गांव प्रयोगशाला नहीं, हमारी सांस्कृतिक जड़ हैं

पटना निवासी बाबुल प्रसाद ग्रामीण क्षेत्रों में विकास के लिए सतत कार्य
करते रहे हैं. बाबुल ने आइआइबीएम पटना से मार्केटिंग में एमबीए की शिक्षा
ग्रहण की. इन्होंने ‘यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन’ ‘सिएटल’ से एक साल का
फैलोशिप भी किया हुआ है.

बाबुल प्रसाद ‘पॉपुलेशन एसोसिएशन ऑफ अमेरिका’ के स्थायी सदस्य और पटना
विश्वविद्यालय के ‘रूरल मैनेजमेंट डिपार्टमेंट’ के गेस्ट फैकल्टी भी हैं.
वर्तमान में इनका संगठन बिहार- झारखंड के कई जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों
में विकास कार्य को लेकर सक्रिय है. बाबुल प्रसाद से सुजीत कुमार ने बात
की.

भारतीय राजनीति ग्रामीण संस्कृति के कितने अनुरूप हैं?

राजनीति के किसी भी दौर में और ग्रामीण राजनीति में सामाजिक
अर्थव्यवस्था का मुद्दा ही प्राथमिक होता है. इसे और विस्तृत रूप में देखा
जाये, तो इसके बाद जाति, धर्म का मामला सामने आता है. यह एक बड़ा फैक्टर
है. इस पर गौर करें, तो  पिछले 15-20 सालों से यह बहुत विस्तृत हुआ है.
ग्रामीण राजनीति में वर्गीकरण होता है. जैसे गांव का कोई रसूखदार आदमी है.
वह कुछ लोगों को एकत्र करता है. वे लोग अपने जाति की राजनीति करते हैं.
इससे अन्य वैसे लोगों को परेशानी होती है, जो आगे बढ़ना चाहते हैं. यह केवल
गांव की राजनीति में ही नहीं है. गांव से जुड़े हर क्षेत्र में है. शहरों
में भी है. डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, फिल्म स्टार का बेटा फिल्म स्टार, लेकिन
इन सब बातों का दूरगामी असर भी है. इससे गांव या शहर के वैसे युवा
प्रभावित हैं जो आगे बढ़ना चाहते हैं. कुछ करना चाहते हैं. उनमें हताशा
रहती है. इसे बहुत हद तक ग्रामीण संस्कृति के अनुरूप नहीं कह सकते हैं.

गांवों की बुनियादी जरूरतें और उसकी संभावनाओं को वर्तमान राजनीति कितना महत्व दे रही है?

अगर समझदारी की बात करें तो सभी पार्टियां ध्यान दे रही है और अगर
ईमानदारी की बात करें तो पार्टियां केवल ध्यान ही दे रही है, कर कुछ नहीं
रही हैं. महत्व वाली कोई बात ही नहीं है. केवल बयानबाजी है. देश में अब तक
जितने भी चुनाव हुए हैं, सभी में बिजली, पानी, सड़क देने के नाम पर वोट
मांगे जाते हैं. एमपी और एमएलए अपने फंड से काम कराने की बात भी कहते हैं.
अगर उसकी तह में देखें तो 90 प्रतिशत तक काम होने का दावा रहता है लेकिन
केवल कागज पर. बिहार के संदर्भ में देखें तो एक रिपोर्ट के अनुसार यहां
एमपी फंड से काम कराने का आंकड़ा करीब 40-45 प्रतिशत है. इसमें ग्रामीण
क्षेत्रों में विकास कार्यो के लिए काम कराने का जोर रहता है. लेकिन
हवा-हवाई. कुछ लोगों में भी कमी है. वह जागृत नहीं हो पाते हैं. पेयजल के
लिए गांव में मार्क -2 चापाकल लगाने की योजना है. सरकार लगाती है. इसमें
करीब 45 हजार रुपये खर्च होते हैं. हमारे संगठन के माध्यम से भी लगाया गया
है. सरकारी चापाकल कुछ दिनों में ही सूख जाते हैं जबकि हमारे द्वारा लगाया
गया चापाकल आज भी काम कर रहा है. कोई भी सरकारी काम होता है तो लोग कहते
हैं कि यह मेरा नहीं है, सरकारी है. अब देखिए, काम कहांहोना है, यह बीडीओ,
मुखिया और 4-5 लोगों की टीम तय करती है. सब मिल कर काम करा लेते हैं.
लेकिन फंड का सही उपयोग नहीं होता है. केवल अपना हित साधा जाता है. नेता
अपने साथ रहने वाले को टेंडर जारी करवा देते हैं जो कि गांव का निवासी होता
है. बाद में उसे भुनाते हैं कि हमने गांव के लोगों को मौका दिया. एक आदमी
पूरे गांव का प्रतिनिधित्व तो नहीं कर सकता है. गांव की क्या जरूरतें हैं?
उससे कोई मतलब नहीं रहता है. बुनियादी जरूरतों में राजनीतिक महत्व केवल हित
साधने तक ही हैं.

