पृथ्वी को हमारे शास्त्रों में सबसे पहले नमन किया गया है। गायत्री मंत्र
भी इसी से शुरू होता है। पृथ्वी को हमेशा से भारतीय संस्कृति में पूजनीय
माना गया है। सैन फ्रांसिस्को के जॉन मेक कोनेला के लिए यह जरूरत नई बात
रही होगी, जब उन्होंने पृथ्वी को नमन करने के लिए 21 मार्च को पृथ्वी दिवस
मनाने का सुझाव 1969 में यूनेस्को की बैठक में दिया था। बाद में यह 22
अप्रैल हो गया। यह पृथ्वी के प्रति हर व्यक्ति को दायित्व समझने-समझाने का
दिवस है। अजीब सी बात है कि करोड़ों वर्षों में पृथ्वी ने लगातार अपने
संतुलन को बनाने और बचाने के जो भी रास्ते तैयार किए, हमने एक-एक करके सब
ध्वस्त कर दिए। उदाहरण के लिए, एक बड़े बांध की योजना अपने 10 वर्षों के
निर्माण के दौरान लाखों-करोड़ों वर्षों में पनपे स्थानीय पारिस्थितिकी को
स्वाहा कर देती है। नदियां मार दी जाती हैं। वनों को ङील निगल लेती है और
धरती को गहरे जख्म मिल जाते हैं। पहाड़ डूब जाते हैं। गांव गायब हो जाते
हैं। यह तो एक उदाहरण है।
आज पृथ्वी की प्रकृति के प्रतिकूल हजारों योजनाएं दुनिया भर में एकजुट हो
इसे समाप्त करने पर तुली हैं। लेकिन पृथ्वी के साथ अब ऐसा व्यवहार ज्यादा
दिन नहीं चलने वाला। टुकड़े-टुकड़े में धरती ने ये संकेत दे दिए हैं। तमाम
तरह की आपदाओं ने हमें घेरना शुरू कर दिया है। धीरे-धीरे हमारे बीच से पानी
गायब होता जा रहा है, क्योंकि नदियां विलुप्ति के कगार पर हैं। वनों के
आंकड़े ठीक-ठाक नहीं हैं। भोजन में मिट्टी की जगह रसायनों ने ले ली है।
बढ़ती आबादी की आवश्यकताएं तो नहीं नकारी जा सकतीं, पर लोभ ने खेल ज्यादा
बिगाड़ दिया है। पृथ्वी के साथ हमारे दुर्व्यवहार के कारण ही तापमान में
वृद्धि और जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर संकट खड़े हो गए हैं। ये संकट लगातार
बढ़ रहे हैं।
अप्रैल में वर्षा व तापक्रम का वर्तमान रूप इसी का संकेत है। ऐसा ही रहा,
तो इस बार जहां ये गेहूं व अन्य फसलों को चौपट करेगा, वहीं सही दबाव की
अनुपस्थिति में मानसून भी लंगड़ा हो जाएगा। वह तब आएगा, जब उसकी उतनी
आवश्यकता नहीं होगी। चीन, जापान, इंग्लैंड व अमेरिका, सभी जगहों से मौसम के
अजीब व्यवहार की खबर आ रही है। ये सब पृथ्वी के संकेत हैं। संयुक्त
राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट बताती है कि धरती के दिन
के बुरे होने की शुरुआत हो चुकी है। इसमें जलवायु परिवर्तन से होने वाले
नुकसान का पूरा जिक्र है। इन संकेतों को गंभीरता से समझने का समय आ चुका
है। पृथ्वी किसी न किसी रूप में हमारे व्यवहार के लिए हमें दंडित तो करेगी
ही। पृथ्वी की चिंता को तो हम नकार ही रहे हैं, लेकिन अपने जीवन को तो संकट
में डालने की हमारी हिम्मत नहीं। इसलिए इस बार पृथ्वी दिवस का नारा धरती
को बचाने से ज्यादा अपने जीवन को बचाने वाला होना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)