मानवीय आपदा के वक्त मानवाधिकार का मसला अक्सर ऐसे समय में ही सुर्खियां
बनता है, जब किसी क्षेत्र विशेष को बाढ़, भूकंप, सुनामी या अन्य किसी आपदा
का सामना करना पड़ रहा होता है। और उस समय की चुनौतियां अलग किस्म की होती
हैं, लिहाजा न उस पर बात हो पाती है और न ही अमल हो पाता है।
यूरोपीय
संघ द्वारा प्रायोजित तथा हाल में प्रकाशित अध्ययन ‘इक्वालिटी इन एड:
एड्रेसिंग कास्ट डिस्क्रिमिनेशन इन ह्यूमेनेटेरियन रिस्पॉन्स,’ नई बहस का
आगाज करता दिखता है। इसका मकसद अंतरराष्ट्रीय दातासंस्थाओं को यह सलाह देना
है कि वह ‘आपदा के समय मानवीय सहायता का आवंटन करते वक्त उन मुल्कों में
मौजूद जातिगत भेदभाव की स्थिति के बारे में संवेदनशील हों’ तथा ‘जवाबदेही
सुनिश्चित करें’। अगर बारीकी से अध्ययन करें, तो प्रस्तुत अध्ययन के
निष्कर्ष दक्षिण एशिया में, भारत के अलावा नेपाल, श्रीलंका और पाकिस्तान
में उपयोगी जान पड़ सकते हैं।
जहां तक संयुक्त राष्ट्र का सवाल है,
तो वह इस मामले में स्पष्ट है। वर्ष 1991 में मानवीय मसलों से संबंधित
विभाग खोलते समय संयुक्त राष्ट्र ने मानवीय सहायता प्रदान करने के लिए चंद
स्थूल सिद्धांत प्रस्तुत किए थे, जिसके बाद वर्ष 1994 में अंतरराष्ट्रीय
रेडक्रॉस और रेड क्रिसेंट मूवमेंट तथा आपदा राहत कार्य में सक्रिय रहने
वाली गैरसरकारी संस्थाओं के लिए उसने आचार संहिता भी तय की थी।
आपदा
में सहायता प्रदान करने में जवाबदेही सुनिश्चित करने के इसी उपक्रम में
वर्ष 2000 में स्पियर हैंडबुक और बाद में चार्टर भी अपनाया गया। चार्टर के
मुताबिक मानवीय सहायता पाने का अधिकार सम्मान के साथ जीने के अधिकार का
आवश्यक तत्व है। इसमें उचित जीवन स्तर का अधिकार सन्निहित है, जिसमें
पर्याप्त भोजन, पानी, कपड़े, आश्रय और अच्छे स्वास्थ्य की जरूरतें, जो
अंतरराष्ट्रीय कानूनों में सुनिश्चित की गई हैं, शामिल हैं। वह इस बात की
जिम्मेदारी भी तय करता है कि मानवीय सहायता उन सभी के लिए उपलब्ध है,
जिन्हें उसकी जरूरत है, मगर खासकर ऐसे लोगों के लिए अधिक, जो नाजुक स्थिति
में हैं या राजनीतिक या अन्य आधारों पर बहिष्कृत किए गए हैं।
याद
रहे कि आपदा के वक्त किस तरह मानवाधिकारों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन होता
है, उसके बारे में 2001 के गुजरात के विनाशकारी भूकंप के दिनों से चर्चा
शुरू हुई है। उस भूकंप में हजारों मासूमों की जानें गई थीं, उस दौरान चले
राहत शिविरों में भी लोगों के सामने ऐसी शिकायतें आई थीं। उन दिनों भी
मीडिया ने बताया था कि किस तरह राहत सामग्री के बंटवारे में दलितों एवं
मुसलमानों के साथ भेदभाव हो रहा है। इस पहलू को लेकर बाद में जनसुनवाई का
भी आयोजन हुआ।
इस मसले पर अधिक चर्चा 2004 में आई सुनामी के वक्त
सुनाई दी थी, जब भारी तबाही के बाद तमिलनाडु के नागपटि्टनम तथा अन्य जिलों
के राहत शिविरों से दलितों को खदेड़े जाने की खबरें सुर्खियां बनी थीं।
मछुआरों में शुमार किए जाने वाले मीनावर समुदाय के लोगों ने दलितों को राहत
शिविरों से खदेड़ा, उन्हें खाना या अन्य राहत सामग्री देने का विरोध किया,
यूनिसेफ द्वारा भेजे गए पानी के टैंकरों से पानी भरने नहीं दिया, यहां तक
कि शौचालय इस्तेमाल करने से भीरोका। जब लोगों ने जिला मजिस्ट्रेट से इस
मसले पर बातचीत की तथा दखल देने को कहा, तब उन्होंने इसके खिलाफ कार्रवाई
करने या दलितों के साथ मानवीय व्यवहार सुनिश्चित करने के बारे में अपनी
असमर्थता प्रकट की।
यूरोपीय संघ के मातहत किए गए इस अध्ययन की
बुनियादी बात यही है कि राहत एवं पुनर्वास कार्य में लगे संगठनों को चाहिए
कि उनकी मानवीय कार्रवाई मानवाधिकारों के पैमानों पर तथा अधिकार संपन्न
लोगों की जरूरतों पर खरी उतरे। यों तो किसी देश विशेष की सीमा के अंतर्गत
मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने का प्रमुख कर्तव्य राज्य का ही होता है,
मगर आपदा के वक्त गैरसरकारी संगठनों, संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों आदि की
भी जिम्मेदारी बनती है कि वे मानवाधिकार की अनिवार्यताओं को समझें। निचोड़
के तौर पर कहें, तो उन्हें सिद्धांत एवं व्यवहार में इसे स्वीकारना होगा और
अमल में लाना होगा।