विकास मॉडलों के शोर में गुम मजदूर- रौशन किशोर/जीको दासगु्प्ता

चुनावी बहस-मुबाहिसों में विकास की चर्चा तो खूब है, लेकिन इस विकास का
आधार और देश की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा मजदूर कहीं प्रमुख मुद्दा नहीं
है. घोषणापत्रों में श्रमिकों के मसलों को शामिल तो किया गया है, लेकिन
उनके लिए कोई ठोस कार्ययोजना नहीं है. देश में मजदूर वर्ग निरंतर शोषण और
दमन का शिकार बनता रहा है. ‘मई दिवस’ के मौके पर मजदूरों से जुड़े मसलों को
रेखांकित कर रहा है नॉलेज..

लोकसभा चुनावों में भाषणबाजी से लेकर विज्ञापन तक जब यूपीए और गुजरात
‘मॉडल’ पर केंद्रित है, तो इस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है कि कामगार वर्ग
को इन बहसों में कितनी तरजीह दी जा रही है. चुनाव के समय उपलब्धियों का
श्रेय लेने के लिए पार्टियों में परस्पर होड़ लगी रहती है, लेकिन कोई भी दल
इस बात का श्रेय लेने के लिए तैयार नहीं होगा कि आर्थिक सुधारों के दौर
में भारत में श्रमिक तेजी से असंगठित क्षेत्र में धकेले गये हैं. 2009-10
में 91 फीसदी के करीब कार्यशील आबादी असंगठित क्षेत्र में थी. जाहिर बात है
कि इसमें से अधिकांश (अजरुन सेनगुप्ता कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार 2006
में सिर्फ छह प्रतिशत लोग ही किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा के दायरे में
आते थे) बगैर किसी सामजिक सुरक्षा के काम करते हैं. बोलचाल की भाषा में
इसका मतलब यह है कि इन्हें न तो स्वास्थ्य आदि की सुविधाएं मिलती हैं और न
ही काम न कर पाने की अवस्था में पहुंच जाने के बाद किसी तरह की आमदनी.

चिंताजनक बात यह है कि 2009-2010 में संगठित क्षेत्र में भी 50 प्रतिशत
से कम लोग ही किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम के दायरे में थे.
उन्हें जो औनी-पौनी सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जा रही है, वह भी श्रमिकों
के अधिकार सुनिश्चित नहीं करती. इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की सिफारिशों (जिनको कई विकासशील देशों में लागू
किया जाता है) के विपरीत भारत में अधिकार सुनिश्चित करनेवाली योजनाओं की
जगह अधिकतर सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में ऐसे प्रावधान हैं, जिनमें श्रमिकों
को राज्य विशेष का निवासी होना जरूरी होता है. इसलिए ऐसे समय में जब
मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा प्रवासी हो गया है, कई लोग आसानी से छांट दिये
जाते हैं.

खस्ताहाल सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था

भारत में सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को मोटे तौर पर छह हिस्सों में बांटा
जा सकता है- शिक्षा, रोजगार, पेंशन, स्वास्थ्य, आवास और खाद्य सुरक्षा. इन
क्षेत्रों के आंकड़े असली हालत बयान करते हैं. प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र
में नामांकन में कुछ सुधार के बावजूद 2009-10 में 15-24 वर्ष की आयु में
आनेवाली जनसंख्या का 60 फीसदी हिस्सा किसी भी प्रकार की शिक्षा से वंचित
था. हमारे यहां उच्च शिक्षा में नामांकन का अनुपात न सिर्फ दुनियाभर के औसत
से कम है, बल्कि ब्रिक्स देशों से भी हम काफी पीछे हैं. हालांकि,
बहुचर्चित मनरेगा ने बेरोजगारी के दौर में कुछ राहत दी है, पर आंकड़े बताते
हैं कि करीब 19 प्रतिशत लोगों को काम मांगने के बावजूद इसमें काम नहीं
मिला. जाहिर बात है, यह समाज का सबसे वंचित तबका है. एक यूनिवर्सल और/> गैर-अंशदायी पेंशन योजना (केन्या और नेपाल जैसे विकासशील देश इसे काफी पहले
लागू कर चुके हैं) की मांग के बावजूद इसे अब तक लागू नहीं किया गया है.

