चारों उस लोकप्रिय उत्तराखंड आंदोलन के कार्यकर्ता थे, जिसका उद्देश्य
उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों को मिलाकर एक पृथक राज्य की स्थापना करना
था। ये लंबे समय से उपेक्षित रहे जिले थे, जिनका सस्ते श्रम और प्राकृतिक
संसाधनों को लेकर दोहन तो भरपूर हुआ, मगर बदले में अपेक्षित सम्मान के लिए
ये हमेशा तरसते रहे। सच तो यह है कि सांस्कृतिक और पारिस्थितिकीय दोनों
नजरिये से पहाड़ ने खुद को हमेशा मैदानों से अलग-थलग ही पाया है। पदयात्रा
की शुरुआत 25 मई को नेपाल की सीमा से सटे पूर्वी कुमाऊं के अस्कोट से हुई।
इसके
लिए जान-बूझ कर यह दिन चुना गया था, क्योंकि इस दिन देशभक्त श्रीदेव सुमन
का जन्म हुआ था, जिन्होंने टिहरी गढ़वाल के महाराजा के तानाशाही शासन के
खिलाफ संघर्ष करते हुए कारागार में 84 दिनों के उपवास के बाद शरीर त्यागा
था।
1974 की पूरी गर्मियों भर ये चार साहसी युवा चारागाहों, जंगलों,
मैदानों, नदियों और झरनों को पार करते हुए पश्चिम की ओर बढ़ते गए। रात
होने पर, वे किसी पहाड़ी बस्ती में अपना डेरा जमा लेते, जहां उन्हें अपने
दूसरे उत्तराखंडी बंधुओं के विचारों और समस्याओं को जानने का मौका मिलता।
सात हफ्ते तक चली उनकी एक हजार किलोमीटर लंबी पदयात्रा मानसून की दस्तक से
ठीक पहले मध्य जुलाई में खत्म हुई। उनका अंतिम पड़ाव हिमाचल प्रदेश की सीमा
से सटा गढ़वाल के पश्चिमी छोर पर बसा अराकोट गांव था।
जब अस्कोट से
अराकोट तक का यह मार्च संपन्न हुआ, तब मैंने देहरादून में हाईस्कूल की
पढ़ाई खत्म ही की थी। यही वह शहर था, जहां मेरा जन्म हुआ और मैं पला-बढ़ा।
इसके कुछ वर्षों बाद, जब मैंने उत्तराखंड के सामाजिक इतिहास पर शोध की
शुरुआत की, मुझे 1974 की उस पदयात्रा में शामिल रहे एक शख्स के निर्देशन
में भेजा गया। यह शेखर पाठक थे, जो उस वक्त नैनीताल के डीएसबी कॉलेज में
इतिहास पढ़ाते थे। पहली मुलाकात से ही मैं उनके ज्ञान और साहस का कायल हो
गया, जिसकी वजह शायद उनका पेशा और राजनीति में उनकी दिलचस्पी होना था।
मेरे
लिए चौंकाने, मगर राहत की बात थी कि मेरी जान-पहचान के दूसरे कार्यकर्ताओं
के ठीक उलट उनमें गजब की विनोदप्रियता थी। कभी-कभी तो वे खुद का मजाक
बनाने का मौका भी नहीं चूकते थे।
1983 के अक्टूबर महीने में शेखर
पाठक ने एक पुस्तकनुमा जर्नल के विमोचन के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में
मुझे पिथौरागढ़ आमंत्रित किया। जर्नल का नाम था, ‘पीएएचएआर’ (पहाड़)। दरअसल
‘पीपुल्स ऐसोसिएशन ऑफ हिमालय एरिया रिसर्च’ के प्रथमाक्षरों को मिलाकर इसे
यह नाम मिला, जो हर पहाड़ी के दिल में बसता है। सामान्य तौर पर हिमालय पर
केंद्रित इस पत्रिका में उत्तराखंड पर खास तवज्जो दी गई। इसमें भूगोल,
इतिहास, राजनीति, संस्कृति और पारिस्थितिकी जैसे तमाम विषय शामिल किए गए और
इन्हें कविता, निबंध, वृत्तांत, यात्रावृत्त और उपन्यासिका जैसी विधाओं
में लिखा गया। पाठक इस जर्नल के प्रमुख संपादक थे और इनकी मदद के लिए
पहाड़ी बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं का एक समर्पित समूह था।
मेरे
जेहन में आज भी ‘पहाड़’ के विमोचन के कार्यक्रम कीवे यादें ताजा हैं, जहां
