बेतहाशा बढ़ते शहरों में टूटती सांसें गुरुवार- एंड्रयू जैकब और इयान जॉहसन

पेरिस में कारों से निकलने वाला धुआं हो या नई दिल्ली में लकड़ी या गोबर से
जलने वाला चूल्हा, वायु प्रदूषण की वजह से विश्व भर में वर्ष 2012 में 70
लाख लोगों की मृत्यु हुई है। यह आंकड़ा विश्व स्वास्थ्य संगठन का है, जिसे
बीते मंगलवार को जारी किया गया। इन मौतों में एक-तिहाई से अधिक तेजी से
विकसित हो रहे एशियाई देशों में हुई, जहां हृदय और फेफड़े संबंधी रोग काफी
तेजी से पसर रहे हैं। यह रिपोर्ट दुनिया के सबसे बड़े पर्यावरणीय स्वास्थ्य
खतरे के रूप में वायु प्रदूषण की पहचान करती है। संगठन के अनुसार, दुनिया
भर में होने वाली हर आठ में से एक मौत दूषित हवा की वजह से होती है।
विडंबना है कि हृदयाघात और मानसिक आघात में वायु प्रदूषण कितनी बड़ी भूमिका
निभाता है, इसकी जानकारी होने के बावजूद इसे रोकने की गंभीर पहल नहीं हो
रही।

रिपोर्ट बताती है कि पूर्वोत्तर में जापान और चीन से लेकर
दक्षिण स्थित भारत तक एशिया का बड़ा हिस्सा असुरक्षित है। चूल्हे की आग से
धुएं के निकलने का यही अर्थ है कि महिलाएं, खासकर गरीब औरतों पर बड़ा खतरा
मंडरा रहा है। वर्ष 2012 में ही घर से निकलने वाले वायु प्रदूषक ने 40 लाख
से अधिक लोगों को अपना शिकार बनाया, जबकि बाहरी जहरीली हवा से 30 लाख से
अधिक लोगों की मौत हुई। कई लोगों की मृत्यु के लिए दोनों कारकों को
जिम्मेदार ठहराया गया।

एशिया के विकासशील देशों, खास तौर पर चीन,
में हो रहे अंधाधुंध शहरीकरण की वजह से वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।
यह संयोग है कि जेनेवा में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन की यह रिपोर्ट जारी की
जा रही थी, तभी बीजिंग में विश्व बैंक की भी एक रिपोर्ट जारी हुई, जिसमें
यह बताया गया है कि शहरीकरण को लेकर चीन कितनी संजीदगी दिखा रहा है। चीन के
विकास शोध केंद्र के साझा सहयोग से जारी उस रिपोर्ट में बताया गया है कि
सघन आबादी वाले शहरों के अलावा देश के कई शहरों में बेहतर योजना के नाम पर
बेमतलब विस्तार की अनुमति दी गई है।

विश्व बैंक का आकलन है कि अगले
15 वर्षों में चीन शहरी बुनियादी ढांचों पर 50.3 खरब अमेरिकी डॉलर खर्च
करेगा, क्योंकि उसकी योजना 10 करोड़ किसानों को शहरों में बसाने की है,
जहां उन्हें उन 10 करोड़ लोगों के साथ अपनी जीवनशैली साझा करनी होगी, जो
स्कूल और अस्पताल की पर्याप्त सुविधा के बिना जीवन जी रहे हैं। यह विस्तार
चीन में समयपूर्व मृत्यु, जन्म दोष और अन्य स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं
बढ़ाएगा, जिसके निदान के लिए उस पर सालाना 300 अरब अमेरिकी डॉलर के
अतिरिक्त खर्च का बोझ बढ़ेगा।

विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन,
दोनों का मानना है कि कोयला, लकड़ी और गोबर जैसे हानिकारक ईंधन मानव
स्वास्थ्य के लिए बड़े खतरे हैं। भारत में भी स्वास्थ्य एजेंसियों का आकलन
है कि करीब 70 करोड़ लोग कृषि अपशिष्ट जैसे बायोमास ईंधन का इस्तेमाल घरों
में करते हैं। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के किर्क आर स्मिथ ने धुएं वाले
घरेलू चुल्हों से होने वाले प्रदूषण को मापा है। वह बताते हैं कि वे एक
घंटेमें 400 सिगरेट के जलने के बराबर थे। उनका कहना है, ‘दुखद है कि बीते
दशकों में ज्यादा विकास नहीं होने की वजह से भारतीय महिलाओं और लड़कियों के
लिए आज भी घरेलू वायु प्रदूषण सबसे बड़ा स्वास्थ्य खतरा है।’

बहरहाल,
धुंध से जूझ रहा चीन आज जब ‘प्रदूषण के खिलाफ’ जंग की बात करता है, तो
क्या ऐसी ही कोई पहल भारत में नहीं होनी चाहिए? इसके लिए जमीनी स्तर पर भी
सामूहिक प्रयास की जरूरत है। आखिर जो वायु हम दूषित कर रहे हैं, उसे ही तो
श्वांस के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

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