एनएसएपी (नेशनल सोशल असिस्टेंट प्रोग्राम) टास्कफोर्स की रिपोर्ट ने उन
लोगों को 2016-2017 तक पेंशन के दायरे में लाने की सिफारिश की है, जो
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत शामिल किये जायेंगे. भारत में
जीवन प्रत्याशा, शिशु मृत्यु दर और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की
मृत्यु दर के आंकड़े बांग्लादेश और श्रीलंका की तुलना में भी खराब हैं.

दुनिया की जनसंख्या में 16.5 प्रतिशत हिस्सा रखनेवाले भारत में बीमार
लोगों का 20 प्रतिशत हिस्सा रहता है. दस्त, टीबी, श्वास तंत्र के रोग और
कीटाणुओं से होनेवाले संक्रमणों के एक-तिहाई मामले, गर्भावस्था से जुडी
एक-चौथाई बीमारियां, कुपोषण, मधुमेह और हृदय रोगों का पांचवां हिस्सा और
दक्षिण अफ्रीका के बाद एड्स के सबसे ज्यादा मामले भारत में हैं. शहरी आवास
की कमी पर तकनीकी ग्रुप की रिपोर्ट के अनुसार, 12वीं पंचवर्षीय योजना में
शहरी इलाकों में 1.88 करोड़ इकाइयों का अभाव है और गांवों में 4.37 करोड़
इकाइयों का. इस समूह के मुताबिक, शहरों में खुद की रिहाईश वाले श्रेणी में
इस अभाव का 73 प्रतिशत हिस्सा आर्थिक रूप से निचले 40 प्रतिशत लोगों का था.
गांवों में सिर्फ बीपीएल श्रेणी के लोगों के लिए यह कमी 3.93 करोड़
इकाइयों की थी. खाद्य सुरक्षा की बदहाल स्थिति का प्रमाण इसी बात से मिलता
है कि एक ओर देश में औसत कैलोरी और प्रोटीन ग्रहण का स्तर आर्थिक सुधारों
के दौर में लगातार नीचे गया है, पर सरकार गरीबी कम होने के दावे कर रही है.

नव-उदारवाद के दौर में विकास के मायने

इन आंकड़ों से कतई यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि आर्थिक विकास नहीं
हुआ है. आज भारत विश्व में अरबपतियों की संख्या के मामले में छठा स्थान
रखता है. भारतीय पूंजीपति आज बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियां खरीद रहे हैं. पर
इस विकास के फायदे आबादी के एक बहुत छोटे हिस्से तक सीमित हैं. सामाजिक
क्षेत्रों और सामाजिक सुरक्षा में अपर्याप्त सरकारी खर्च इसका सबसे बड़ा
कारण है. इसके दो महत्वपूर्ण कारण हैं- विदेशी और वित्तीय पूंजी को खुश
रखने के लिए राजकोषीय घाटा कम करने के नाम पर सरकारी खर्च पर नियंत्रण और
बड़ी कंपनियों को मुनाफा बढ़ाने के लिए करों में बेतरतीब छूट. सकल घरेलू
उत्पाद और करों के अनुपात के हिसाब से भारत 102 देशों की तालिका में 96वें
स्थान पर है.

