जनसत्ता 01 मार्च, 2014 : आम चुनाव सिर पर हों तो इसे अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना ही कहा जाएगा। वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने अंतरिम बजट में जन-कल्याणकारी योजनाओं में 31,812 करोड़ रुपए की कटौती कर यूपीए सरकार के विरोधियों को हमला करने के लिए अतिरिक्त गोला-बारूद मुहैया करा दिया है। कटौती चालू वित्तवर्ष में की गई है जिसका असर ग्रामीण सड़क, सिंचाई, राष्ट्रीय कृषि विकास, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, मिड-डे मील, निर्मल भारत अभियान, प्राथमिक शिक्षा, ग्रामीण पेयजल, महिला एवं बाल विकास और अल्पसंख्यकों की बेहतरी से जुड़ी योजनाओं पर पड़ेगा।
अंतरराष्ट्रीय दबाव में राजकोषीय घाटे को 4.8 से 4.6 फीसद पर लाने के लिए सरकार ने गरीबों के कल्याण से जुड़ी योजनाओं पर कैंची चलाई है। उसकी नीयत में खोट का अंदेशा इस तथ्य से होता है कि जहां कंगाल जनता के पेट पर लात मारी गई है वहीं कार, एअरकंडीशनर, लैपटॉप, मोबाइल आदि उत्पादों पर टैक्स कम कर उद्योगों को राहत दी गई है। कार उद्योग को दी गई छह फीसद की छूट तो भौंचक्का करती है। इस कदम से महंगी डीजल गाड़ियों और एसयूवी की बिक्री में इजाफा होगा और नौ रुपए प्रति लीटर की सबसिडी पर बिक रहे डीजल की खपत बढ़ेगी।
मनमोहन सिंह सरकार को महंगी गाड़ियां चलाने वाले तबके को प्रति लीटर डीजल नौ रुपए की सबसिडी देने में कोई तकलीफ नहीं होती, पर गरीबों के कल्याण के लिए चलाई जा रही योजनाओं को धन मुहैया करते वक्त राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने की चिंता सताने लगती है। डीजल की गाड़ियों की बिक्री को प्रोत्साहन उस वक्त दिया गया है जब यह रिपोर्ट आई कि देश में वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है और दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर है।
सरकार ने पिछले वर्ष फरवरी में 2013-14 का बजट पेश करते समय साढ़े पांच लाख करोड़ रुपए के खर्चे का अनुमान दर्शाया था जिसे अब घटा कर पौने पांच लाख करोड़ रुपए कर दिया गया है। व्यय में कुल अस्सी हजार करोड़ रुपए की कटौती की गई है जिसमें गरीबों के कल्याण से जुड़ी योजनाओं की हिस्सेदारी लगभग चालीस फीसद है। इससे ‘कांग्रेस का हाथ गरीबों के साथ’ नारा उछालने वाली पार्टी की नीयत का पर्दाफाश होता है। वित्तमंत्री ने कुछ महीने पहले सभी मंत्रालयों को अपने खर्च में कटौती का निर्देश दिया था।
ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने इस निर्देश के विरोध में दिसंबर में प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा, लेकिन मनमोहन सिंह ने दखल देने से इनकार कर दिया। नतीजा सामने है। ग्रामीण विकास मंत्रालय का 74,478 करोड़ रुपए का बजट कम कर 59,356 करोड़ रुपए कर दिया गया है। कृषि क्षेत्र ने डगमगा रही आर्थिक विकास दर को इस साल सबसे ज्यादा सहारा दिया है लेकिन सरकार इस क्षेत्र पर ज्यादा पैसा खर्च करने के बजाय कटौती कर रही है।
