गुजरात के विकास का सच- नीलांजन मुखोपाध्याय

चुनावी सरगर्मियों के बीच गुजरात में यह देखना दिलचस्प होगा कि वहां
सामाजिक समावेश की दिशा में सरकार ने अब तक कौन-से कदम उठाए हैं। हाल के
तमाम साक्षात्कारों में नरेंद्र मोदी यह दावा करते आए हैं कि वह अपने
नागरिकों के साथ समान व्यवहार करेंगे। मगर गोधरा शहर से थोड़ी दूर रहने
वाली तीन मुस्लिम लड़कियों की कहानी गुजरात सरकार के दावे से ठीक उलट है,
जो इस चुनाव में मतदाता बनते-बनते रह गईं।

शकीला, अकीला और उनकी
दोस्त नाजनीन इस साल के अंत तक 18 साल की हो जाएंगी। ऐसे में, उन्हें वोट
देने के लिए 2017 के विधानसभा चुनाव का इंतजार करना पड़ेगा। ये तीनों
वडोदरा और गोधरा के बीच एक छोटी-सी नगरपालिका कलोल की हैं। यहां की जिस
कॉलोनी में ये तीनों रहती हैं, वहां 250 से भी ज्यादा वे परिवार हैं, जिनके
घर मार्च, 2002 के दंगे की भेंट चढ़ गए थे। हर गुजरता दिन इन लड़कियों के
लिए घबड़ाहट लेकर आता है। उन्हें 16 मई का इंतजार नहीं है। उनकी निगाहें
जून पर टिकी हैं, जब 12वीं के नतीजे घोषित होंगे। उसी दिन तीनों जान पाएंगी
कि वे सपनों की उड़ान जारी रख पाएंगी या नहीं। शकीला डॉक्टर बनना चाहती
है, अकीला फिजियोथेरेपिस्ट और नाजनीन की तमन्ना नर्स बनने की है।

ये
लड़कियां अच्छे अंक ला पाती हैं या नहीं, मनपसंद कोर्स में इन्हें दाखिला
मिल पाता है या नहीं, वह वजीफा जारी रहता है या नहीं, जो उन्हें पिछले कई
वर्षों से मिलता आया है, ये सब गुजरात के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में
नहीं हैं। ये तीनों गोधरा और उसके आस-पड़ोस के उन अनेक लोगों की तरह हैं,
जिनकी जिंदगी बदल चुकी है। लेकिन मानवीय त्रासदी के इन व्यक्तिगत उदाहरणों
से इतर बड़ा सवाल पूरी मुस्लिम कौम का है। जब तक गोधरा जैसी जगहों के विकास
का मुद्दा मोदी की नीतियों में जगह नहीं बनाता, तब तक सुशासन और विकास का
उनका दावा संदिग्ध बना रहेगा।

मैं ‘दंगा-पर्यटन’ और विवादित जगहों
को राजनीति के चश्मे से देखने के सख्त खिलाफ रहा हूं। मगर चुनाव को देखते
हुए मुझे इस प्रतिबद्धता से समझौता करना पड़ा। अगर मैं यहां न आता, तो
गुजरात में ध्रुवीकरण की गहराई को कभी न समझ पाता। हालत यह है कि गुजरात
में भाजपा मुस्लिम वोट पाने की कोशिश तक नहीं करती। भाजपा नेता मुस्लिम
इलाकों में प्रचार के लिए तभी जाते हैं, जब पार्टी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ
के सदस्य अहमदबाद से आकर उनके अभियान में जुड़ते हैं। बल्कि इस साल तो
प्रशासन ने सिग्नल फालिया जैसी कॉलोनियों में मतदाता पर्ची न बांटने तक का
फैसला लिया था! 2002 की फरवरी से पहले ज्यादातर लोग इस कॉलोनी के नाम से
अपरिचित थे। तब मीडिया रिपोर्टों ने यहां की हालत इन शब्दों में बयान की
थीं, ‘धूल से भरी, लोगों की बेतहाशा भीड़, एक ऐसी जगह, जहां महीनों
कूड़ाघरों की सफाई तक नहीं होती।’ आज भी यहां की हालत कमोबेश वैसी ही है।
हां, इतना और जोड़ा जा सकता है कि जनसंख्या विस्फोट के कगार पर खड़ी यह
कॉलोनी विकास की मुख्यधारा से और दूर हो चली है।

नरेंद्र मोदी के
दावों कीहकीकत परखने के लिए यदि कोई जगह मुफीद हो सकती थी, तो वह सिग्नल
फालिया ही होनी चाहिए। यहां सामाजिक और राजनीतिक मोर्चे पर सुशासन की छाप
छोड़कर वह पूरे देश को बता सकते थे कि 27 फरवरी, 2002 को हुए नरसंहार में
उनकी कोई राजनीतिक भूमिका नहीं थी। सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को उनकी
धार्मिक पहचान से नहीं जोड़ना चाहिए। शकीला, अकीला और नाजनीन की कहानियां
कोई अलग नहीं हैं और न ही ऐसी त्रासदी मुस्लिम समुदाय तक सीमित है। लेकिन
समाज का अगर फिर से निर्माण करना है, और गोधरा में नरसंहार से पहले से चले आ
रहे भेदभाव की दरारों को भरना है, तो इसकी पहल सरकार और इसके नेताओं की
तरफ से होनी चाहिए। पर और ज्यादा राजनीतिक ताकत हासिल करने की लालसा से
मोदी ने खुद को उन लोगों से बहुत दूर कर लिया है, जो त्रासदी का शिकार हुए
हैं।

जहां तक मुस्लिम समर्थन जुटाने की भाजपा की रणनीति का सवाल है,
यह जिम्मेदारी पार्टी के अल्पसंख्यक मामलों के प्रकोष्ठ की है। गुजरात में
इस प्रकोष्ठ के अध्यक्ष एक मौलवी सूफी महबूब अली चिश्ती हैं। समय-समय पर
होने वाली इसकी बैठकों में कुछ मुसलमान शामिल होते हैं। मगर इसमें जो भाषण
होते हैं, उसके तथ्य, ध्वनि और अभिप्राय ज्यादा गौर करने लायक हैं। इन
भाषणों में मुस्लिम और भाजपा के हिंदू नेता कांग्रेस को निशाना बनाते हुए
कहते हैं कि उसने वोटों के लालच में पिछले छह दशकों से मुसलमानों के साथ
बंधक जैसा व्यवहार किया है। सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के आंकड़ों का जिक्र
करते हुए मुस्लिमों की बदतर हालत के बारे में बताया जाता है। इन भाषणों में
कहा जाता है कि मुस्लिम तबका 2002 की त्रासदी को भूलना चाहता है, मगर मोदी
के आलोचक पुराने जख्मों को हरा करने में लगे हैं। वहां यह भी कहा जाता है
कि इस्लाम में कहीं ऐसा नहीं लिखा कि मुसलमानों को भाजपा को वोट नहीं देना
चाहिए, बल्कि कांग्रेस ने उनकी अनदेखी की है, इसलिए उस पार्टी को वोट देना
जुर्म है!

मोदी कह चुके हैं कि वह एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना करते
हैं जहां मुसलमान के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर होगा। मगर
मुस्लिम समुदाय की खोई हुई गरिमा वापस लौटाने की वह कोई बात नहीं करते। न
ही इसका उल्लेख भाजपा के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के किसी नेता ने अपने भाषण
में किया। यही वजह है कि सुनहरे भविष्य की ओर टकटकी लगाए ये तीन लड़कियां
अपने परिवार में हुई मौतों के लिए न्याय भी चाहती हैं।

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