स्पेक्ट्रम
की मौजूदा नीलामी भारी सफलता मिली है। इससे हमें पता चलता है कि 2008 में
तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए राजा ने 2जी स्पेक्ट्रम 2001 की कीमतों पर
बांटी थी उसमें निश्चित ही घोटाला हुआ था। मौजूदा नीलामी के छठे दिन, 8
फरवरी तक सरकार को 56,554.92 करोड़ रुपए की बोलियां मिल चुकी हैं और अभी
नीलामी खत्म नहीं हुई है। इससे पहले नवंबर-दिसंबर 2012 में स्पेक्ट्रम की
नीलामी फीकी साबित हुई थी। सरकार को मौजूदा नीलामी में सफलता ऐसे समय मिल
रही है जब अर्थव्यवस्था 2012 से भी धीमी रफ्तार से बढ़ रही है।
अब सवाल यह उठता है कि जब 2012 में स्पेक्ट्रम की नीलामी फीकी रही थी,
तो अब यह क्यों सफल रही है? इसकी एक वजह नीलामी का ढांचा है। नीलामी रोचक
इसलिए हो गई है क्योंकि हर कंपनी मुंबई, दिल्ली और कोलकाता जैसे महत्वपूर्ण
सर्किलों में 900 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम पाना चाहती है। जिन कंपनियों के
पास इस सर्किलों में स्पेक्ट्रम था, उनके लाइसेंस भी खत्म हो रहे हैं।
इनमें वोडाफोन, आइडिया एयरटेल शामिल हैं। वहीं, बोली लगाने की होड़ में
रिलायंस जियो ने शामिल होकर इस नीलामी को गर्मा दिया है, जो इस साल देशभर
में 4जी सेवाएं शुरू कर सकती है।
एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि 2012 की नीलामी में यूपीए सरकार, जो 2जी
स्पेक्ट्रम घोटाले के कारण आलोचना के घेरे में थी, तब उसने यह साबित करने
में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था कि सस्ती दरों पर स्पेक्ट्रम का आवंटन
सही था। इस नीलामी में अखिल भारतीय स्तर पर 5 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम के लिए
‘रिजर्व प्राइस’ 14,000 करोड़ रुपए रखी गई थी। सरकार को इस नीलामी में
28,000 करोड़ रुपए मिलने की उम्मीद थी, लेकिन सिर्फ 9,704 करोड़ रुपए ही
मिल पाए थे और नीलामी फीकी साबित हुई थी। तब यूपीए सरकार ने सारा दोष देश
के तत्कालीन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) विनोद राय पर मढ़ दिया
था। सीएजी ने 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी 2010 की कीमतों पर करने का सुझाव
दिया था। उनके मुताबिक, राजा द्वारा बेची गई स्पेक्ट्रम से 1,76,000 लाख
करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। उनके इस ‘अनुमानित नुकसान’ पर सरकार को
शर्मिंदा होना पड़ा था।
कांग्रेस के प्रवक्ता 2012 में नीलामी फीकी रहने से काफी खुश थे क्योंकि
वे यूपीए सरकार पर लगा 2जी घोटाले का दाग धो लेना चाहते थे। मनीष तिवारी,
जो अब सूचना और प्रसारण मंत्री हैं, ने सीना फुलाकर कहा था, ‘बताइए मिस्टर
सीएजी, कहां हैं 1,76,000 करोड़ रुपए?’ और 2जी स्पेक्ट्रम मामले में ‘जीरो
लॉस’ यानी ‘कोई राजस्व हानि नहीं’ की बात कहने वाले दूरसंचार मंत्री कपिल
सिब्बल का भी कुछ ऐसा ही रुख था। उनका कहना था कि नीलामी के संबंध में जब
कोई नीति नहीं थी तो इसमें नुकसान होने का सवाल ही नहीं उठता। हमने
पूर्ववर्ती सरकार के नियमों का पालन किया। 2जी स्पेक्ट्रम ‘पहले आओ पहले
पाओ’ के आधार पर बांटी गई। यह नीति पूर्ववर्ती एनडीए सरकार की थी। इस तरह
साफ है कि 2012 में हुई नीलामी को फ्लॉप करने में सरकार का निहित स्वार्थ
था।
अब देखें, सिब्बल इस बार क्या कह रहे हैंजब सरकार की वित्तीय स्थिति
गड़बड़ा रही है और स्पेक्ट्रम की नीलामी से राजस्व मिलने की बहुत जरूरत है।
सिब्बल ने कहा है कि ‘हमने ‘रिजर्व प्राइस’ को तर्कसंगत बनाने का साहसिक
कदम उठाया। इससे सरकार को नीलामी के पहले दिन 40,000 करोड़ रुपए की बोली
हासिल करने में मदद मिली है।’
इससे दो बातें साबित होती हैं: पहली यह कि 2012 की नीलामी इसलिए
फ्लॉप नहीं हुई कि इसकी प्रक्रिया गलत थी, बल्कि इसलिए कि सिब्बल ने रिजर्व
प्राइस को ‘तर्कसंगत’ नहीं बनाया था। सरकार ने जानबूझकर उचित फैसला न लेकर
नीलामी को अव्यावहारिक बनाया था।
दूसरी, यह कि ‘जीरो लॉस’ का तर्क अच्छा साबित नहीं होता है जब आपके पास
संसाधन (स्पेक्ट्रम) पहले से कम हो और उसका आवंटन कर हों। संसाधनों की कीमत
चुनी हुई सरकार के लक्ष्यों के मुताबिक कम या अधिक रखी जा सकती है। लेकिन
फिर भी आपको संभावित नुकसान का आकलन लगाना पड़ेगा और इसे सही साबित करना
होगा। इस तरह 2014 की स्पेक्ट्रम नीलामी साबित करती है कि फ्लॉप सिर्फ कपिल
सिब्बल की ‘जीरो लॉस’ थ्योरी हुई है।
–लेखक आर्थिक मामलों के वरिष्ठ पत्रकार, ‘फोर्ब्स इंडिया’ के एडिटर-इन-चीफ हैं।