कैसे पूरे हो पाएंगे किसानों से किए वायदे- हरवीर सिंह

केंद्र में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के दस साल के कार्यकाल के
बाद अब एक ऐसी नई सरकार की उम्मीद लोग लगा रहे हैं, जो केवल देखने में ही
मौजूदा गठबंधन से अलग नहीं होगी, बल्कि कामकाज के तरीके के मामले में भी
अलग होगी। ऐसे में सत्ता पर काबिज होने की उम्मीद रखने वाले बड़े दल महंगाई
को काबू में लाने और विकास की गति को तेज करने के दावे के साथ लोगों के
सामने गए हैं। इन दोनों अहम लक्ष्यों को हासिल करने के लिए देश के कृषि
क्षेत्र और किसानों की आर्थिक स्थिति को मजबूत करना जरूरी है और कृषि
क्षेत्र में नीतियों के मोर्चे पर बड़े बदलाव करने होंगे। लेकिन यह काम
बहुत आसान नहीं है।

मसलन राजग का नेतृत्व करने वाली भाजपा ने अपने
घोषणा पत्र में वायदा किया है कि वह राष्ट्रीय किसान आयोग के अध्यक्ष रहे
एम एस स्वामीनाथन की सिफारिशों के अनुरूप किसान को कृषि उपज की लागत पर 50
फीसदी मुनाफा देगी। अभी तक किसानों को उनकी उपज के लिए न्यूनतम समर्थन
मूल्य (एमएसपी) मिलता है और मुनाफा शब्द कहीं शामिल ही नहीं किया जाता है।
लेकिन यहां सवाल यह है कि इस 50 फीसदी मुनाफे के लिए लागत का आधार क्या
होगा। लागत आंकने के लिए तीन श्रेणियां हैं। ए-2 लागत, ए-2 और एफएल (फैमिली
लेबर) और सी-2 लागत। सी-2 लागत में जमीन का किराया (हालांकि यह बाजार में
प्रचलित किराये से बहुत कम होता है) के साथ ही कुछ पूंजीगत लागत का खर्च भी
जुड़ जाता है। जहां तक किसानों की बात है, तो वे अभी एमएसपी को ही जानते
हैं, और यह सी-2 लागत से अधिक है। ऐसे में किसी भी नई सरकार के लिए सी-2
लागत पर 50 फीसदी मुनाफा देना बहुत आसान काम नहीं होगा। यदि ऐसा होता है,
तो करीब इसी अनुपात में दाम बढ़ जाएंगे।

वहीं मौजूदा सरकार की सबसे
बड़ी नाकामी महंगाई रही है और अधिकांश महंगाई खाद्य उत्पादों के चलते रही
है। ऐसे में अगर नई सरकार समर्थन मूल्य में अप्रत्याशित बढ़ोतरी करती है,
तो महंगाई पर काबू पाना उसके लिए संभव नहीं है। वहीं कृषि उत्पादों के
विपणन के मोर्चे पर सुधारों को लेकर दोनों बड़े दलों ने जोर दिया है। करीब
एक दशक पहले देश में टर्मिनल मार्केट बनाने का प्रस्ताव तैयार हुआ था, जहां
इलेक्ट्रॉनिक तौल के साथ ही कीमतों के इलेक्ट्रॉनिक डिस्पले और कंट्रोल
तापमान के तहत भंडारण की ढांचागत सुविधाएं तैयार कर उनको किसानों से जोड़ने
का उद्देश्य था। मगर अभी तक एक भी ऐसा बाजार तैयार नहीं हो सका है। जबकि
कृषि उत्पादनों के विपणन का नियमन राज्य सरकारों के पास है और इसके लिए हर
राज्य का एक कृषि उत्पाद विपणन समिति कानून (एपीएमसी ऐक्ट) है। इस कानून
में ज्यादा छेड़छाड़ कर राजनीतिक दल संगठित व्यापारियों को नाराज नहीं करना
चाहते हैं, लेकिन किसान को बेहतर दाम और विपणन सुविधा के साथ उपभोक्ताओं
को राहत के लिए इस मोर्चे पर काम करने से कोई सरकार बच पाएगी, यह संभव नहीं
दिखता है।

इसके अलावा उर्वरक और बीज उत्पादन लागत बढ़ाने वाले ऐसे
उत्पाद हैं, जहां सरकारके सामने पहले से ही दिक्कत है। जहां उर्वरकों की
उत्पादन लागत बढ़ने से सब्सिडी बढ़ रही है, वहीं मौजूदा सरकार नई सरकार के
लिए बड़ा सब्सिडी बिल छोड़कर जा रही है। इसी तरह बीज कारोबार निजी क्षेत्र
के हाथों में चला गया है और इससे संबंधित मसलों पर बड़ी बहस तो जारी है,
लेकिन किसान हित में क्या है, यह अभी तक तय नहीं पाया है।

चुनावों
में भले ही किसानों के मुद्दों पर सीधे बहुत चर्चा न हुई है, लेकिन चुनाव
घोषणा पत्रों में किए गए वायदों से राजनीतिक दलों ने किसानों की उम्मीदें
बहुत बढ़ा दी हैं। इन उम्मीदों को पूरा करने का नैतिक दबाव नई सरकार पर
होना लाजिमी है, हालांकि यह बहुत आसान काम नहीं है।

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