कई लोगों का कहना है कि चुनाव आयोग के एक लोकसभा सीट के लिए खर्च सीमा
बढ़ाकर 70 लाख रुपये करने के बाद भी, सभी 542 चुनाव क्षेत्रों को मिलाकर
जितना कुल जायज खर्चा बनता है, उससे अधिक तो भाजपा ने अपने प्रधानमंत्री पद
के उम्मीदवार के प्रचार पर ही खर्च कर दिया होगा। इस चुनाव में जितने बड़े
पैमाने पर धन तथा अन्य संसाधनों का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह वाकई
विकराल है। अगर बिना किसी रोकटोक के चुनाव में इतना पैसा बहाया जा रहा है,
तो ऐसा हमारे चुनाव कानून की एक गंभीर खामी की वजह से भी हो रहा है। अब तक
चुनाव में राजनीतिक पार्टियों के लिए खर्च की कोई सीमा लगाई ही नहीं गई है।
माकपा
हमेशा यह मांग करती आई है कि जिस तरह उम्मीदवारों के लिए चुनाव खर्च की
अधिकतम सीमा तय है, उसी तरह पार्टियों के खर्चे की भी एक सीमा तय होनी
चाहिए। अचरज की बात नहीं है कि दूसरी किसी भी बड़ी पार्टी को हमारा यह
सुझाव मंजूर नहीं हुआ है! इस स्थिति में होता यह है कि जिन राजनीतिक
पार्टियों के पास जनसमर्थन ज्यादा होने के बावजूद, आर्थिक संसाधन ज्यादा
नहीं हैं, वे हमारे देश के चुनावों को नियंत्रित करने वाले मौजूदा कानूनों
के अंतर्गत घाटे में रहती हैं। यह भी गौरतलब है कि आज दीवार लेखन, पोस्टर
लगाने तथा अन्य अपेक्षाकृत सस्ते प्रचार साधनों पर तो ज्यादा से ज्यादा
पाबंदियां लगाई जा चुकी हैं, जबकि मीडिया में विज्ञापनों से लेकर, नेताओं
को देशभर में हैलीकॉप्टर व निजी विमानों के किराये पर लिए जाने और यहां तक
कि पेड-न्यूज तथा पेड ओपिनियन पोल तक पर, शायद ही रोक है। इसलिए, भारतीय
जनतंत्र तेजी से एक ऐसी व्यवस्था बनने की ओर खिसकता जा रहा है, जिसमें वोट
डालने को छोड़कर बाकी जनतंत्र पैसेवालों के लिए ही रह जाएगा।
अब
वक्त आ गया है कि चुनाव आयोग, अगर जरूरी हो, तो देश के चुनाव कानून में
जरूरी सुधार सुझाए, ताकि भारतीय जनतंत्र, अपने मूल चरित्र को बनाए रख सके,
जो हमारे संविधान की मंशा है। 1999 में अपने कट्टर हिंदुत्ववादी एजेंडे को
ताक पर रखने के बाद ही भाजपा, इतने सहयोगी जुटा पाई थी कि लोकसभा में बहुमत
साबित कर सके। इसी पृष्ठभूमि में 2004 में भी संघ-भाजपा ने ऐसा ही
जबर्दस्त प्रचार अभियान छेड़ा था, हालांकि आज के प्रचार अभियान की तुलना
में तो वह प्रचार अभियान काफी छोटा ही था। ‘इंडिया शाइनिंग’ और ‘फील गुड’
के प्रचार पर टिके उक्त अभियान से प्रभावित होकर अनेक चुनाव अनुमान पेश
करने वालों ने तो भाजपा की जबर्दस्त जीत की भविष्यवाणियां भी कर दी थीं।
लेकिन जब चुनाव के नतीजे आए, ये सारे अनुमान सिरे से झूठे साबित हो गए।
2014
के आम चुनाव में आरएसएस को इसका मौका नजर आ रहा है कि अपने मूल एजेंडा पर
कोई खास समझौते किए बिना ही वह केंद्र में सत्ता की बागडोर संभालने में
कामयाब हो सकती है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उसने नाजीवादी प्रचार
रणनीति बनाई है। उसमें दो मुख्य तत्व हैं। पहला, अंधाधुंध तरीके से इतिहास
को तोड़ो-मरोड़ो, ताकि अपने मंसूबोंको ‘सही’ साबित कर सको। दूसरे, कोई
‘शत्रु’ गढ़ो, ताकि उससे लड़ने के नाम पर, अपने समाज का अंध सैन्यीकरण कर
सको।
दुनिया ने भारत की बात इसलिए नहीं सुनी है कि वह कोई बड़ी
हथियारबंद ताकत रहा है या उसके पास भौतिक संपदा की भरमार रही है। उसने भारत
की आवाज इसलिए सुनी है, क्योंकि भारत के पास विचार की ताकत रही है। यही है
वह ताकत, जिससे भारत का आधुनिक विचार विकसित हुआ है। वह अपनी सामाजिक
बहुलता और बहुविध भिन्नताओं के लिहाज से एक अनोखा और अभूतपूर्व देश रहा है।