पंजाब के बिगड़ते हालात
बरसों से सियासी पार्टियों का चुनावी एजेंडा होने के बावजूद हालात बद से बदतर
सियासी पार्टियों पर भी लगाए जाते रहे हैं नशीली दवाओं को संरक्षण देने के आरोप
रोजगार के नाम पर सरकार ने सिर्फ 1,000 रुपये के मासिक भत्ते का प्रावधान किया है
शिक्षा, स्वास्थ्य और बेरोजगारी। समूचे देश की भांति पंजाब में भी
यही तीन ऐसे अहम मसले हैं जो बरसों पुराने हैं, लेकिन आज के दिन भी ज्वलंत
हैं। हर सियासी पार्टी हर बार अपने चुनावी एजेंडे में इन्हें शामिल करती
है। इसके बावजूद बद से बदतर होते हालात। राज्य के बजट का 74 फीसदी से भी
अधिक कर्मचारियों के वेतन व पेंशन और किसानों को मुफ्त बिजली देने पर खर्च
हो रहा है।
वहीं, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए बजट का आकार साल
दर साल घट रहा है। खासकर ग्रामीण युवाओं की बेरोजगारी आज के दिन पंजाब में
सबसे बड़ी चुनौती है। नौबत यहां तक आ गई है कि गांवों के शिक्षित बेरोजगार
युवा तेजी से नशे की गिरफ्त में आ रहे हैं। राज्य के सामाजिक सुरक्षा
विभाग ने सर्वे में पाया है कि 67 फीसदी ग्रामीण परिवारों का कम से कम एक
युवा सदस्य नशे का शिकार है।
यह पंजाब की सबसे गंभीर समस्या है जिसका ठोस हल निकालने की उम्मीद जिन
सियासी पार्टियों से है उन्हीं पर नशे को सरंक्षण देने जैसा गंभीर आरोप है।
चुनाव आयोग भी चुनावों के समय पंजाब में नशे के बढ़ते उपयोग पर चिंता जता
चुका है।
सेंटर फॉर रिसर्च इन रूरल एंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (क्रिड) के नेहरू
सेल के चेयरमैन डा.आर एस घुम्मन के मुताबिक ड्रग्स की चपेट में आने वाले
शिक्षित बेरोजगार ग्रामीण युवाओं की बढ़ती संख्या पंजाब के भविष्य को
अंधकारमय बना रही है। ग्रामीण इलाकों के 60 फीसदी से अधिक युवा नशे का
शिकार हैं।
खेती-बाड़ी के पारंपरिक पेशे से इनकार करने वाले इन युवाओं के लिए न तो
सरकार के पास रोजगार हैं और न ही निजी क्षेत्र में इनके लिए अवसर हैं।
युवाओं को रोजगार उन्मुख बनाने के नाम पर सरकार ने 1,000 रुपये के मासिक
भत्ते का प्रावधान करके अपना पल्ला झाड़ लिया है।
वहीं, युवाओं के नशे से आजिज गृहणियों के स्वयंसेवी संगठन जैसे बेलन
ब्रिगेड समेत कई संस्थाओं ने मोर्चा संभाल लिया है। पंजाब के समक्ष दूसरी
सबसे बड़ी चुनौती प्राइमरी कक्षा में शिक्षा का गिरता स्तर है। ग्रामीण
इलाकों के प्राइमरी सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर इस हद तक गिर गया है
कि पांचवीं कक्षा में फेल होने के बाद बीच में ही पढ़ाई छोडऩे (ड्रॉप आउट)
वाले विद्यार्थियों का अनुपात बढ़कर 50 फीसदी तक हो गया था।
अपने बचाव में इस पर लीपापोती के लिए सरकार ने आठवीं कक्षा तक बच्चों को
फेल न करने का फैसला किया। नतीजा यह हुआ कि मिडिल कक्षा तक शिक्षा का स्तर
इतना गिर गया कि सरकार पांचवीं कक्षा की परीक्षाओं के लिए बोर्ड के गठन पर
पुनर्विचार कर रही है। अकाली-भाजपा सरकार ग्रामीण इलाकों की लचर स्वास्थ्य
सेवा के आगे लाचार नजर आती है।