कल्याणकारी योजनाएं क्या वोटों में तब्दील हो पाती हैं? राजनीतिक पंडितों
की मानें तो ऐसा नहीं होता। इनका मानना है कि अगर घोषित तौर पर निर्धनों को
समर्पित ये योजनाएं वास्तव में वोटों को पाने का कामयाब जरिया होतीं, तो
2014 के आम चुनावों से ठीक पहले कल्याणकारी एजेंडा रखने वाली कांग्रेस
पार्टी की ऐसी दुर्गत न दिखती। कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए के खस्ताहाल को
बयां करते हर जनमत सर्वेक्षण के साथ कल्याणकारी योजनाओं के आलोचकों का
पलड़ा भारी होता जा रहा है। तो क्या निर्धनों के लिए सामाजिक सुरक्षा और
शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश पर पुनर्विचार करने का समय आ गया
है? या यह निगरानी की दोषपूर्ण व्यवस्था और भ्रष्टाचार है, जिसकी वजह से
यूपीए की कुछ कल्याणकारी योजनाओं की दुर्दशा हो रही है?
क्या वोटों
के मद्देनजर कल्याणकारी योजनाएं एक हद तक ही फायदेमंद होती हैं, जिसके बाद
उनकी चमक फीकी पड़ने लगती है? अगर कल्याणकारी योजनाएं राजनीतिक तौर पर
आत्मघाती हैं (जैसा कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए के साथ हुआ) तो फिर
राजस्थान की मुख्यमंत्री भाजपा की वसुंधरा राजे को पिछले हफ्ते यह कहने की
क्या जरूरत थी, कि पूर्व कांग्रेस सरकार ने जिन कल्याणकारी योजनाओं की
शुरुआत की थी, वह पहले की तरह चलती रहेंगी। हालांकि वह यह साफ करना नहीं
भूलीं कि जनहित को ध्यान में रखते हुए इनमें जरूरी बदलाव किए जाएंगे।
लोक
कल्याण की राजनीति के मद्देनजर� दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में होने
वाले आम चुनाव किस ओर इशारा कर रहे हैं? चुनावी गणित को परोसती राजनीतिक
बहसों के केंद्र में यह सवाल है कि किस राज्य में किस पार्टी को कितनी
सीटें मिल सकती हैं, लेकिन लोक कल्याण की योजनाओं पर कोई चर्चा होती नहीं
दिखती। आखिर गलती कहां है, कल्याणकारी योजनाओं में, या इनके क्रियान्वयन
में? मसलन शिक्षा क्षेत्र को लें।
प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन नामक
एनजीओ की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि शिक्षा के लिए फंड जुटाने के लिए कर
व्यवस्था और 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों तक शिक्षा के प्रसार के लिए कानून
बनाने के बावजूद सरकार को भारतीय स्कूलों में शिक्षा के स्तर को सुधारने
में कोई खास कामयाबी नहीं मिली है। इसमें संदेह नहीं कि स्कूलों में बच्चों
के नामांकन की दर 2005 के 93 फीसदी से बढ़कर अब 97 फीसदी हो गई है, लेकिन
सवाल तो शिक्षा की गुणवत्ता का है। इस मामले में पिछले एक दशक में यूपीए
शासन में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। दरअसल कक्षा पांच के ऐसे बच्चे, जो
दूसरी कक्षा की किताबों को पढ़ सकें, उनका प्रतिशत 2005 की तुलना में 15
फीसदी घटा है।
अब ग्रामीण अकुशल श्रमिकों को वर्ष में 100 दिनों का
रोजगार उपलब्ध कराने वाले बहुप्रचारित मनरेगा कानून को ही लीजिए। कैग की
रिपोर्ट बताती है कि अति निर्धन लोगों ने इस रोजगार गारंटी कानून के तहत
अपने अधिकार का उपयोग करने में खुद को असमर्थ पाया। 23 राज्यों में भुगतान
के न होने या देर से होने की तमाम शिकायतों का उल्लेख कैग ने अपनी रिपोर्ट
में किया। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र की ओर से की जाने वाली निगरानी
व्यवस्था भी असंतोष्ाजनक रही।
दूसरीबहुत सी सरकारी योजनाओं की
भी कमोबेश यही हालत है। अब राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना को ही लीजिए।
विभागीय जांचों से पता चलता है कि देश की सबसे बड़ी निजी बीमा कंपनियों में
शुमार होने वाली कंपनी ने वस्त्र मंत्रालय की तमाम कल्याण योजनाओं के साथ
कृषि मंत्रालय की स्वास्थ्य बीमा योजना और मौसम आधारित फसल बीमा योजना
जैसी तमाम योजनाओं के तहत अनाम लाभार्थियों पर पैसा लुटाया। इससे होने वाले
नुकसान का पूरी तरह आकलन तो नहीं हो सका है, लेकिन रकम करोड़ों में होना
तो तय ही है।
दरअसल नियमित निगरानी और योजनाओं के समुचित मूल्यांकन
की अनुपस्थिति में होने वाली अनियमितता और भष्टाचार को ही इसके पीछे
जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। उत्तरदायित्व को सुनिश्चित करने के उचित
तंत्र की जरूरत को समझना होगा। लोकसभा चुनावों के नतीजे बेशक कुछ भी हों,
इससे निर्धनों की मदद के लिए सामाजिक सुरक्षा और निवेश के विचार की
प्रासंगिकता में कोई कमी नहीं आएगी। लेकिन इस मद पर होने वाले भारी-भरकम
खर्च को देखते हुए निर्धनों के कल्याण को लेकर किसी भुलावे में भी नहीं
रहना चाहिए।
दरअसल दोष्ा कल्याणकारी योजनाओं में नहीं, उनके
क्रियान्वयन में है। सब इस पर निर्भर करता है कि कितनी ईमानदारी और कुशलता
के साथ ये योजनाएं अमल में लाई जाती हैं। 1977 के बाद सबसे निर्णायक माने
जा रहे चुनावों में राजनीतिक दल सिर्फ कल्याणकारी योजनाओं के भरोसे नहीं
हैं। असल में इन योजनाओं के साथ्ा दिक्कत यह है कि अगर इनकी ठीक से
निगरानी नहीं हुई तो इसका फायदा विरोधी दल उठा लेते हैं। और योजना को तैयार
करने वाले राजनीतिक दल को नुकसान उठाना पड़ता है। कितना नुकसान, यह तो
अगले महीने ही पता चलेगा।