चुनाव में गांव मुद्दा नहीं बना, लेकिन ग्रामीण वोटर मुद्दा हैं. यह विरोधाभास गांव के लिए कितना खतरनाक हो सकता है?

यह हर प्रकार से खतरनाक है. कोई भी राजनीतिक दल हो वह गांव को एक
प्रयोगशाला के रुप में देखती है. कैसे गांव को उपयोग कर सकते हैं? बिहार,
झारखंड में विकास कोई मुद्दा नहीं है. झारखंड में केवल वही वर्ग आगे है जो
ऊंचे स्तर तक अपनी पकड़ बना रखे हैं. ग्रामीणों के पास कोई विकल्प नहीं है.
अभी एक विकल्प मिला है, नोटा के रुप में. विकास दो तरह के होते हैं,
हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर. ग्रामीण आबादी पुल, सड़क बन जाने से ही खुश हो
जाती हैं. इससे हार्डवेयर विकास तो हो जाता है लेकिन सॉफ्टवेयर विकास पर
कोई ध्यान नहीं देता है. शिक्षा, स्वास्थ्य, आंगनबाड़ी जैसी व्यवस्थाओं पर
कोई ध्यान नहीं देता. इससे सॉफ्टवेयर विकास खत्म हो जाता है. मनरेगा जैसी
योजनाएं बहुत लाभदायक है. केवल रुपये खर्च देने से ही विकास कर देने की
गारंटी नहीं हो जाती है. गांव में महिलाओं को पोषक आहार नहीं मिल पाता है.
इसका असर आने वाली पीढ़ी पर पड़ता है. शौचालय नहीं है, पेयजल की हालत सही
नहीं है. इन क्षेत्रों में पीएचसी तो है लेकिन डॉक्टरों की उचित व्यवस्था
नहीं है. एक ही डॉक्टर सभी तरह की बीमारियों का इलाज करता है. स्कूल भवन,
शिक्षा की भी हालत पतली है. महज दो शिक्षक सात-आठ क्लास के बच्चों को
पढ़ाते हैं. बच्चों के नामांकन में तेजी देखने को मिली है लेकिन शिक्षा का
स्तर गिरा है. बच्चों का भविष्य तो अभी से ही डगमगाने लगता है. इन सब बातों
से नाराजगी है. आज संचार युग का दौर है. गांव के लड़के पलायन करते हैं.
वहां से जब वापस आते हैं तो हताश रहते है. वहां उनको सारी सुविधाएं मिल
जाती है, जो गांव में नहीं मिलती. गांव में बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं रह
जाते हैं. हमारे यहां औरतें खेती बहुत कम करती हैं. गांव के बड़े किसान या
दबंग काम को लेकर दबंगई दिखाते हैं. कृषि में उत्पादन हुआ है लेकिन वह
तकनीक, बैंकों के द्वारा ऋण देने की सुविधा के कारण. इससे किसान प्रभावित
हो रहे हैं, लेकिन सीमित मात्र में. गांव की सत्ता गांव के हाथ देने की पहल
करनी होगी. पंचायती राज संस्थान इसमें बहुत मददगार हो सकता है लेकिन यह
अभी पावरलेस है, इसके पास पावर ही नहीं है. इसके अलावे भ्रष्टाचार अलग
मामला है. हर स्तर पर भ्रष्टाचार प्रभावित करता है. ग्रामीण क्षेत्रों को
आगेबढ़ानाहै तो इन सब बातों पर अमल करना होगा.

गांव की जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी योजनाएं कितनी प्रभावी हैं?
इसमें राष्ट्रीय, प्रांतीय और ग्रामीण राजनीति की क्या भूमिका है? इनसे
वर्तमान हालात में बदलाव की आपको कितनी उम्मीद दिखती है और किस रुप में ?

इस देश में सरकारी योजनाओं की कोई कमी नहीं है. अगर ईमानदारी से विकास
करना है तो ये योजनाएं पर्याप्त हैं. 600 से भी ज्यादा योजनाएं चल रही है
पूरे देश में. प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को छोड़िए मंत्रियों तक को इन
पूरी योजनाओं के बारे में याद नहीं होगा. मां के पेट में बच्चा के आने के
बाद जननी सुरक्षा योजना से लेकर मरने पर कबीर अंत्येष्टि योजना तक, हर तरह
की योजनाएं हैं लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इससे लाभ कितना है? जन्म के बाद
पैदा होना, खाना, लड़की की शादी के लिए पैसे देने की योजना किसी तरह की
योजना की कमी नहीं है. स्कूल में पढ़ाई के साथ विकास के लिए मिड डे मिल, घर
के लिए इंदिरा आवास योजना, निर्मल ग्राम बनाने के लिए लोहिया स्वच्छता
योजना, खेती के लिए किसान क्रेडिट योजना, अंत्योदय,

 

बाबुल प्रसाद

चेयरमैन

इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट फाउंडेशन, पटना

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