गोपनीयता की आड़ में- जोगिन्दर सिंह

एक तरह से देखें तो भारत की सभी सरकारों का रवैया छिपाऊ रहा है। केवल रक्षा
मामले में ही नहीं, विवादों, घोटालों, धोखाधड़ी या पक्षपात करने में अपनी
निरंकुश ताकत का बेजा इस्तमाल करने से जुड़े सभी मामलों सरकारों का यह रुख
साफ दिखता है।

बेशक संविधान अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी देता है,
लेकिन इस पर मानहानि से जुड़े कानून का बंधन भी है। एक संपादक ने मुझे
बताया कि उसके अखबार में छपी कुछ खबरों की वजह से देश के सुदूर इलाकों में
उन पर मानहानि के दर्जनों मामले दर्ज हैं। दरअसल कई तरह के नाजायज दबावों
के जरिये मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिशें नई नहीं हैं।

87 वर्ष
के एक ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार और लेखक नेविल मैक्सवेल ने भारत-चीन युद्ध पर
हैंडर्सन ब्रूक्स की रिपोर्ट के आधार पर 1970 में इंडियाज चाइना वार नाम से
एक विवादास्पद किताब लिखी थी। उस समय वह भारत में विदेशी संवाददाता के
बतौर काम कर रहे थे।

पुस्तक में तथाकथित गोपनीयता को उन्होंने कुछ
इन शब्दों में बयां किया, ‘लंबे समय से रिपोर्ट को लटकाए रखने की वजह
राजनीतिक ही हो सकती है, या किसी अपने को बचाने की कोई साजिश।’ मैक्सवेल ने
हाल ही में अपने ब्लॉग में हैंडरसन रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया, मगर
तुरंत ही उनकी वेबसाइट को ब्लॉक कर दिया गया, ताकि पाठक रिपोर्ट को पढ़ न
पाएं।

भारत-चीन युद्ध 1962 में हुआ था। लेकिन इससे जुड़े तमाम पहलू
अब तक सार्वजनिक नहीं हो पाए हैं। इससे मैक्सवेल की बातों पर भरोसा गहराने
लगता है। बाद की सरकारों ने भी रिपोर्ट को छिपाकर रखने में कोई कसर नहीं
छोड़ी।
18 मार्च को रक्षा मंत्रालय की तरफ से बयान आया कि रिपोर्ट की
संवेदनशीलता के मद्देनजर सरकार ने इसे शीर्ष स्तरीय गोपनीय दस्तावेज माना
है, और इसीलिए अपनी वेबसाइट पर मैक्सवेल ने जो सामग्री प्रकाशित की है, उस
पर टिप्पणी करना उचित नहीं होगा।

गौरतलब है कि सैन्य बल सांविधानिक
निकाय नहीं हैं। और सभी रक्षा और केंद्रीय अर्धसैनिक बल सरकार के
दिशा-निर्देशों पर ही काम करते हैं। खेद इस बात पर है कि सत्ता के मजे तो
सरकार लेती है, लेकिन इन गलतियों की सजा अधीनस्‍थ एजेंसियां भुगतती हैं। सच
तो यह है कि 52 वर्ष पहले जो कुछ भी हुआ, वह वोटबैंक की राजनीति और
राष्‍ट्रीय हितों के प्रति बेपरवाही का आदर्श नमूना था।

आज साफ हो
चुका है कि रक्षा सौदों में होने वाले भ्रष्‍टाचार को रोक पाने में सरकार
और उसके कानून (भारतीय दंड संहिता) पूरी तरह विफल रहे हैं। दरअसल हमारे
तंत्र ने भ्रष्‍ट और बेईमानों की सुरक्षा के तमाम तरीके ईजाद कर लिए हैं।
दिक्कत तो यह है कि आरोपी से पूछताछ शुरू करने के लिए भी तमाम तरह की
स्वीकृतियां लेनी पड़ती हैं।

वैसे भी, जहां शहद होगा, वहां मक्खियों
की भिनभिनाहट स्वाभाविक है। चाहे रॉल्स रॉयस हो, या हेलिकॉप्टर समझौता, या
फिर बराक मिसाइल या बोफोर्स, सभी बड़े रक्षा सौदों में भी यही हो रहा है।
समस्या यह है कि कानूनी पेचीदगियों को सरकार अपने बचाव का औजार बना लेती
है।

आजादी के इतने वर्ष बाद भी देश की आर्डिनेंस फैक्टरियां अब तक
कोई उल्लेखनीय हथियार नहींबना पाई हैं। गौरतलब है कि रक्षा सौदों में होने
वाले घोटालों को रोकने का एक तरीका स्वदेशीकरण हो सकता है। स्टॉकहोम
इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक, दुनिया में भारत हथियारों का
सबसे बड़ा खरीदार बना हुआ है।

चीन और पाकिस्तान की तुलना में भारत
तीन गुना ज्यादा हथियार आयातित करता है। यही नहीं, पिछले पांच वर्षों में
भारत में हथियारों का आयात 111 फीसदी बढ़ा है। एक ओर तो भारत का घरेलू
हथियार बाजार संघर्ष कर रहा है। वहीं, अत्याधुनिक चीनी सेना और अस्थिर
पड़ोस की वजह से भारत में रक्षा व्यय तेजी से बढ़ता जा रहा है।

2009-13
के दौरान भारत को हथियार बेचनेे वाले देशों में रूस अव्वल था। लेकिन पिछले
कुछ समय से भारत ने अमेरिका से नजदीकी दिखानी शुरू की है। आईएचएस जेन के
हाल ही में जारी आंकड़े बताते हैं कि 2013 में भारत अमेरिकी हथियारों का
सबसे बड़ा खरीदार बन गया है।

हैंडर्सन रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से
सरकार शायद इसलिए डर रही है कि इससे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल
नेहरू के फैसलों पर सवालिया निशान लगने शुरू हो जाएंगे। गलती किसी से भी
हो सकती है। लेकिन जब शासन के सर्वोच्च पद पर आसीन शख्स गलती करता है, तो
खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है।

गलत तथ्यों के आधार पर किए
गए आकलन अक्सर गलत ही साबित होते हैं। लेकिन इसमें इंटेलीजेंस ब्यूरो के
प्रमुख और रक्षा मंत्रालय के अधिकारियों की भी गलती है कि उन्होंने सेना को
समुचित हथियार मुहैया नहीं करवाए। राष्‍ट्रीय सुरक्षा के नाम पर गोपनीयता
को जायज नहीं ठहराया जा सकता।

अगर सरकार सूचना के अधिकार को लाने पर
अपनी पीठ ठोकती है, तो उसे हर स्तर पर पारदर्शिता का पालन करना चाहिए। इस
मामले में ज्यादा से ज्यादा यही कहा जाएगा कि नेहरू से वह फैसला लेने में
गलती हुई, जो उन्होंने दी गई सलाह के आधार पर लिया था।

कुछ चीजें
ऐसी होती हैं, जो किसी विश्वविद्यालय में नहीं सीखी जातीं। ये जीवन से सीखी
जाती हैं। हर कोई जीवन की इस पाठशाला का स्‍थायी विद्यार्थी होता है।
उम्मीद है कि वर्तमान सरकार भी यह मानती होगी कि ऐसा कोई नहीं होता, जिससे
कभी गलती न हो। लेकिन उसे यह जरूर ध्यान रखना चाहिए कि राष्‍ट्रीय हित और
सुरक्षा का मुद्दा सबसे पहले आता है।

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