अवधेश की उम्र का हिसाब रखने के लिए न तो उसके पास मां
है और न बाप. शायद इसलिए हमने उससे उसकी उम्र जाननी चाही तो उसने तपाक
जवाब दिया, ‘चौथी कक्षा में पढ़ता हूं.’ चौथी कक्षा ही उसकी उम्र को बयां
करती है. झट हम भी हिसाब लगाते हैं- दस साल.
अवधेश सिंह पनिका दस साल का बच्चा है. आदिवासी परिवार में पैदा हुआ.
मध्य भारत के घने जंगलों से घिरे अपने गांव अमिलिया में जब उसने होश
संभालना शुरू किया तो उसको संभालने वाले मां-बाप इस दुनिया से विदा हो चुके
थे. पहले पिता और एकाध-दो साल बाद मां भी.
अवधेश की कहानी इसलिए जरूरी नहीं है कि उसके मां-बाप नहीं हैं या फिर
उसकी उम्र का हिसाब रखने वाला कोई नहीं है. उसकी कहानी इससे आगे की है. एक
तरफ गांववालों की नजर में पला-बढ़ा, आधा पेट खाया, बिना नहाया, लंबे
बेतरतीब बाल और थोड़ा-थोड़ा कुपोषण की आशंका को लादे लटका पेट- अवधेश.
दूसरी तरफ कंपनीवालों से संघर्ष कर रहे गांववालों की लड़ाई का सबसे छोटा
सिपाही- अवधेश सिंह पनिका.
जब अवधेश अपने गांव के दूसरे बच्चों के साथ खेलने और जंगल घूमने जाना
सीख रहा था तभी दिल्ली और भोपाल में बैठे हुक्मरान उसके जंगल को खत्म करने
के लिए निजी कंपनियों के साथ साजिश बुनने में लगे थे. उसके गांव का निस्तार
महान जंगल में है. 54 गांवों के करीब एक लाख लोगों की जीविका के स्रोत
महान जंगल को महान कोल लिमिटेड (एस्सार व हिंडाल्को की संयुक्त उपक्रम) को
कोयला खदान के लिए दिया गया है. इस प्रस्तावित कोयला खदान के खुलने से
अवधेश जैसे हजारों बच्चों की जिंदगी खतरे में है. अपनी जीविका को बचाने के
लिए अवधेश के गांववालों ने दूसरे गांववालों के साथ मिलकर महान संघर्ष समिति
बनाई है. भले ही महान कोल ब्लॉक को पर्यावरण क्लीयरेंस देते वक्त
मंत्री-अधिकारियों ने महान जंगल की अहमियत ना समझी हो लेकिन अवधेश बहुत ही
मासूम ढंग से ही सही जंगल की अहमियत और आदिवासी होने के नाते उसके मायने
समझा जाता है. उसके ही शब्दों में, ‘जंगल से हम महुआ बीनते (चुनते) हैं.
तेंदुपत्ता, लकड़ी, चिरौंची भी. फिर इसको बेचकर कपड़ा खरीदते हैं, मिठाई
खरीदते हैं और पैसा बच गया तो गेंद भी.’ अवधेश कंपनी द्वारा उछाले गए विकास
के दावों को भी समझता है. वह बड़े आराम से कहता है, ‘कंपनी वाला बोला-
इंजीनियर बनाएंगे. प्रदूषण से मर जाएंगे तो कैसे इंजीनियर बनाएगा.’
सिंगरौली देश की बिजली राजधानी है. पावर प्लांट्स और कोयला खदान के
बहाने निजी कंपनियों ने यहां ऐसा जाल बुना है कि सरकार और कंपनी के बीच
फर्क मिट-सा जाता है. यहां के गांवों में कई सरकारी सुविधाओं को कंपनी के
नाम पर परोसा जाता है, जिससे कंपनियों की छवि लोगों के बीच अच्छी बन सके.
चाहे वह स्कूली बच्चों को दी जा रही सरकारी साइकिल पर महान कोल लिमिटेड छपा
नाम हो या फिर उनकी यूनिफॉर्म. अवधेश के स्कूल में भी एक दिन कंपनीवाले
यूनिफॉर्म बांटने आए थे लेकिन उसने लेने से साफ-साफ इनकार कर दिया. न जाने
कितने जाड़ों में पहनी जा चुकी उसकी फटी जैकेटऔर पुरानी शर्ट कंपनी वालों
के नये लक-दक स्कूली यूनिफॉर्म पर भारी पड़ गई थी.
अवधेश की अवयस्क चेतना इस बात को समझ चुकी है कि – कंपनी उसका भविष्य
बिगाड़ेगी, उसके प्यारे से जंगल को छीन लेगी. ‘आज मिठाई बांटता है, कभी
कपड़ा बांटने आता है. एक दिन कंपनीवाला बोला कि दस रुपये लोगे? हम बोले दो
तो बोला कि बोलो कंपनी के तरफ हो कि प्रिया (प्रिया महान संघर्ष समिति की
कार्यकर्ता है और पिछले तीन साल से क्षेत्र में जंगल-जमीन बचाने के लिए
संघर्षरत है) पाल्टी (पार्टी) की तरफ? हम बोले, ‘प्रिया पाल्टी की तरफ, तो
हमको भगा दिया.’
चार अगस्त, 2013 को महान संघर्ष समिति की तरफ से एक विशाल वनाधिकार
सम्मेलन का आयोजन किया गया था. उससे एक दिन पहले तीन अगस्त को गांव वालों
ने एक मशाल रैली निकाली थी. उस दिन रात में रैली को कंपनी कार्यालय के पास
पुलिसवालों ने रोक लिया था. गांव के लोगों में थोड़ी-सी डर की लकीर थी
लेकिन अवधेश वहां भी खड़ा था. मेरे पास आकर बोलता है, ‘ हम महान संघर्ष
पाल्टी में हैं, आप नारा लगाइए न.’ महान संघर्ष समिति की हर बैठक में वह
आस-पास मौजूद रहता है. समिति के कार्यकर्ताओं को बताता दिखता है, ‘देखिए! ई
कंपनी का मनई (आदमी) है. देखिए वो मीटिंग की बात रिकॉर्डिंग कर रहा है.’
समिति के कार्यकर्ताओं को देखते ही जिंदाबाद का संबोधन करने वाले अवधेश
को आंदोलन के दौरान बोले जाने वाले नारे मुंहजबानी याद हैं. वह भी दूसरे
साथियों के साथ नारे लगाता है- ‘जंगल हमारा आपका, नहीं किसी के बाप का.’
‘कमाने वाला- खाएगा, लूटने वाला-जाएगा, नया जमाना-आएगा, नया जमाना कौन
लाएगा- हम लायेंगे, हम लायेंगे’
इस हारे हुए लोकतंत्र के जीते हुए सिपाही भले अवधेश जैसे बच्चों के लिए
नया जमाना लाने में हार गए हों उसके द्वारा नया जमाना लाने की यह कवायद
शायद सफल हो.