पिछले 10 वर्षो से राज कर रही कांग्रेस को इन आंकड़ों से उठनेवाले
सवालों के जबाब देने चाहिए. लेकिन यह भी नहीं भूलना नहीं चाहिए कि रिजर्व
बैंक के गवर्नर की अध्यक्षता में राज्यों के लिए एकीकृत डेवलपमेंट का
सूचकांक बनानेवाली कमिटी के अनुसार, गुजरात का देश में 12वां स्थान है. और
विकास-पुरुष नरेंद्र मोदी की पैरवी कर रहे अरविंद पानगरिया जैसे चर्चित
अर्थशास्त्रियों के अनुसार इस देश में आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने के रास्ते
में सबसे बड़ी अड़चन श्रम  कानून हैं.

 

अंधेर नगरी में भारतीय कामगार

– अभिजीत मुखोपाध्याय-

इकोनॉमिक रिसर्च फाउंडेशन

इसमें कोई दो राय नहीं है कि मजदूरों केबिनाविकास की कहानी पूरी नहीं
हो सकती है, फिर भी यह दुर्भाग्य की बात है कि भ्रष्टाचार और विकास के
मुद्दे पर लड़े जा रहे मौजूदा चुनाव में श्रम और श्रमिकों से जुड़े सवालों
पर ध्यान न के बराबर है. इसके बावजूद कमजोर और मजबूर मजदूर वर्ग को आनेवाली
सरकार से अनेक उम्मीदें हैं. भले ही उनके एक हद तक भी पूरे हो पाने में
संदेह है.

सबसे पहले बिना गूढ़ सांख्यिकीय आंकड़ों में गये कुछ तथ्यों पर गौर
करें. वैश्विक स्तर पर बीते दो दशकों में कुल उत्पादन में मजदूरी के हिस्से
में बहुत कमी आयी है, जबकि इसी अवधि में लाभ का हिस्सा काफी बढ़ा है. इसका
सीधा अर्थ यह है कि उत्पादन प्रक्रिया में पूंजीपतियों की ताकत बढ़ी है और
श्रमिकों  की ताकत में कमी आयी है. यह भी ध्यान देने की बात है कि भारत
दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां अधिशेष श्रमिकों की बहुत बड़ी
संख्या है यानी हमारे देश में मांग से अधिक श्रम शक्ति उपलब्ध है. इस वजह
से मजदूरी में भी गिरावट आ रही है. विडंबना यह है कि इन 20 वर्षो में हुआ
जोरदार आर्थिक विकास रोजगार के अवसरों को सृजित करने में नाकाम रहा है. कुछ
अर्थशास्त्री तो इसे ‘जॉबलेस’ या  ‘जॉब लॉस’ विकास की संज्ञा देते हुए यह
भी कहते हैं कि इस विकास ने रोजगार बढ़ाना तो दूर, उसमें भारी कमी ही की
है.

मजदूर संगठनों की घटती ताकत

इन परिस्थितियों ने पूंजी के साथ अपने हितों के लिए मोल-भाव कर पाने की
मजदूरों की क्षमता में भारी कमी की. देश में श्रमिक संगठनों की सक्रियता
में ह्रास को देखा जा सकता है. इसका एक बुरा परिणाम यह भी हुआ कि आमतौर पर
इन संगठनों को नकारात्मक नजरिये से देखा जाने लगा तथा राजनीतिक दलों से
इन्हें मिलनेवाले समर्थन में लगातार कमी आती गयी. सरकारों, संस्थानों,
न्यायालयों और आम जनता में समर्थन कम होते जाने से श्रम अधिकार और कानून भी
कमजोर हुए हैं. उदाहरण हड़तालों के खिलाफ दिये गये अदालती फैसलों को देखा
जा सकता है. यह एक और सच्चाई है कि कार्य-दिवसों का नुकसान हड़तालों से
कहीं बहुत अधिक तालाबंदी के कारण होता है, फिर भी यह धारणा बनी हुई है कि
मजदूरों की हड़ताल से अर्थव्यवस्था को नुकसान होता है. भारत में कामगारों
के प्रतिरोध और मालिकों के साथ अपने हितों को लेकर उनके मोल-भाव की क्षमता
के दिन लद चुके हैं और अब मालिकों की मनमानी के दिन हैं.