मुख्य भाषण चिपको आंदोलन के नेता चंडी प्रसाद भट्ट ने दिया था। अगली
गर्मियों में शेखर पाठक ने फिर से अस्कोट-अराकोट अभियान शुरू किया। मुझे भी
इसमें शामिल होने का आमंत्रण मिला था, मगर मेरे जैसे अस्वस्थ दमा पीड़ित
के लिए बुद्धिमानी इसमें थी कि घर में बैठकर यात्रा की कामयाबी की दुआ
करूं।
शेखर पाठक ने 1994 में और फिर 2004 में चौथी बार इस बेहद
मुश्किल पदयात्रा को फिर से पूरा किया। इसी दौरान 2000 में उत्तराखंड की नए
राज्य के तौर पर स्थापना हुई। ऐसी हर यात्रा में उनके तमाम मित्रों ने भी
उनका साथ दिया। ये मित्र न सिर्फ उनकी साहसिक यात्राओं के गवाह बने, बल्कि
उन्होंने तमाम इंटरव्यू लिए और कैमरे से यादगार तस्वीरें भी खीचीं।
विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले विकास ने इन कठिन यात्राओं को सहज बनाने
में मदद की। 1974 में पहली यात्रा के दौरान उनकी टीम के पास केवल एक कैमरा
और कुछेक रील ही थीं। मगर ठीक अगली यात्रा में उनके हाथ में चार बेहतरीन
कैमरे थे। 1994 में कैमरों का डिजिटल अवतार उनके पास था, वहीं 2004 में तो
उन्होंने जीपीएस तकनीक का भी उपयोग किया।
जैसा कि मैंने पहले बताया
कि शारीरिक तौर पर शेखर की यात्राओं में उनका साथ देने में बेशक मैं अयोग्य
था, मगर वर्षों के दौरान उनसे जो वार्ताएं हुईं, उससे मेरी समझ काफी
विकसित हुई। उनके कई अद्भुत व्याख्यानों का भी मुझे फायदा हुआ। वह हिंदी के
उत्कृष्ट वक्ता हैं। बोलने का कौशल और हाजिरजवाबी के अलावा उनके भाषणों
में इतिहास और भूगोल के उनके गंभीर अध्ययन के दर्शन भी होते हैं। उनकी
तस्वीरें जहां प्राकृतिक छटा के दर्शन कराती हैं, वहीं उनके शब्द घाटियों
को खास व्यक्तित्वों या सामाजिक आंदोलनों से, पेड़-पौधों को उनके
सांस्कृतिक, आर्थिक व औषधिक मूल्यों से जोड़ते हैं।
‘पहाड़’ टीम ने
जो ज्ञान अर्जित किया, लोगों तक मौखिक तौर पर और उनके जर्नल के 18 खंडों के
जरिये पहुंचता रहा है। इतना ही नहीं, पहाड़ प्रकाशन के तहत साठ दूसरी
पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। 2006 में जर्नल ने दो खंडों में महान
अन्वेषक नैन सिंह रावत का जीवन परिचय प्रकाशित किया। 19वीं सदी के मध्य के
उनके यात्रा वृत्तांतों का ब्योरा शेखर पाठक ने कुमाऊं के ग्रामीण अंचल में
रह रही उनकी संततियों से हासिल किया था।
2014 का अस्कोट-अराकोट
अभियान आगामी 25 मई से शुरू होगा। पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों में एक-एक
हफ्ते गुजारने के बाद पदयात्री गढ़वाल में प्रवेश करेंगे। इसके पूरे एक
महीने के बाद वे अराकोट पहुंचेंगे, जहां के एक सरकारी स्कूल में यात्रा का
समापन समारोह आयोजित होगा। ऐसे में, युवा और स्वस्थ भारतीयों के लिए इस
विशिष्ट यात्रा में शामिल होने का यह अच्छा मौका है। जो शामिल होंगे, गलत
नहीं होगा, अगर मैं कहूं कि मुझे ईर्ष्या होगी।
मगर इसकी वजह यह
नहीं कि मैं घाटियों और वहां के लोगों की खूबसूरती देखने से महरूम हूं,
बल्कि यह कि उनका पथ-प्रदर्शक वह शख्स है, जिसे पूरे उत्तराखंड का
जीता-जागता अवतार कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।