दलित गांव का दौरा किया। यह गांव सागरी तहसील के मालतरी से थोड़ी ही दूर पर
बसा है। यहां की एक महिला की दास्तान सुनकर हम दंग रह गए। दरअसल वह अपनी
बेटी का दाखिला पास के एक हाई स्कूल में छठी कक्षा में कराना चाहती थी, पर
स्कूल प्रबंधन ने इन्कार कर दिया। वजह, लड़की अपना नाम तक नहीं लिख पा रही
थी। फिर क्या था, पास के एक निजी स्कूल में लड़की को तीसरी कक्षा में फिर
से दाखिला लेना पड़ा।
यहां की प्रधानाध्यापिका के मुताबिक हर साल
उनका सामना तीन से चार ऐसे विद्यार्थियों से होता है, जिन्हें सरकारी
प्राथमिक स्कूलों से पांचवी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद फिर से तीसरी या
चौथी कक्षा में दाखिला लेना पड़ता है। अपेक्षाकृत ज्यादा विकसित और समृद्ध
माने जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है। सच तो
यह है कि यहां निजी स्कूलों का मकड़जाल कहीं ज्यादा फैला हुआ है। यहां ऊंची
जाति के तकरीबन सभी बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं, वहीं दलित भी उनसे
ज्यादा पीछे नहीं हैं। दरअसल बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा की चाह में दलित
अभिभावक कोई भी त्याग करने को तैयार हैं। सरकारी स्कूलों में किताबें,
यूनिफॉर्म, मध्याह्न भोजन, सबकुछ निःशुल्क होता है, वहीं निजी स्कूलों में
इन सभी सुविधाओं का पैसा देना पड़ता है। फिर भी यदि दलित अभिभावक अपने
बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने को आतुर हैं, तो इससे सरकारी स्कूलों की
दशा का अनुमान लगा सकते हैं। आजमगढ़ से जौनपुर-सुल्तानपुर होकर लखनऊ तक के
सड़क मार्ग के सफर में सड़क किनारे के ढाबों तक में ऐसी चर्चाएं सुनने को
मिल जाती हैं कि किस तरह सरकारी स्कूल व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है।
एएसईआर
(एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) भी सरकारी स्कूली तंत्र की गिरती दशा
की तसदीक करती है। इसके मुताबिक, उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों के 58
फीसदी बच्चे निजी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ते हैं। साफ है कि उत्तर प्रदेश
के ग्रामीण अंचल के ज्यादातर लोगों ने सरकारी स्कूलों की बेहतर होती हालत
के बावजूद उन्हें नकार दिया है। आम धारणा यह भी है सरकारी स्कूलों के
अध्यापक खुद अपने बच्चों का दाखिला अपने स्कूल में नहीं कराते हैं।
ऐसे
में सवाल यह है कि जब पूरे उत्तर भारतीय ग्रामीण अंचल में निजी स्कूलों के
अध्यापक अच्छे नतीजे देकर बच्चों का भविष्य संवार रहे हैं, तो आखिर क्यों
सरकार उनके लिए कम से कम 15 हजार रुपये के भत्ते की व्यवस्था नहीं करती,
जिससे वे ज्यादा बेहतर ढंग से देश सेवा कर सकें। व्यक्तिगत सामाजिक उद्यमी
अपना पैसा लगाकर निजी स्कूलों की स्थापना करते हैं। सरकार इन स्कूलों के
मालिकों को आर्थिक मदद क्यों नहीं देती, ताकि वे अपने स्कूलों में बुनियादी
सुविधाओं में बढ़ोतरी कर सकें। वहीं, सरकारी स्कूलों में जो थोड़ी-बहुत
पढ़ाई होती है, वह शिक्षामित्रों के भरोसे ही होती है। इसके बावजूद स्थायी
शिक्षक हर महीने 32 हजार, जबकि शिक्षामित्र महज 32 सौ रुपये का वेतन ही
पाते हैं।
ऐसे में, मतदाताओं को अपने नेताओं से पूछना चाहिए कि आखिर
क्योंवे स्कूली शिक्षा के मुद्दे को संज्ञान में नहीं लेते, सरकारी
प्राथमिक स्कूलों की बदहाली की वजह क्या है, बेहतर नतीजे देने के बावजूद
निजी स्कूलों के शिक्षकों की हालत सरकारी शिक्षकों से खराब क्यों है, निजी
उद्यमियों को सरकारी स्कूलों से बेहतर शिक्षा संस्थान खड़े करने के एवज
में सम्मान क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? समझना होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों
के सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गिरती दशा का सबसे ज्यादा नुकसान गरीबों
को ही उठाना पड़ता है। इसे सुधारने के लिए जरूरी है कि सरकार निजी स्कूलों
को प्रोत्साहन दे। सबसे अच्छा यह होगा कि सरकारी और निजी स्कूल, पूरक की
भूमिका में हों।