सरकार ने ग्रामीण विकास मंत्रालय की योजनाओं पर ही नहीं स्वास्थ्य मंत्रालय के कार्यक्रमों के लिए आबंटित धन में भी 5,747 करोड़ रुपए की कटौती की है। बजट में इस मंत्रालय को 33,278 करोड़ रुपया दिया गया था जो अब घटा कर 27,531 करोड़ कर दिया गया है। इसका सीधा असर सरकारी अस्पतालोंऔर वहां मिलने वाली निशुल्क दवाओं पर पड़ेगा। समाज के संपन्न वर्ग को सरकारी अस्पतालों की जरूरत नहीं है। उनके लिए पूरे देश में पांच सितारा अस्पतालों की शृंखला मौजूद है। आम आदमी की जरूरत देख सरकार से स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च बढ़ाने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन हो रहा है उलटा। आबंटन बढ़ाने के बजाय यूपीए सरकार ने कटौती का निर्णय लिया है जिसका दुष्परिणाम गरीबों को भोगना पड़ेगा।
यहां एक और तथ्य बताना जरूरी है। अध्ययनों से यह भेद उजागर होता है कि आज संपन्न बीस फीसद तबके को दी जा रही सबसिडी गरीब बीस प्रतिशत जमात के मुकाबले छह गुना अधिक है। करों में छूट के तौर पर सरकार हर साल उद्योग जगत को कई लाख करोड़ रुपए की राहत देती है। सार्वजनिक बैंकों का दिग्गज कॉरपोरेट घरानों पर अरबों रुपया बकाया है। 2013 में बैंकों ने अपने हिसाब-किताब में उद्योगों को दिया गया लगभग बारह खरब रुपए का कर्ज डूबा हुआ दर्शाया। इस धन के लौटने की संभावना अब न के बराबर है। धन वसूली के लिए सरकार और सार्वजनिक बैंक कोई कड़ा कदम भी नहीं उठा रहे। ऐसे में गरीबों के जीवन से सीधी जुड़ी योजनाओं के आबंटन में कमी और खलती है। चिदंबरम के इस कटौती के कदम का असर जानने के साथ यह बताना जरूरी है कि वित्तवर्ष के अंतिम तीन महीनों (जनवरी से मार्च) में ही सरकारी मकहमे सबसे ज्यादा पैसा खर्च करते हैं।
इस दौरान बकाया बिलों का भुगतान और बची रकम को खर्च करने की कवायद तेज हो जाती है। दूसरा सच यह है कि वित्तवर्ष के दौरान सरकारी आय-व्यय का ग्राफ काफी ऊपर-नीचे होता रहता है। लेकिन अंतिम महीनों में प्रत्यक्ष कर वसूली में उछाल आने से आमदनी में खासी बढ़ोतरी हो जाती है।हाल ही में स्पेक्ट्रम की नीलामी से भी सरकार को मोटी आमदनी हुई है। आदेश की असली वजह यह है कि चालू बजट में सरकार ने आर्थिक विकास का जो लक्ष्य तय किया था, उसे अर्जित करना अब असंभव हो चला है। विकास दर घट जाने से आमदनी-खर्च के सारे सरकारी आंकड़े गड़बड़ा गए हैं।
राजकोषीय घाटे को काबू में रखने के दवाब में वित्तमंत्री ने सभी सरकारी महकमों को अपने खर्च कम करने का तुगलकी फरमान जारी किया है। उनके इस आदेश का खतरनाक असर होगा। सरकार द्वारा चलाई जा रही सभी जन-कल्याणकारी योजनाओं का काम ठप पड़ जाएगा और शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य, कृषि और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मोर्चों पर पैसे की किल्लत भारी पडेÞगी। किफायत की कैंची चलने से गरीबों का जीवन और दूभर हो जाएगा।
यह तो था आदेश का असर। अब इस आदेश को जारी करने के अधिकार पर चर्चा की जाए। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद का स्थान सर्वाेच्च होता है। संसद में बजट पेश करना और पारित करवाना सरकार का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दायित्व समझा जाता है। हमारे संविधान के अनुसार अगर लोकसभा में सरकार का बजट प्रस्ताव गिर जाए तो सरकार भी गिर जाती है। संसद की मंजूरी के बिना सरकार एक पैसा खर्च नहीं कर सकती। बजट पेश करते समय संसद को सरकार बताती है कि किस मद में कितनाधनव्यय होगा। संसद की मुहर लगने के बाद ही विभिन्न मंत्रालयों को पैसा दिया जा सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि जब संसद की मंजूरी के बिना सरकार इकन्नी भी खर्च नहीं कर सकती, तब संसद से मंजूरी के बिना बजट में