‘नव मध्यवर्ग’ के तौर पर एक नई राजनीतिक पहचान देकर सुनियोजित ढंग से शहरी
मध्यवर्ग को लुभाने की कोशिश की है। इस नई पहचान ने मध्यवर्ग की
आकांक्षाओं को नए पंख दिए हैं। कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार से मध्यवर्ग
को मिली मायूसी के कारण भाजपा की यह रणनीति काम करती दिख रही है। असमान
आर्थिक विकास, बढ़ती महंगाई और राजनीतिक भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं ने इस
वर्ग को राजनीति के एक ऐसे अभियान के लिए रजामंद कर लिया, जो उनके हितों की
बात करता हो। वरना पहले के चुनावों में मध्यवर्गीय मतदाताओं की कम
भागीदारी रहती थी, वहीं 2014 के चुनावों में यह एक ऐसे वर्ग के तौर पर उभरा
है, जो चुनावों के नतीजों पर खासा असर डालेगा।
ऐसे में इस तपते
चुनावी मौसम में संभावित राजनीतिक असर के कारण यह विचार करना लाजिमी है कि
मध्यवर्ग को लेकर आखिर किस तरह के दावे किए जा रहे हैं और इन चुनावों में
मध्यवर्ग और भारत के लोकतांत्रिक भविष्य के लिहाज से क्या कुछ दांव पर है।
बहुत संभव है कि जिस तरह के नव मध्यवर्ग की बात की जा रही है, उसमें
मध्यवर्ग की चिंताओं का समाधान ही न हो, जिसकी तलाश में यह वर्ग बेसब्री से
लगा हुआ है।
1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के शुरुआती दौर से ही
मध्यवर्ग के मिजाज और उसके आकार पर काफी बहस होती रही है। एक ओर बतौर
उपभोक्ता उभरते हुए इस वर्ग की संभावनाएं थीं, तो दूसरी ओर उपभोक्तावादी
संस्कृति की वजह से इस वर्ग में आई नैतिक व सांस्कृतिक गिरावट। लोगों की
धारणाएं इन्हीं दो पक्षों के इर्द-गिर्द झूलती रही हैं। ऐसी बहसों में
मध्यवर्ग को उम्मीदों से भरे एक व्यग्र समूह के तौर पर देखा गया। शहरी
मध्यवर्ग ने बेहद सक्रियता के साथ अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों को व्यक्त
किया, जो अभिजात्य वर्ग और वंचित सामाजिक-आर्थिक समूहों से बिल्कुल अलग
थे। इस वर्ग को आर्थिक उदारीकरण में अपने हित साफ दिख रहे थे।
दरअसल
आर्थिक विकास के वायदे को एक कुशल अर्थव्यवस्था के विचार से इस तरह जोड़ा
गया कि फैलते मध्यवर्ग के लिए नए अवसर पैदा हो सकें। इस तरह उत्तर
उदारीकरण के दौर में ‘नया’ मध्यवर्ग मुक्त होते भारत से जुड़ी आकांक्षाओं
का चेहरा बनकर उभरा।
हालांकि उदारीकरण के शुरुआती दशक विकास के
फायदों के असमान बंटवारे के गवाह बने। नया मध्यवर्ग परंपरागत मध्यवर्ग के
ऊपरी पायदान पर आता है, जिसने सम्मानित सरकारी नौकरियों से आईटी जैसे निजी
क्षेत्रों की नौकरियों का रुख किया है। दरअसल नया मध्यवर्ग उतना भी नया
नहीं है, जैसा कि आम धारणा है। मध्यवर्ग में शामिल होने वाले लोगों को अब
तक वैसी सुविधाएं नहीं मिल पाई हैं, जिनका वायदा 1990 के दशक में किया गया
था। भीतर ही भीतर पनपती असमानता ने राजनीतिक और आर्थिक बदलावों के वायदों
के मद्देनजर इस समूह को परिपक्व बनाया है। इस तथाकथित नव मध्यवर्ग तक पैठ
बनाने में मोदी सफल हुए, क्योंकि उन्होंने इस वर्ग के वंचित तबके और
सुविधासंपन्न तबके के हितों को आपस में जोड़ दिया। इसके लिए उन्होंने पूरी
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सजगता के साथ खुद को सीईओ जैसे संभावित प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया
है। उनकी यह छवि मध्यवर्ग को लुभा रही है। दरअसल मोदी में वह क्षमता है कि
वह क्षेत्रीय व हिंदीभाषी निम्न मध्यवर्ग की आर्थिक झुंझलाहट और शिक्षित
अभिजात्य उच्च मध्यवर्ग की आकांक्षाओं, दोनों से खुद को जोड़ सकें।
भारतीय
मध्यवर्ग को एक समरूप सुविधासंपन्न तबका या फिर बुनियादी तौर पर हिंदुत्व
के एजेंडे से जुड़ाव रखने वाला वर्ग मानकर उसकी निंदा करने वाले राजनीतिक
विमर्श में इस वर्ग की आंतरिक दरारें और चिंताएं नजरंदाज हो जाती हैं। जबकि
इनसे ही इस वर्ग का राजनीतिक व्यवहार आकार लेता है। दोराय नहीं कि
मध्यवर्ग का एक हिस्सा खुद को हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे से जोड़ कर देखता
है, वहीं देश के शहरी मध्यवर्ग का बड़ा तबका समृद्ध भी है। मगर इस वर्ग का
बहुसंख्यक हिस्सा वह है, जिसके सपनों को जमीनी हकीकत ने तार-तार किया है।
यह वह तबका है, जिसे समृद्ध और वैश्वीकृत भारत का सपना दिखाया गया था। मगर
आज जब वह फायदेमंद निजी क्षेत्र में नौकरी की आस में निकलता है, तो उसे
अंग्रेजी शिक्षा, भाषा, क्षेत्र और जाति से जुड़ी बाधाओं से दो-चार होना
पड़ता है। भाजपा के घोषणापत्र के बजाय मोदी की दृढ़ और वाक्पटु शैली ने इस
वर्ग को ज्यादा आकर्षित किया है।
ज्यादा दिन नहीं हुए, जब
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक ऐसे टैक्नोक्रेट सीईओ शैली के नेता के तौर
पर देखा गया था, जो भारत की आर्थिक संभावनाओं को साकार कर सकता है। सच तो
यह है कि आर्थिक विकास से जुड़ी ढांचागत बाधाएं और भ्रष्टाचार के पनपने के
लिए जिम्मेदार संस्थागत क्षरण मध्यवर्ग के संघर्ष की मुख्य वजह हैं। अब इस
वर्ग का गुस्सा इतना बढ़ गया है कि वह धार्मिक उन्माद और आर्थिक असमानता
के उन आरोपों को भी नकारने को तैयार है, जो गुजरात में मोदी सरकार पर लगते
रहे हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही मध्यवर्ग ने एक राष्ट्र के
तौर पर भारत की पहचान को पुख्ता बनाने में मदद की है। 2014 के चुनाव में
इस वर्ग का काफी कुछ दांव पर लगा है। मगर उपलब्ध राजनीतिक विकल्पों को
देखते हुए यही कहा जा सकता है कि इससे भी ज्यादा दांव पर है, देश का
लोकतांत्रिक भविष्य।