लोकतंत्र की असली ताकत चुनाव में है. यह चुनाव उन सभी संस्थानों के लिए अपनी अहमियत रखता है, जहां जनता के अधिकार और हित निहित है. संघ-संगठनों का लोकतांत्रिक स्वरूप इसी बात में है कि वहां एक निश्चित प्रक्रिया के तहत निश्चित समय पर चुनाव होता है. देश की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्था हमारी संसद है और राज्य की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक संस्था विधानमंडल. 73वें और 74वें संविधान संशोधन के द्वारा स्थानीय निकायों यानी त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थानों और नगर निकायों को भी संवैधानिक ताकत मिली. संसद के मामले में लोकसभा और विधानमंडल के मामले में विधानसभा के चुनाव में देश के प्रत्येक वयस्क नागरिक को वोट डालने और अपने प्रतिनिधि को चुनने का अधिकार है. इस अधिकार को सुरक्षित रखने और प्रभावी बनाने के लिए कई उपाय किये गये हैं.
चुनाव आयोग वोटर लिस्ट तैयार करता है. इसमें 18 वर्ष की उम्र के हर भारतीय नागरिक का नाम दर्ज कराना उसकी जवाबदेही है. इसके लिए प्रचार-प्रसार, नागरिकों को जागरूक करना, उन तक ऐसी सुविधा और व्यवस्था पहुंचना कि वे अपना नाम वोटर लिस्ट में दर्ज करा सकें या नाम गलत है, तो उसमें सुधार करा सकें या अगर कोई व्यक्ति मर गया है या क्षेत्र बदल लेता है, तो उसका नाम लिस्ट से हटवा सकें. वोटर लिस्ट को दुरुस्त और अपडेट रखने की जवाबदेही इसकी है. इससे जुड़े किसी भी तरह के विवाद को निबटाना उसका काम है. इस काम के लिए वह जिलों के उपायुक्तों या जिलाधिकारियों को अपने प्रतिनिधि के रूप में अधिकृत करता है.
देश में किसी चुनाव में दो तरह के उम्मीदवार मैदान में होते हैं. एक दलीय और दूसरे निर्दलीय. दलीय उम्मीदवार राजनीतिक दलों के होते हैं. ऐसे दलों का पंजीकरण चुनाव आयोग करता है.
आयोग राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय और राज्य स्तर के दल के रूप में वर्गीकृत करता है. इसके अलावा मान्यताप्राप्त दल भी होते हैं. दलों को मान्यता भी चुनाव आयोग ही देता है. निर्दल भी उसी की अनुमति से चुनाव लड़ते हैं और सभी को चुनाव चिह्न् आयोग ही आवंटित करता है.
निर्वाचित होने और सदन की सदस्यता ग्रहण करने के बाद अगर किसी सांसद या विधायक की योग्यता को लेकर सवाल उठाता है, तब चुनाव आयोग से सलाह मांगी जाती है. आयोगसांसदके मामले में राष्ट्रपति को और विधायक के मामले में राज्यपाल को अपनी सलाह देता है, लेकिन अगर मामला दल बदल का हो, तो वह चुनाव आयोग के विचार या सलाह का विषय नहीं होता.
आयोग को यह अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति को चुनाव में गलत उपाय अपनाने के लिए दोषी पाये जाने पर उसे नोटिस भेजे, उससे जवाब मांगे और संतुष्ट नहीं होने पर उसे अयोग्य करार दे. वह किसी प्रतिद्वंदी दल या प्रत्याशी या जनता की शिकायत पर संज्ञान लेता है. ऐसे मामले की जांच करता है. नोटिस जारी करता है. साक्ष्य और बयान ग्रहण करता है और अपने फैसले सुनाता है. चुनाव कार्य में लगे सरकारी सेवक के गलत आचरण पर भी वह कार्रवाई करता है.
नागरिकों के मूल अधिकार
वे अधिकार जो लोगों के जीवन के लिए अति-आवश्यक या मौलिक समङो जाते हैं, उन्हें मूल अधिकार कहा जाता है. प्रत्येक देश के लिखित अथवा अलिखित संविधान में नागरिक के मूल अधिकार को मान्यता दी गयी है. ये मूल अधिकार नागरिक को निश्चात्मक रूप में प्राप्त हैं तथा राज्य की सार्वभौम सत्ता पर अंकुश लगाने के कारण नागरिक की दृष्टि से ऐसे अधिकार विषर्ययात्मक कहे जाते हैं. मूल अधिकार का एक उदाहरण है ‘राज्य अपने नागरिकों के बीच परस्पर विभेद नहीं करेगा’. प्रत्येक देश के संविधान में इसकी मान्यता है.
मूल अधिकारों का सर्वप्रथम विकास ब्रिटेन में हुआ जब 1225 में सम्राट जॉन को ब्रिटिश जनता ने प्राचीन स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान करने के लिए मैग्ना कार्टा पर हस्ताक्षर करने को बाध्य कर दिया था.
अधिकार, जिन्हें मौलिक कहा गया
जीवित रहने का अधिकार (राइट टू लाइफ)
घूमने-फिरने की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू फ्रिडम ऑफ मुवमेंट)
संपत्ति रखने का अधिकार (राइट टू ओन प्रोपर्टी)
संगठित होने की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू फ्रिडम ऑफ एसोसिएशन)
भाषण की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू फिडम ऑफ स्पीच)
कानून के समक्ष समानता का अधिकार
विचारों की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू फिडम ऑफ थाउट)
मतदान का अधिकार (राइट टू वोट)
अनुबंध या संविदा करने की स्वतंत्रता का अधिकार (राइट टू ऑफ कंट्रेक्ट)