कटौती कैसे कर सकती है? यूपीए सरकार ने विभिन्न मंत्रालयों के तय बजट में कटौती का हुक्म जारी कर संसद का अपमान किया है। उसका आदेश संविधान का उल्लंघन भी है। अगर किसी मजबूरीवश सरकार को कटौती करनी भी है तो इसके लिए उसे संसद के पास जाना चाहिए और संसद की अनुमति के बाद ही आदेश जारी करना चाहिए। कटौती का निर्णय पारदर्शी होना चाहिए। गुपचुप फैसला करना और जनता को विश्वास में लिए बिना जन-कल्याणकारी योजनाओं के मद में कटौती करना, मान्य लोकतांत्रिक परंपराओं की अवहेलना है।
हाल ही में संपन्न चार विधानसभा चुनावों के परिणामों से पता चल चुका है कि मौजूदा केंद्र सरकार कितनी अलोकप्रिय हो चुकी है।
भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी मनमोहन सरकार लंबे समय से नीतिगत निर्णय लेने का साहस नहीं जुटा पाई जिसका दुष्परिणाम पूरा देश भुगत रहा है। आज देश महंगाई के गहरे गर्त में गिरा हुआ है। मुद्रास्फीति की दृष्टि से दुनिया के 153 देशों की सूची में भारत का स्थान 142वां है। कुछ समय पहले हमारा स्थान साठ के आसपास था। 2004-07 के बीच खाद्य महंगाई दर औसत चार फीसद थी, जबकि 2008-13 के बीच बढ़ कर दस फीसद से ऊपर पहुंच गई। आज मध्यवर्ग अपनी आमदनी का पचास फीसद और गरीब तबका साठ फीसद खाने-पीने पर खर्च करता है। बार-बार वादा करने के बावजूद जनता को कांग्रेस महंगाई से राहत दिलाने में विफल रही है। सबसिडी में कटौती करने और कल्याणकारी योजनाओं में पैसे की कमी की मार भी गरीब और मध्यवर्ग पर पड़ेगी। कुछ समय बाद होने वाले आम चुनाव में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
चिदंबरम देश की आर्थिक दुर्दशा का मुख्य करण वैश्विक मंदी बता रहे हैं। उनका यह दावा आधा सच है। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के अनुसार 2010 में विश्व अर्थव्यवस्था की विकास दर 5.3 प्रतिशत थी जो अगले तीन साल में घट कर क्रमश: 3.9 प्रतिशत, 3.2 प्रतिशत और 2.9 प्रतिशत रह गई। दूसरी तरफ मुद्राकोष ने 2010 में भारत की विकास दर 10.6 फीसद आंकी, जो अगले तीन साल में गिर कर क्रमश: 6.3 (2011), 3.2 (2012) और 3.8 (2013) प्रतिशत रह गई। इन तीन वर्षों में जहां दुनिया की विकास दर आधी से भी कम गिरी वहीं भारत की विकास दर गिरकर लगभग एक तिहाई रह गई। मतलब यह कि सरकार की गलत नीतियों और भ्रष्टाचार ने देश की अर्थव्यवस्था को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। लगता है हमारा देश भारी महंगाई और नीची विकास दर के भंवर में फंस गया है।
मौजूदा सरकार की लंगड़ी नीतियों के कारण पिछले पांच सालों में राजकोषीय घाटा निरंतर बढ़ता गया है। वर्ष 2007-08 में केंद्र और राज्य सरकारों का कुल जमा राजकोषीय घाटा 4.04 प्रतिशत था। यह घाटा वर्ष 2008-09 में बढ़ कर दो गुना (8.44 प्रतिशत) हो गया और वर्ष 2009-10 आते-आते 9.39 पर पहुंच गया।वर्ष 2010-11 में जरूर थोड़ी गिरावट आई (7.72 प्रतिशत)। स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि सरकार को अपनी देनदारियां स्थगित करनी पड़ी हैं। वित्तमंत्री ने सरकारी महकमों के बजट में कटौती का आदेश जारी कर सरकार की दुर्दशा जग-जाहिर कर दी है। अब गरीब और मध्यवर्ग को इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा। कुछ समय बाद केंद्र में सरकार बनाने वाले दल या गठबंधन के लिए इस आर्थिक संकट के मकड़जाल को काटना कठिन चुनौती होगी।