड न्यूज के खर्च की जांच करने का अधिकार नहीं है।
कांग्रेस भी चव्हाण का समर्थन कर रही थी। उच्च न्यायालय के बाद यह मामला
शीर्ष अदालत में पहुंचा। उसने फैसला देने के साथ यह भी कहा है कि आयोग
चव्हाण के खिलाफ शिकायत पर 45 दिन के भीतर जांच कराए। आयोग ने चव्हाण को 23
मई को तलब किया है।
दरअसल चुनावी परिदृश्य को साफ-सुथरा करने के
लिए अभी जिस तरह की पहल की जा रही है और राजनीतिक पार्टियों तथा नेताओं को
जिस तरह चुनौती मिल रही है, कुछ वर्ष पहले तक इसकी कल्पना भी नहीं की जा
सकती थी। पिछले साल जून में केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) ने राजनीतिक दलों
को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में लाने का ऐतिहासिक फैसला दिया था।
उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने दागी जनप्रतिनिधियों के खिलाफ कई बड़े फैसले
दिए। यह सब दरअसल एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) जैसे संगठनों
के दबाव का भी नतीजा है, जो अब पंद्रह साल का हो चुका है। पहले चुनावी
सुधार के लिए हवाई बातें की जाती थीं। लेकिन एडीआर आंकड़े सामने रखकर बताता
है कि राजनीतिक दल वस्तुतः चुनाव सुधार के लिए तैयार ही नहीं हैं।
चुनाव
खर्च का ही मामला लीजिए। पिछले लोकसभा चुनाव में खर्च सीमा 40 लाख थी।
एडीआर ने 2009 के लोकसभा चुनाव में 6,753 प्रत्याशियों के चुनावी खर्च से
जुड़े शपथपत्रों की जांच की। केवल चार प्रत्याशियों ने माना था कि उन्होंने
तय सीमा के अनुसार 40 लाख रुपये खर्च किए। तीस प्रत्याशियों का कहना था कि
उन्होंने तय सीमा का नब्बे फीसदी खर्च किया। जबकि 6,719 यानी 99.99
प्रतिशत उम्मीदवारों ने बताया कि उन्होंने तय सीमा का आधा ही खर्च किया। इस
लिहाज से तो लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों का खर्च कम कर देना चाहिए था।
लेकिन 2014 में इसे बढ़ाकर 70 लाख कर दिया गया। साफ है कि चुनावी खर्च के
बारे में राजनेता सच नहीं बोल रहे थे। वरिष्ठ भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने
यह कहकर कि 2009 के लोकसभा चुनाव में उनके आठ करोड़ रुपये खर्च हुए थे, इस
झूठ को और बल ही प्रदान किया था। इस चुनाव में कुछेक प्रत्याशियों ने जितना
खर्च किया है,वह 70 लाख की नई सीमा से भी कहीं अधिक हो सकता है।
मामला
सिर्फ धनबल का नहीं है, बाहुबल का भी है। पिछले साल दिल्ली में हुए
विधानसभा चुनाव में अपराधी प्रत्याशियों की संख्या पहले से दो फीसदी अधिक
रही। जिस भी लोकसभा या विधानसभा क्षेत्रमें तीन या उससे अधिक प्रत्याशियों
का आपराधिक रिकॉर्ड होता है, उसे रेड अलर्ट कॉन्स्टीट्यूएंसी कहा जाता है,
और ऐसी सीटों पर सुरक्षा के मामले में अतिरिक्त सक्रियता दिखाई जाती है।
यानी चुनाव आयोग तो स्वतंत्र और पारदर्शी चुनाव के लिए अपनी ओर से कदम उठा
रहा है। लेकिन राजनीतिक परिदृश्य उस अनुरूप बदल रहा हो, ऐसा नहीं है। और
यही चिंता की बात है।
इसका हवाला दिया जा रहा है कि चुनावी हिंसा अब
कम हो गई है। यह सही बात है। लेकिन चुनावी हिंसा तो ईवीएम (इलेक्ट्रॉनिक
वोटिंग मशीन) के आने के बाद से ही कम हो गई है। पहले बूथों पर लठैत कब्जा
कर लेते थे। ईवीएम ने यह स्थिति बदली है। इसके अलावा चुनाव सुरक्षा बलों की
छत्रछाया में कराए जाते हैं, जो एक लोकतांत्रिक देश के लिए गर्व की बात
नहीं है। इस बार चुनाव आयोग ने मतदान को नौ चरणों में विभाजित किया, तो ऐसा
एक जगह से दूसरी जगह सुरक्षा बलों के जाने की सहूलियत को देखते हुए किया
गया।
पर चुनावी परिदृश्य में कुछ सकारात्मक बदलाव सचमुच देखने में
आए हैं। जैसे, पहले की तुलना में अधिक मतदाता मतदान केंद्रों तक पहुंच रहे
हैं। वोटिंग प्रतिशत का बढ़ना बहुत अच्छा संकेत है। अब नोटा भी आ गया है,
जिससे मतदाताओं के लिए किसी भी प्रत्याशी को चुनने की विवशता नहीं रह गई
है। अगर उसे लगता है कि कोई भी प्रत्याशी चुने जाने लायक नहीं है, तो वह
नोटा का इस्तेमाल कर सकता है। खुद सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि मतदाता
नोटा का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करेंगे, तो राजनीतिक पार्टियां बेहतर
प्रत्याशियों को चुनाव में उतारने के लिए मजबूर होंगी। कई लोकसभा सीटों पर
प्रत्याशियों के बीच खुली बहस शुरू हुई है। इसका भी संज्ञान लेना चाहिए। इस
मामले में मीडिया की भूमिका भी अच्छी रही है। इसके अलावा चुनावी राजनीति
में अब पेशेवर वर्ग के लोग आ रहे हैं। नंदन नीलेकणि, मेधा पाटकर और मीरा
सान्याल जैसों का जिक्र इस संदर्भ में किया जा सकता है। यह जो गैरपरंपरागत
राजनीति शुरू हुई है, इससे उम्मीद बंधती है।
लेकिन भारतीय राजनीति
का स्वरूप इतना जटिल है कि भविष्य के लिए एकदम कोई निष्कर्ष देना कठिन
होगा। क्योंकि चुनावी राजनीति में कुछ सकारात्मक है, तो कुछ नकारात्मक।
हां, इतना कह सकते हैं कि अगले पांच-दस साल में चीजें सुधरेंगी जरूर।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफोर्म्स (एडीआर) के संस्थापक-न्यासी