इस बार के चुनाव में खेती-किसानी मुद्दा क्यों नहीं है- हरवीर सिंह

इंदिरा गांधी के इमरजेंसी राज के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में
कांग्रेस को जिस जनता पार्टी ने सत्ता से बेदखल किया, उसका चुनाव चिह्न
हलधर था। उस चुनाव का एक नारा था, देश की खुशहाली का रास्ता खेतों और
गांवों से होकर जाता है। साफ है कि तब राजनीति के केंद्र में किसान और
गांव-देहात था। अब सोलहवीं लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। इस चुनाव में
मध्यवर्ग, कॉरपोरेट जगत के सरोकार से लेकर विदेशी निवेश को ललचाने की
बातें हो रही हैं। लेकिन खेती-किसानी से जुड़े सरोकार हाशिये पर हैं। कोई
बड़ा नेता भी नहीं दिख रहा, जो किसानों� के हितों को सर्वोपरि रखता हो।

ऐसा
नहीं कि कृषि और किसानों से जुड़े मसलों की कमी है। बिजली, पानी, सड़क और
समर्थन मूल्य जैसे ढांचागत मुद्दों को छोड़ दें, तो हाल की प्राकृतिक आपदा
ने किसानों के लिए बड़ा संकट खड़ा किया है। बेमौसम बारिश, तेज हवा और
ओलावृष्टि ने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश से
लेकर महाराष्ट्र तक में गेहूं, चना, सरसों, दालें, अनार और अंगूर किसानों
को भारी चोट दी है। इस आपदा के बाद देश में दर्जन भर से ज्यादा किसान
आत्महत्या कर चुके हैं। लेकिन मुख्य राजनीतिक दल अब भी नरेंद्र मोदी और
अरविंद केजरीवाल के बीच बनारस की संभावित चुनावी लड़ाई या विभिन्न
पार्टियों के बीच टिकटों को लेकर घमासान में ही मस्त हैं।

असल में
पिछले करीब एक दशक में किसानों के हितों की आवाज उठाने वाले नेता देश की
राजनीति में गौण होते चले गए। केंद्र में सत्ता की उम्मीद संजो रही भाजपा
में क्या कोई ऐसा आदमी है, जिसे बड़ा किसान नेता कहा जा सके? भाजपा के पास
हालांकि एक किसान मोर्चा है, जिसके अध्यक्ष ओमप्रकाश धनकड़ को पार्टी ने
रोहतक से टिकट भी दिया है। लेकिन क्या यूपीए के दस साल के कार्यकाल में
राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के हितों के लिए इस मोर्चे ने कोई बड़ा आंदोलन
किया है? कांग्रेस और यूपीए के सहयोगी दलों में भी बड़ा किसान नेता नहीं
दिखता। यूपीए की दोनों सरकारों में कृषि मंत्री रहे शरद पवार महाराष्ट्र के
सहकारी चीनी कारखानों की पैरवी करने तक सीमित दिखते हैं। पवार को
स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के अध्यक्ष राजू शेट्टी ने चुनौती दी है।
हथकनंगले सीट से निर्दलीय सांसद शेट्टी की ताकत के चलते पवार ने वह सीट
कांग्रेस को दे दी। यहां राजू शेट्टी का जिक्र इसलिए जरूरी है, क्योंकि
किसानों के लिए अगर कोई लड़ने की हिम्मत रखता है, तो अब भी उसकी ताकत का
एहसास होता है।

करीब दो दशक पहले उत्तर भारत में महेंद्र सिंह टिकैत
की भारतीय किसान यूनियन का दबदबा राजनीतिक दलों पर साफ दिखता था। वहीं
पंजाब में अजमेर सिंह लाखोवाल की बीकेयू की ताकत अकाली दल को बखूबी पता थी।
महाराष्ट्र में शरद जोशी से लेकर विजय जावंधिया के शेतकारी संगठन का असर
था, तो कर्नाटक में नंजुदास्वामी का रैयत संघ था। उड़ीसा में किशन पटनायक
किसानों को लेकर चलते थे। लेकिन अब ये संगठन मजबूत हालत में नहीं हैं।
हालांकि राष्ट्रीय लोक दल ने भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत
को अमरोहा सेटिकट देकर किसान वोटों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की है।
लेकिन इसका कितना फायदा मिलेगा, यह तो नतीजों के बाद साफ होगा।

चुनावी
घोषणापत्रों में सभी दल किसान और ग्रामीणों के जीवन को बेहतर बनाने से
लेकर कृषि विकास दर को दो अंकों में ले जाने के दावे करते दिखेंगे। पर उनकी
नीतियों का खाका कॉरपोरेट इकोनॉमिस्ट और शीर्ष प्रबंधन संस्थानों के
विशेषज्ञ ही तैयार करेंगे। सवाल है कि जब किसानों के दुख को समझने वाले लोग
सत्ता में नहीं होंगे, तो उनके हित सुरक्षित कैसे रहेंगे।

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