ठेका सिस्टम को बढ़ावा

उदारीकृत नीतियों के तहत बड़ी तेजी से श्रम को अनियमित और ठेके पर
आधारित किया गया है. असंगठित क्षेत्र में अन्य प्रकार के शोषणों के साथ
न्यूनतम मजदूरी जैसे बुनियादी अधिकारों का भी उल्लंघन आम बात है. संगठित
क्षेत्र में भी काम को ठेके पर कराने या अनियमित मजदूर रखने की प्रवृत्ति
आम हो चली है. जिस तरह के रोजगार सृजित हुए हैं, उनकी गुणवत्ता भी चिंताजनक
है.

जहां तक असंगठित क्षेत्र का सवाल है, 2006 की अजरुन सेनगुप्ता कमिटी की
रिपोर्ट के कुछ बुनियादी आंकड़ों और सूचनाओं का उल्लेख समीचीन होगा.
रिपोर्ट के अनुसार, तकरीबन 37 करोड़ लोग,जो भारत के कामकाजी लोगों की
संख्या का 85 फीसदी है, असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं. इनमें औरतों की
संख्या कम-से-कम 12 करोड़ है. कुल श्रमशक्ति में 28 करोड़ लोग ग्रामीण
क्षेत्रों में कार्यरत हैं, जिनमें लगभग 22 करोड़ सिर्फ कृषि से जुड़े हैं.
कुल महिला श्रमिकों में लगभग आठ करोड़ कृषि-संबंधी कार्यो में संलग्न हैं.
हर क्षेत्र में बाल मजदूरों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है. अधिकाधिक लाभ
कमाने की प्रवृत्ति ने भी ज्यादा औरतों व बच्चों को उत्पादन-प्रक्रिया से
जोड़ने में योगदान दिया है, क्योंकि ये वर्ग श्रम के सस्ते स्नेत हैं.

हर तरह के शोषण के शिकार

उदारीकरण की नीतियों ने पिछले वर्षो में श्रमिकों को, खासकर अकुशल,
ग्रामीण श्रमिकों को शोषित किया है और उन्हें हाशिये पर धकेला है. यदि इसी
महीने बन रही नयी सरकार मजदूरों के हितों को लेकर गंभीर होगी, तो उसे अनेक
कदम उठाने होंगे. उसे समुचित रोजगार सृजन और उसकी गुणवत्ता पर ध्यान देना
होगा. रोजगार को ठेके पर देने की प्रक्रिया पर रोक लगानी होगी. कानूनी
प्रावधानों के मुताबिक महिला कामगारों के हितों को सुनिश्चित करना होगा.    
    खेद की बात है कि वैधानिक व्यवस्थाओं के बावजूद बाल मजदूरी न सिर्फ
कायम है, बल्कि इनकी संख्या भी बढ़ रही है. इस पर प्रभावी रोक और पुनर्वास
की समुचित व्यवस्था की जिम्मेवारी नयी सरकार को लेनी होगी. उद्योगों के
दबाव में अनेक दल लगातार श्रम कानूनों और नियमों में सुधार की बात कर रहे
हैं, जबकि जरूरत इस बात की है कि मौजूदा कानूनों को मजबूत किया जाये, ताकि
श्रमिकों के हितों की रक्षा हो सके. मजदूरों को संगठन बनाने, हड़ताल करने
और प्रबंधन से सामूहिक रूप से अपने हक के लिए मोल-भाव करने के अधिकार की
रक्षा के लिए हरसंभव कोशिश की जानी चाहिए.

