नई ईस्ट इंडिया कंपनी के दौर में- गौतम घोष

जल्दी ही हम नई सरकार चुन लेंगे और देश का अगला प्रधानमंत्री भी। धूमधाम से
मतदान का लोकतांत्रिक पर्व निपट जाएगा। आजादी के 67 वर्षों बाद भी हम
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। यह गर्व की बात है। पर आज हमारे सामने
चुनौतियां कम नहीं हैं। हम देशवासियों के सामने प्रश्न खड़ा है कि सिर्फ
सांविधानिक अधिकारों के प्राप्त हो जाने से ही हमारा संविधान और लोकतंत्र
सफल मान लिया जाएगा?

भोजन, शिक्षा, न्याय, भूमि और आवास जैसे
अधिकारों के बिना हमारे लोकतंत्र को सफल कैसे माना जाए? हमारी जनसंख्या सवा
अरब हो चुकी है और बहुत बड़े भाग को भोजन तक नसीब नहीं हो रहा। ऐसे में
शिक्षा, चिकित्सा और न्याय के बारे में सोचना भी बेमानी लगता है। मूल
अधिकारों और मूल सुविधाओं के बिना लोकतंत्र और संविधान का महत्व नहीं हैं।
आम आदमी को न्याय मिल पाना मुश्किल हो चला है। न्याय प्रणाली में सुधार की
आवश्यकता है। हमारे यहां किसी भी दिशा में सुधार या संवाद की रफ्तार बेहद
धीमी है।

मुझे एक वाकया याद आ रहा है। वर्ष 1975 में मैं फिल्म
डिविजन के लिए एक डॉक्यूमेंटरी बना रहा था, जो बंधुआ मजदूरों पर थी। इस
सिलसिले में मैं बिहार के पलामू जिले (अब झारखंड में) के झूरा गांव में
शूटिंग कर रहा था। वहां मुझे एक बुजुर्ग ग्रामीण मिले, जिन्होंने मुझसे
पूछा कि अब बहुत दिनों से गोरे साहब क्यों नहीं आते? पहले तो मैं कुछ समझा
नहीं, पर बाद में जब समझ में आया, तो हैरान रह गया। वह आदमी आजादी के 28
वर्ष बाद भी इस बात से अनभिज्ञ था कि देश आजाद हो चुका है।

आश्चर्य
होता है कि देश के दस लाख से भी अधिक अर्धसैनिक बल आंतरिक सुरक्षा के लिए
अपने ही लोगों से लड़ रहे हैं। इस रक्तरंजित संघर्ष में हमारे ही देशवासी
मारे जा रहे हैं। मेरे विचार से हमारे इतिहास की सबसे बड़ी भूल देश का
बंटवारा था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने आजादी लेने में
जल्दबाजी दिखाई। हमें आजादी विभाजित रूप में नहीं लेनी चाहिए थी। इससे
आजादी कुछ वर्षों के लिए टल जाती, पर आज हम ज्यादा सुकून से रहते।

स्वतंत्र
होने के बाद हमने अपना विकास मॉडल सोवियत रूस को बनाया, जिसमें विफल रहे।
अब हम अमेरिका के पीछे आंख बंद करके भाग रहे हैं, जिससे कुछ मिलने वाला
नहीं। यह समझना होगा कि हमारे देश का विकास किसी दूसरे देश की तर्ज पर संभव
नहीं है। हमारे यहां बहुत सी जातियां, धर्म, भाषा, रंग और नस्ल के लोग
हैं। इस बहुरंगी देश को किसी एक रंग में नहीं रंगा जा सकता। अंधे
ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में हमें रूस, अमेरिका या चीन के पीछे भागने की
जरूरत नहीं है। बल्कि अपने गौरवशाली अतीत से प्रेरणा लेते हुए खुद अपना
मॉडल तैयार करना चाहिए, क्योंकि हमारी सांस्कृतिक जड़ें बहुत गहरी हैं।

आप
कभी अंडमान की सेल्यूलर जेल की यात्रा करें, तो उसमें शहीदों की सूची जरूर
देखें। उसमें अस्सी प्रतिशत नाम बंगाल और पंजाब के लोगों के हैं। बाकी के
बीस प्रतिशत में पूरा देश है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि इन दोप्रांतों
के लोगों ने अंग्रेजों को काफी परेशान किया। परिणामस्वरूप भारत के विभाजन
में इन दो प्रांतों को ठीक बीचोंबीच से काट दिया गया और विभाजन की त्रासदी
इन प्रांतों के लोगों को झेलनी पड़ी। आज भी पंजाब और बंगाल के सैकड़ों
लोगों के रिश्तेदार पाकिस्तान में हैं और उनके मिलने में सरहद बड़ी बाधा
है। मेरा परिवार भी बांग्लादेश से आया था और मैंने अपनी दो फिल्मों की
शूटिंग बांग्लादेश जाकर की। भाषा, संस्कृति, जलवायु, खानपान और रंगरूप में
पूर्व और पश्चिम बंगाल में कोई फर्क नजर नहीं आता।

मेरे ख्याल से
स्वतंत्र भारत का दूसरा सबसे अहम पड़ाव 1991 में नरसिंह राव सरकार का अंध
वैश्वीकरण का है। इसके बाद बड़ी तेजी से हमारे देश में विदेशी पूंजीपतियों
ने पांव फैलाए। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का जाल देश में इस कदर फैला कि
परमाणु सौदे से लेकर खुदरा बाजार तक उनके कब्जे में चला जा रहा है। आज देश
के एक बहुत बड़े भाग को नक्सल प्रभावित रेड कॉरिडोर के रूप में जाना जाने
लगा है। छत्तीसगढ़ के बस्तर और दंतेवाड़ा के आदिवासियों के खिलाफ सलवा
जूड़ुम का आंदोलन चला। ये आदिवासी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से अपने जल, जंगल
और जमीन के लिए प्राणपण से लड़ रहे हैं। यह कहकर मैं नक्सलवाद को सही नहीं
ठहरा रहा, बल्कि एक बार हमें रुककर सोचना होगा कि विकास की परिभाषा क्या
है? क्या हजारों-हजार आदिवासी गांवों को रातोंरात विस्थापित करके ही विकास
संभव है? हम सब जानते हैं कि जहां पर पहाड़ और जंगल हैं, वहां आदिवासी हैं
और पहाड़ों के नीचे खनिज हैं। आदिवासी इन पहाड़ों और जंगलों की पूजा करते
हैं। दुनिया भर की बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लालची निगाहें यहां दबी
खनिज संपदा पर हैं। इसलिए करोड़ों डॉलरों का खेल चल रहा है।

एक और
बात मैं कहना चाहता हूं। पूर्वोत्तर जाएं, खास तौर पर मिजोरम, तो आप पाएंगे
कि वहां के लोग भारतीय टेलीविजन नहीं देखते। उनका तर्क है कि हमारे सीरियल
उनकी संस्कृति को चोट पहुंचा रहे हैं। उनका समाज हमारे सीरियलों में है ही
नहीं। वे चीन के टीवी चैनल देखते हैं या फिर स्थानीय स्तर पर बने
कार्यक्रम। हमें इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। खुद हमारे घरों में
डेली सोप का कचरा कौन-सी संस्कृति परोस रहा है? टीवी पर भी पश्चिमी जगत छा
रहा है। हम एक नई ईस्ट इंडिया कंपनी और शिक्षाविद मैकाले के दौर से गुजर
रहे हैं। हमें अपने गिरेबान में झांककर देखने की जरूरत है।

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