आरक्षण का आधार जाति बनाम आर्थिक

संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक-आर्थिक विषमता को पाटने के
उद्देश्य से एक निश्चित अवधि के लिए किया गया था, पर बाद में आरक्षण नीति
पर वोट बैंक की राजनीति हावी होती चली गयी. एक बार फिर चुनाव करीब है और
आरक्षण के आधार एवं औचित्य पर बहस तेज हो गयी है. इस बहस के विभिन्न पहलुओं
को सामने लाने की एक कोशिश.

बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर ने कहा था कि 26 जनवरी, 1950 से देश
विरोधाभासों के दौर में प्रवेश करेगा, जहां एक व्यक्ति-एक वोट के सिद्धांत
के आधार पर राजनीतिक समानता तो होगी, पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में पसरी
विषमता इस राजनीतिक समानता को निरुद्देश्य करती रहेगी. उन्होंने चेतावनी भी
दी थी कि हमें इस विषमता को समाप्त करने की जल्दी कोशिश करनी चाहिए,
अन्यथा राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा. संविधान में उल्लिखित
प्रावधानों के अनुरूप आरक्षण की नीति इसी सामाजिक और आर्थिक विषमता को
पाटने की प्रक्रिया का अहम हिस्सा है. सदियों से चली आ रही जाति आधारित
सामाजिक व्यवस्था और उससे बनी आर्थिकी को ढाहने के किसी भी प्रयास पर
खींचतान स्वाभाविक है. ऐसा आरक्षण के साथ भी होता रहा है और इसी वजह से यह
मुद्दा स्वतंत्रता आंदोलन से आज तक भारत के सबसे विवादस्पद मसलों में रहा
है. आरक्षण से जुड़े तमाम पहलुओं पर सड़क से संसद तथा अखबार से अदालत तक
बहसें हुई हैं.

कुछ दिन पहले ‘दस जनपथ’ के बेहद करीबी और संभल कर बोलनेवाले वरिष्ठ
कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी ने जातिगत आरक्षण को समाप्त कर आर्थिक आधार
पर आरक्षण देने की बात कह कर इन बहसों को एक बार फिर हवा दे दी. हालांकि,
इसके खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की सफाई के बाद उन्होंने चुप्पी
साध ली है. लेकिन बहस को आगे बढ़ाते हुए योग गुरु बाबा रामदेव ने भी जाति
की बजाय आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का समर्थन किया है. उनका कहना है कि
जातिगत आधार पर आरक्षण देने से बहुत सी जातियों के ऐसे बड़ी संख्या में लोग
आरक्षण के लाभ से वंचित हैं, जो आर्थिक रूप से काफी कमजोर हैं. इससे यह
बात भी फिर साफ हुई है कि आरक्षण के आधार को लेकर विचारों की भिन्नता
सियासत के अर्श से सुदूर देहात के आंगन तक बरकरार है.

अकसर कहा जाता है कि आरक्षण का सीधा मतलब वंचित समुदायों को विशेष अवसर
उपलब्ध कराना है, ताकि वे रोजगार और शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति कर सकें.
क्रीमी लेयर को अलग रखना, आर्थिक आधार लागू करना, पद्दोन्नति में आरक्षण
हटाना, आरक्षण का लाभ एक बार और एक पीढ़ी तक सीमित रखना आदि जैसे तर्क इसी
समझदारी से पैदा होते हैं. जनार्दन द्विवेदी का बयान भी इसी श्रेणी में आता
है. उनकी मांग का समर्थन करते हुए वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर कहते हैं कि
आरक्षण नीति में संशोधन करते हुए दलितों या पिछड़े वर्ग के उन लोगों को आगे
आरक्षण नहीं मिलना चाहिए, जिन्हें इसका फायदा मिल चुका है, ताकि उन समूहों
के ज्यादा जरूरतमंद लोगों को इसका लाभ मिल सके.

लेकिन आरक्षण की ऐतिहासिकता और संवैधानिकता के आईने में देखें तो एक अलग
ही तसवीर उभरती है. आजादीसे पहले कोल्हापुर, मद्रास और मैसूर की रियासतों
ने अपने क्षेत्र में आरक्षण की नीति लागू करते हुए यह स्पष्ट घोषणा की थी
कि इसका उद्देश्य राज्य-प्रशासन पर काबिज जाति-विशेष के एकाधिकार को तोड़ना
है. बाबा साहेब ने लिखा है कि वंचितों द्वारा मांगा गया आरक्षण असल में
शासक वर्गो की सत्ता पर नियंत्रण की मांग है. आरक्षण संविधान को सामाजिक
संस्थाओं से जोड़ता है, ताकि राजनीतिक शक्ति को शासक वर्गो के हाथों में
जाने से रोका जा सके. शासक वर्गो से उनका तात्पर्य ऊंची जातियों से था.
जानेमाने समाजशास्त्री प्रो सुखदेव थोराट अपने एक लेख में लिखते हैं,
सामूहिक पहचान के आधार पर होनेवाले..

आरक्षण पर बहस से परहेज क्यों?
कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने जातिगत आरक्षण जैसे लोकलुभावन मुद्दे
के विरोध में बयान देकर चुनावी मौसम की बहस को उबाऊपन से बाहर निकाला है.
कुछ विशेष मुद्दों पर अपनाया जानेवाला पाखंडपूर्ण रवैया भारतीय लोकतंत्र की
मूल समस्या है.

ऐसे मुद्दे किसी भी बहस से परे होते हैं. इन पर कोई बातचीत पाप समझी जाती
है. सवाल इनके सही या गलत होने का नहीं है, बल्कि यूं कहें कि जो चीज 60
साल पहले सही थी, वह आज भी सही बनी हुई है. अगले पांच दशकों तक दलितों के
लिए आरक्षण जारी रहने के पक्ष में दमदार तर्क दिया जा सकता है, लेकिन किसी
मसले को बातचीत के दायरे से बाहर क्यों रखा जाना चाहिए? हम कुछ संशोधनों को
प्रस्तावित करने से गुरेज क्यों करें, जैसे कि जो दलित या पिछड़ी जातियां
आरक्षण से लाभान्वित हो चुकी हैं, उन्हें अब इस लाभ से वंचित क्यों नहीं
किया जाना चाहिए, ताकि इसका फायदा अधिक जरूरतमंद लोगों तक पहुंच सके?

एमजे अकबर

वरिष्ठ पत्रकार

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