यदि पिछली सरकारों के कामकाज को देखा जाये, तो नयी सरकार से बहुत उम्मीद
नहीं की जा सकती है. पूरी संभावना है कि सरकार कोई भी हो, उदारीकरण की
नीतियों को जारी रखेगी. दोनों मुख्य दलों- कांग्रेस और भाजपा का बाजार
दर्शन एक जैसा ही है. भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार अपने भाषणों
में संकेत दे रहे हैं कि वे बाजार व उद्योग के हितों को अधिक तरजीह देंगे.
ऐसी आशंका है कि उनका नारा ‘कम-से-कम सरकार, अधिक-से-अधिक प्रशासन’
कॉरपोरेट के लिए खुली छूट देने का मूल-मंत्र है, जबकि मजदूर वर्ग मजबूरी
में अपना श्रम बेचते रहने के लिए अभिशप्त बना रहेगा.

कांग्रेस

– समूचे श्रमिक वर्ग के लिए स्वास्थ्य बीमा और पेंशन सहित आवश्यक
सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना. जोखिम भरे उद्योगों में कार्यरत मजदूरों पर
विशेष ध्यान. प्रवासी श्रमिकों को एक वर्ष के भीतर ‘आधार’ कार्यक्रम के तहत
लाना.

–  असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा कानून, 2008 सहित सभी श्रम कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करना.

–  अस्थायी मजदूरों के हित के लिए बने 1970 के कानून को लागू करना.

–  सभी श्रम कानूनों के एक व्यापक कानून में समाहित करने की संभावनाओं के आकलन के लिए एक आयोग का गठन करना.

भारतीय जनता पार्टी

–  असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित करना.

–  संगठित क्षेत्रमें उद्योगमालिकों और मजदूरों के बीच ‘उद्योग परिवार
की अवधारणा’ को अपनाने का प्रस्ताव, जिसमें निपुणता मजदूरों के कौशल विकास
व उत्पादकता उन्नयन, उचित वेतन-भत्ताें तथा उनकी सुरक्षा के सिद्धांतों से
निर्देशित होती है.

–  कृषि व दूसरे कार्यो में लगे गरीबों को ‘कुछ अजिर्त करने लायक’ बनाना.

–  शहरी गरीबों की क्षमता विकसित करना, ताकि वे अवसरों का लाभ उठा सकें.

–  बाल एवं किशोर श्रम (निवारण एवं विनियमन) कानून, 2012 तथा एकीकृत बाल सुरक्षा योजना की समीक्षा, संशोधन और सुदृढ़ीकरण.

– कामकाजी महिलाओं के लिए हॉस्टलों के नेटवर्क का विस्तार.

आम आदमी पार्टी

– कॉन्ट्रैक्ट व्यवस्था को समाप्त कर ऐसे कामगारों की स्थायी बहाली.

–  जिन क्षेत्रों में ऐसा करना संभव नहीं, वहां काम करने की स्थितियों
को बेहतर करना और दैनिक वेतन/ न्यूनतम वेतन संबंधी कानूनों को सख्ती से
लागू करना. असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हितों की रक्षा और समुचित
सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना.

मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी

–  न्यूनतम मजदूरी 10,000 रुपये मासिक निर्धारित करना और इसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ना.

– श्रम कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करना. औद्योगिक व श्रम
अदालतों में खाली पड़े पदों पर जजों और कर्मचारियों की अविलंब बहाली.

–  असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए मौजूदा कानूनों में समुचित संशोधन तथा सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना.

–  नयी पेंशन नीति और भविष्य निधि कानून को खारिज कर मजदूरों के लिए लाभप्रद पेंशन नीति लाना.

–  मजदूर संघों को कानूनी मान्यता और अधिक अधिकार देना. अस्थायी मजदूरों
के हितों को सुनिश्चित करना व उन्हें मजदूर संघों की सदस्यता देना.

–  पुरुष श्रमिकों के समान महिलाओं को मजदूरी व अन्य सुविधाएं मुहैया कराना.

–  हर तरह की बाल मजदूरी को समाप्त करना और बाल श्रमिकों के पुनर्वास की व्यवस्था करना.

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