कहानी कुछ जैविक ग्रामों की- अमृतांज इंदीवर

अंधाधुंध
पेस्टीसाइड्स व फर्टिलाइजर के उपयोग से मिट्टी
,
पानी व
हवा ऊसर
होते जा रही है। जहां किसान पहले
खेतों में नाइट्रोजन की मात्रा
3-5
किलो प्रति
कट्ठा के हिसाब से देते थे
,
वहीं आज 10-20 किलो
प्रति कट्ठा के हिसाब
से दिया
जा रहा है। इसकी वजह से धरती पर ग्रीन हाउस बन रहा है और ग्लोबल
वार्मिंग के खतरे बढ़ रहे हैं। यह परिस्थितिकीय चक्र
को प्रभावित कर रहा
है।
परिणामस्वरूप खेत बंजर हो रहे हैं
,
जलस्तर नीचे खिसक रहा है व
बेताहाशा
गर्मी बढ़ रही है। वहीं आज
भी ऐसे किसान हैं
,
जिनको अधिक चिंता खेती के साथ-साथ मिट्टी, पानी,
भोजन, हवा की है।

बिहार के
मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड अंतर्गत जलीलनगर गांव के किसान
मोहन दास, जयमंगल राम, राजमंगल
राम
, अमरनाथ भगत आदि भैंस इसलिए पाल रहे हैं कि
उनके खेतों में पर्याप्त मात्रा में गोबर खाद पट सके। दो दर्जन से भी
अधिक किसान जैविक खेती कर पर्यावरण संरक्षण की दिशा में नयी
इबारत लिख रहे
हैं। इन किसानों को मिट्टी को
स्वस्थ रखने की बहुत चिंता है कि मिट्टी
प्रदूषित
व ऊसर न हो जाये। रबी और खरीफ फसलों की खेती जैविक तरीके से कर
रहे हैं। इनलोगों ने धान, गेंहू,
सब्जी, तेलहन, दलहन और फलदार पौधों में प्रचूर मात्रा में गोबर खाद देते हैं। मोहन दास कहते हैं कि
अन्न शुद्घ
होगा तो तन व वन शुद्घ होगा। गांव
के किसानों ने
जागृति किसान क्लबबनाकर जैविक खेती के माध्यम से जल, जंगल और
जमीन बचाने की ठानी है।

उधर, सरैंया प्रखंड के जैविक ग्राम गोविंदपुर के जादूगर
श्रीकांत
, रवींद्र प्रसाद,
शिवनंदन श्रीवास्तव, सीताराम भगत, चिरामन
पासवान
, रघुनाथ प्रसाद समेत 50
से अधिक किसानों ने एक-एक एकड़ में सब्जी की खेती की है और खेत के किनारे वृक्ष लगाकर पूरे गांव में हरियाली बिखेरी है। जैविक
खेती के लिए
मशहूर जादूगर श्रीकांत सुबह उठते
ही किसानों के खेतों की ओर चल पड़ते हैं
और
लोगों को खेती का गुर सिखाते हैं। जल
, मिट्टी व हवा की शुद्घता को
लेकर
सभाएं करते रहते हैं। गोविंदपुर
गांव के किसानों के इसी संकल्प का परिणाम
है
कि
18 दिसंबर 2006 को जिला कृषि विभाग गांव को जैविक
ग्राम घोषित किया
और स्टेट बैंक ने गोद लिया।
आज यहां के किसान जिले भर में जैविक खेती के
लिए
मशहूर हैं। खेतीबारी से संबंधित समस्याओं के समाधान के लिए सरैया
, ‘कृषि
विज्ञान केंद्र
हमेशा तत्पर रहता है। श्रीकांत का मानना है कि रासायनिक खाद के प्रयोग से पानी की खपत अधिक होती है। मिट्टी
की उर्वरता
नष्ट होती है। रासायनिक कीटनाशक व
खाद से कीट-पतंगे मर जाते हैं। परागन की
क्रिया
सही से नहीं हो पाती जिससे फसल की उपज में भारी कमी आती है।
पेस्टीसाइड्स
व फर्टिलाइजर की जगह नीम
, लहसून, तुलसी आदि
के संयोग से बना
कीटनाशक पौधों को बिना
मित्रकीट को नुकसान पहुंचाये सही सुरक्षा व पोषण
देता
है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जैविक तरीके से की गयी खेती से
पर्यावरण को कोई क्षति नहीं होती।

