कि दलितों के आदर्श और भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. भीमराव अंबेडकर
मुसलमानों पर भरोसा नहीं करते थे। अचानक ऐसे बयान आने लगे और टीवी चैनलों
पर बहस होने लगी कि वह मुसलमानों के प्रति नकारात्मक सोच रखते थे।
एक
बेनाम ट्वीटर एकाउंट के जरिये, जो संभवतः भाजपा की ओर से तैयार किया गया
है, इस लेखक को अंबेडकर के लेखों के संग्रह का लिंक, पाकिस्तान या भारत का
विभाजन शीर्षक से इसके सुबूत के तौर पर भेजा गया। यह मुझे इसलिए भेजा गया,
क्योंकि मैंने कहा था कि अंबेडकर के मुस्लिमों से नफरत करने का कोई लिखित
सुबूत नहीं है। ये लेख पढ़ने से पता चला कि संघ परिवार फिर अपनी
सुविधानुसार दलित प्रतीक पुरुष अंबेडकर की व्याख्या करना चाहता है, जैसा
उसने सरदार पटेल और स्वतंत्रता संग्राम के दूसरे महत्वपूर्ण नेताओं के साथ
किया।
दरअसल अंबेडकर और मुसलमान पर बहस छेड़ने के पीछे भाजपा की
उत्तर प्रदेश में महत्वपूर्ण दलित वोट को अपने पाले में लाने की रणनीति है।
उत्तर प्रदेश में 22 फीसदी दलित और 18 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। देर से
ही सही, मायावती ने अपनी जनसभाओं में इस पर जोर दिया है कि दलितों और
मुसलमानों को मिलकर काम करना चाहिए, क्योंकि उन्हें 1947 के बाद से दयनीय
स्थिति में रहना पड़ा है। मायावती ने यह संदेश लगातार दोहराया, क्योंकि ऐसी
खबरें थीं कि पूरी तरह ध्रुवीकृत पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मतदान के
शुरुआती चरण में दलित वोट बैंक में भाजपा ने सेंध लगा दी है।
वस्तुतः
पाकिस्तान या भारत का विभाजन में अंबेडकर ने हिंदू वर्चस्वादी समाज में
मुस्लिम अल्पसंख्यकों की वास्तविक दुर्दशा की पड़ताल करते हुए एक बड़ा
संदेश देने की कोशिश की है। मुसलमानों पर शंका करने के बजाय अंबेडकर कहते
हैं, ‘हिंदू समाज में कई निम्न जातियां हैं, जिनकी आर्थिक, राजनीतिक एवं
सामाजिक जरूरतें वही हैं, जो ज्यादातर मुसलमानों की हैं। वे उच्च जाति के
हिंदुओं की तुलना में, जिन्होंने उन्हें सदियों से मानवाधिकार से वंचित रखा
है, मुसलमानों के साथ ज्यादा घुल-मिल सकते हैं।’ वह आगे कहते हैं, ‘क्या
यह सच नहीं कि मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के तहत ज्यादातर प्रांतों में
मुसलमानों, गैर ब्राह्मणों और दलित तबकों ने मिलकर 1920 से 1937 तक सुधार
के काम किए थे? इसी में हिंदू-मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव कायम
करने और हिंदू राज के खतरे को खत्म करने का सबसे उपयोगी तरीका निहित है।’
इससे साफ है कि अंबेडकर दलित-मुस्लिम एकता चाहते थे।
संघ परिवार जब
भी अपने पक्ष में अंबेडकर का इस्तेमाल करता है, वह वैसे तथ्य सामने लाता
है, जो इस महान दलित नेता ने हिंदू राज को रोकने के उद्देश्य से दिए थे।
अपने इसी लेख में अंबेडकर कहते हैं, ‘यदि हिंदू राज अस्तित्व में आता है,
तो यह देश के लिए बड़ा संकट होगा। यह स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के लिए
खतरा है। इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’
अंबेडकर ने आइडिया
ऑफ इंडिया के लिए सबसे बड़े खतरे के तौर पर हिंदू राज की अवधारणा की निंदा
की। उन्होंने मुस्लिम नेतृत्व को चेताया था किअगर वे अल्पसंख्यक पहचान के
तौर पर मुस्लिम लीग जैसा संगठन बनाएंगे, तो यह आगे हिंदू बहुसंख्यकों को
राजनीतिक तौर पर ध्रुवीकृत करेगा। इसलिए मुसलमानों के लिए बेहतर है कि वे
खुद को दलित हिंदू वर्ग के साथ जोड़ें। कुछ हद तक अंबेडकर भविष्यवक्ता की
तरह बात कर रहे थे, क्योंकि संघ परिवार लगातार हिंदू राज की योजना पर काम
कर रहा है।
यह मुसलमानों के प्रति अंबेडकर की सहानुभूति ही थी कि
उन्होंने उनकी सामाजिक प्रथाओं की आलोचना करते हुए उनसे आग्रह किया कि
तुर्की जैसे मुल्कों में मुसलमानों ने जैसा सुधार किया, वैसा वे भी करें।
लेकिन बहुसंख्यक हिंदुओं ने जो माहौल बना रखा था, उसे देखते हुए मुस्लिमों
ने वैसा सुधार नहीं किया।
अंबेडकर बताते हैं कि ‘मुसलमानों ने
संरक्षणवादी रुख अपनाते हुए और बिना सोच-समझे, कि यह उनके लिए लाभदायक है
या हानिकारक, तमाम इस्लामी रिवाजों के संरक्षण पर जोर दिया। यही वह चेतना
थी, जिस कारण उन्होंने राजनीतिक-सामाजिक तौर पर खुद को हिंदुओं से अलग-थलग
रखा। इसी कारण भारतीय मुसलमान पिछड़े हैं।’ निस्संदेह वह कांग्रेस नेताओं
के साथ अलग समझौता करने के लिए मुस्लिम नेतृत्व पर संकीर्णतावादी होने का
आरोप लगाते हैं। भारतीय मुसलमानों के प्रति अंबेडकर के विचार बहुत बारीक
हैं, जिसे संदर्भ से काटकर नहीं देखा जा सकता।
अंबेडकर को लेकर संघ
परिवार की रणनीति का सटीक खुलासा चर्चित दलित विद्वान और सामाजिक
कार्यकर्ता आनंद तेल्तुंबडे ने किया है, जिनकी शादी अंबेडकर की पोती से हुई
है। तेल्तुंबडे के मुताबिक, शुरू में हिंदुत्ववादी ताकतों ने हिंदुओं से
संबंधित अंबेडकर की तमाम आलोचनाओं के प्रति नाराजगी जताई और उनके हिंदू
धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाने पर खीज जाहिर की। लेकिन जब उन्हें इसका
एहसास हुआ कि वह दलितों के विशाल बहुमत की आकांक्षाओं के प्रतीक हैं, तब
उन्होंने उनके साथ सहयोग की रणनीति अपनाई। इसी के तहत सामाजिक समरसता मंच
की शुरुआत की गई, जो संघ परिवार द्वारा इच्छुक दलितों का ब्रेनवॉश करने का
मंच प्रदान करता है।
चाहे अंबेडकर हों, पटेल या गांधी, संघ परिवार
किसी न किसी तरह इन नेताओं के साथ खुद को जोड़ने की कोशिश कर रहा है। पर
सवाल है कि क्या संघ परिवार अपना चरित्र बदल सकता है!