एआईसीसी की बीते दिनों हुई बैठक में राहुल गांधी ने बताया कि उन्होंने
कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम (एपीएमसी
ऐक्ट) के दायरे से फलों एवं सब्जियों को बाहर करने का निर्देश दिया है।
उनके निर्देश पर ज्यादातर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने 15 जनवरी से पहले ही
फलों एवं सब्जियों को एपीएमसी ऐक्ट से निकाल दिया था। हालांकि सच्चाई यह
है कि बाजारों में आपूर्ति बढ़ने के कारण राहुल गांधी के निर्देश से पहले
ही फल-सब्जियों की कीमत घटने लगी थी; इसमें एपीएमसी ऐक्ट के रहने या हटने
का कोई योगदान नहीं था। सवाल यह है कि एपीएमसी ऐक्ट क्या वास्तव में खलनायक
है या गड़बड़ी कहीं और है।
संसद द्वारा दिसंबर, 2012 में मल्टी
ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दिए जाने के एक दिन बाद
एक प्रमुख अखबार ने रिपोर्ट छापी थी कि कैसे बड़ी रिटेल कंपनियां किसानों
और उपभोक्ताओं, दोनों का दोहन करती थीं। उसने उदाहरण देकर बताया कि एक
बहुराष्ट्रीय कंपनी पंजाब के ठेका किसानों से आठ रुपये किलो की दर से
बेबीकॉर्न खरीदकर उसे थोक में सौ रुपये किलो की दर से बेचती थी और उपभोक्ता
उसके लिए दो सौ रुपये प्रति किलो की दर से भुगतान करते थे। यानी किसानों
को उपभोक्ताओं द्वारा चुकाए मूल्य का चार फीसदी ही मिलता है!
बिहार
में धान उत्पादक किसानों का उदाहरण लीजिए। यह अकेला राज्य है, जिसने 2006
में ही एपीएमसी ऐक्ट को रद्द कर किसानों को यह छूट दे दी है कि वे जिसे
चाहें, अपना माल बेचें। मगर पंजाब के किसानों को इस वर्ष मिले 1,310 रुपये
प्रति क्विंटल खरीद मूल्य के मुकाबले बिहार के किसानों ने अपना धान मात्र
800 से 900 रुपये क्विंटल की दर से बेचा। यह निजी व्यापारियों के निर्मम
शोषण का ही उदाहरण है।
विडंबना देखिए कि किसानों को लाभकारी मूल्य
सुनिश्चित कराने वाली संस्था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) ने बिहार
को बाजार के अनुकूल राज्यों की सूची में शीर्ष पर रखा है, जबकि वर्षों से
किसानों को सुनिश्चित मूल्य दिलाने और मंडियों के बड़े नेटवर्क वाला राज्य
पंजाब इस सूची में सबसे नीचे है। जिस दौर में बाजार के अनुकूल होना एक नया
मंत्र बन गया है, सीएसीपी ने पंजाब सरकार को एपीएमसी ऐक्ट भंग करने एवं
बाजार को स्वतंत्र संचालन की अनुमति देने के लिए कहा है। वह चाहता है कि
पंजाब के किसानों का भी वही हाल हो, जो बिहार के किसानों का हुआ है।
जो
बात संभवतः राहुल गांधी को नहीं बताई गई, वह यह कि देश के मात्र 30 फीसदी
किसान ही खरीद मूल्य का लाभ ले पाते हैं। बाकी 70 फीसदी किसान बाजार पर ही
निर्भर रहते हैं। यदि बाजार इन 70 फीसदी किसानों के प्रति इतना ही मददगार
होता, उनकी उद्यमिता को बढ़ाता और उनकी आजीविका में सुधार करता, तो किसान
काफी खुशहाल होते। हालत यह है कि गेहूं और धान उत्पादक राज्यों को छोड़कर
किसानों को मंडी के अभाव में हर जगह झटका खाना पड़ता है। पूर्वोत्तर के
राज्यों में हाल के वर्षों में धान उत्पादन बढ़ा है, लेकिन किसानों को
मात्र 800 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहे हैं। कारण स्पष्टहै। एपीएमसी ऐक्ट
अपनी तमाम खामियों के बावजूद किसानों को सुनिश्चित कीमत और बाजार उपलब्ध
कराता है। यही कारण है कि पंजाब के किसान अन्य फसलों के लिए समर्थन मूल्य
के अभाव में गेहूं और चावल की खेती छोड़ने से इन्कार करते हैं।
कुछ
अर्थशास्त्री एपीएमसी की एकाधिकारवादी बाजार संरचना को दोष देते हुए कहते
हैं कि यह मुक्त व्यापार के प्रवेश एवं प्रतियोगता को प्रतिबंधित कर
किसानों को उसके उत्पाद का आर्थिक मूल्य हासिल करने से वंचित करता है। यह
गलत धारणा है। एपीएमसी ऐक्ट के तहत किसान अपने उत्पाद मंडी में लाते हैं,
तो सबसे पहले निजी व्यापारियों को खरीदने का मौका दिया जाता है। जब कोई
निजी खरीदार नहीं होता, तभी खाद्य निगम या अन्य सरकारी खरीद एजेंसियां उसे
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर उठाती हैं।
निजी व्यापारियों के गुस्से की
यही वजह है। वे किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने से बचना चाहते हैं।
जब उन्हें बिहार में 800 से 900 रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान मिल सकता
है, तो भला पंजाब के किसानों को वे 1,310 रुपये क्यों देना चाहेंगे?
कहा
जाता है कि बाजार ढांचा उन नए खिलाड़ियों को प्रवेश नहीं करने देता, जो
कोल्ड चेन की स्थापना और अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश करना चाहते हैं,
पर यह सब बकवास है। पिछले सात वर्षों में जब से बिहार में एपीएमसी ऐक्ट को
रद्द किया गया है, क्या वहां कृषि विपणन में कोई क्रांति दिखी है? असल में
उद्योग जगत पंजाब एवं हरियाणा जैसे अग्रणी कृषि राज्यों में पहले से मौजूद
आपूर्ति नेटवर्क का दोहन करना चाहता है। बेशक� समय के साथ मंडियों के
संचालन में कुछ गड़बड़ियां आई हैं। पर एपीएमसी ऐक्ट में इन मंडियों को
नियंत्रित करने के प्रभावी प्रावधान मौजूद हैं। पर किसी सरकार ने इसमें
दिलचस्पी नहीं दिखाई है।
ये सारी गड़बड़ियां इसलिए पैदा हुई हैं,
क्योंकि ताकतवर बिचौलियों की मंडली को राजनीतिक संरक्षण हासिल है। आंतरिक
गड़बड़ियां दूर करने के बजाय इस कानून को हटाने और निजी कंपनियों को
टर्मिनल बाजार स्थापित करने की अनुमति देना रिटेल में एफडीआई की राह आसान
बनाना होगा, ताकि वे सस्ते में कृषि उत्पाद खरीद सकें। इसका मुख्य उद्देश्य
सरकारी खरीद प्रणाली को खत्म करना और किसानों को खेती से बेदखल करना है।
यानी जाने-अनजाने राहुल गांधी ने पिछले चार दशकों से बहुत मेहनत से तैयार
खाद्य आत्मनिर्भरता की नींव को ध्वस्त करने का सुझाव दिया है!