लेखक व पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश कहते हैं कि पर्यावरण को सबसे ज्यादा प्रदूषित केमिकल्स बेस्ड खेती ने किया है। अत्यधिक
पेस्टीसाइड्स व
फर्टिलाइजर की वजह से सबसे पहले
परागन की प्रक्रिया प्रभावित हुई है।
मधुमक्खी
व तितलियां मर रही हैं। मेंढ़क
, केंचुए, बगुले,
कौए आदि प्राणी विलुप्त
होने के कागार पर है। मेढक के शरीर का जितना वजन होता है
, उतना ही वह फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीट को खाता है। केंचुए पौधे
की जड़ तक
ऑक्सीजन पहुंचाता है। बगुला और कौए
पटवन के समय कीट-पतंगों को चुन-चुनकर
खाते हैं।
जिससे मिट्टी के सूक्ष्म पोषक तत्व
, जीवाणु, ह्यूमस और
पीएच
बैलेंस बने रहते हैं। जिस फसल में
मधुमक्खी का बॉक्स रहता है
, उसमें परागन की
क्रिया से
20 प्रतिशत पैदवार बढ़ जाती है। जबकि रासायनिक खेती से
ग्रीन
हाउस बनता है। परिणामत: ग्लोबल
वार्मिंग के खतरे बढ़ जाते हैं।

अन्न की पूर्ति के लिए 60 के दशक में हरित क्रांति लायी गयी।
अधिक अनाज का
उत्पादन तो जरूर हुआ, पर
मिट्टी ऊसर हो गयी। मिट्टी
, जल व वायु प्रदूषित हो गयी और मनुष्य व पशुओं की सेहत पर बुरा असर पड़ने लगा। पंजाब,
भटिंडा व राजस्थान में सबसे ज्यादा
कैंसर के मरीज मिलते हैं। जिले के चांदकेवारी
किसान
साथी क्लब के किसान पंकज कुमार
, फूलदेव पटेल, जगत
कुमार कौशिक
, अमरेंद्र कुमार, किसान
श्री सीताराम सिंह आदि जैविक खेती से गांव के
सैकड़ों
किसानों को जोड़कर स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में
अनोखी पहल की है।

कृषि विज्ञान केंद्र, सरैया के मृदा वैज्ञानिक केके सिंह
ने रासायनिक खेती
के दुष्परिणामों को गिनाते
हुए कहा कि धरती का तापमान बढ़ने का कारण ग्रीन
हाउस
इफेक्ट है। पेड़-पौधे काटे जा रहे हैं। खेतों में आवश्यकता से अधिक
सिंचाई के लिए जल बहा रहे हैं। पेस्टीसाइड्स और नाइट्रोजन का
अधिक प्रयोग
करने से वायुमंडल के साथ-साथ जल
प्रदूषण भी हो रहा है। नाइट्रोजन का
60 प्रतिशत अंश वायुमंडल में
उड़ जाता है। बरसात के दिनों में जलस्तर तक
पेस्टीसाइड्स
पहुंच जाता है
, जिस कारण 40-50 फीट का
पानी पीने योग्य नहीं
रहता।
इसकी जगह नीम से निर्मित जैविक कीटनाशक का प्रयोग किया जाये तो पानी
की खपत के साथ-साथ खेतों में लाभदायक कीट बचेंगे और प्रदूषण
भी रुकेगा।
जैविक खेती से 40-50 प्रतिशत
पानी की खपत घटती है। पाइप ड्रीप इरिगेशन से
पानी
को बचाया जा सकता है। बगीचे व खेतों में हमेशा सुबह-शाम पानी का पटवन
किया जाये तो पौधों को प्रचुर मात्रा में पानी भी मिल जायेगा
और बर्बादी भी
रुकेगी।

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और जैविक कृषि के बड़े पैरोकार हैं। इनसे 9693901871,
9431894345
पर संपर्क किया जा सकता है।

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