पूर्वोत्तर भारत ऐसा हिस्सा है, जहां भारत कम और दक्षिण-पूर्व एशिया अधिक
दिखता है। यहां के ज्यादातर जातीय समूहों के पूर्वज चीन के युन्नान प्रांत
और म्यांमार के कुछ हिस्सों से आए हैं। इस हिस्से पर अंग्रेजों के आगमन से
पहले किसी भारतीय शासक ने, फिर चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, राज नहीं किया
है। अंग्रेज जब भारत से विदा हुए, तब यह क्षेत्र भारत का हिस्सा बना।
भारत
की राष्ट्र-निर्माण परियोजनाओं को यहां के नगाओं ने कड़ी चुनौती दी।
उन्होंने जबर्दस्त विद्रोह किया। नगाओं के बाद मिजो, मणिपुरी, त्रिपुरी और
अंत में असमियों ने भी बगावत का झंडा उठा लिया। असमी भारत के सबसे ज्यादा
करीब माने जाते थे। इतना ही नहीं, 1947 के बाद से इस क्षेत्र पर उन्हीं का
नियंत्रण भी था। लेकिन आजादी के करीब साढ़े छह दशक बाद यहां जातीय संघर्ष
कमजोर हो चुका है, क्योंकि केंद्र सरकार ने यहां जारी विद्रोह को खत्म करने
के लिए श्रीलंकाई मॉडल नहीं अपनाया, जिसके तहत लिट्टे के खात्मे के लिए
सैनिकों को उतार दिया था, बल्कि भारत ने राजनीतिक समझौते को महत्व दिया। ये
आंदोलन इसलिए नरम पड़े, क्योंकि भारत का उदय एक ऐसे देश के रूप में हुआ,
जहां अवसरों की कमी नहीं थी। इसकी बढ़ती अर्थव्यवस्था और पूर्वोत्तर पर
पड़ते प्रभाव ने हालात संभालने में मदद की।
इसलिए भले ही यहां के
चाचा-ताऊ ने भारत के खिलाफ लड़ाई लड़ी हो और चीन या पाकिस्तान प्रशिक्षण के
लिए गए हों, लेकिन पूर्वोत्तर भारत की नई पीढ़ी भारत को अपना मानती है।
मैरी कॉम जैसी बॉक्सर या गौरमांगी सिंह (भारतीय टीम की कप्तान) जैसे
फुटबॉलर या सोमदेव देवबर्मन जैसे टेनिस स्टार ने भारत के लिए ख्याति अर्जित
की है। अनगिनत युवा भारतीय सेना में शामिल होकर लड़ाइयां लड़ चुके हैं,
जिनमें से कइयों ने कारगिल युद्ध के लिए मेडल भी जीते। जे एम लिंग्दोह जैसे
चुनाव आयुक्त और पी ए संगमा जैसे लोकसभा अध्यक्ष ने सार्वजनिक जीवन के
उच्चतम स्तर पर अपनी क्षमताएं साबित की हैं। यहां की जमीनी स्थिति का
अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि नगा जाति के भारतीय सेना के एक कप्तान
की अंतिम यात्रा में 50,000 से अधिक लोग शामिल हुए थे, जबकि ऐसी स्थिति
बीस-तीस वर्ष पहले उन लड़ाकों के लिए होती थी, जो भारतीय सेना के खिलाफ
लड़ाई में मारे जाते थे। लिहाजा यह कहा जा सकता है कि यहां के लोगों की
मानसिकता बदल चुकी है।
लेकिन शेष भारत के ज्यादातर लोगों के लिए, जो
देश के इतिहास और भूगोल से वाकिफ नहीं हैं, पूर्वोत्तर के लोग भारत के
नहीं, बल्कि नेपाल या चीन के नागरिक ही हैं। इसे शाहरुख खान अभिनीत फिल्म
चक दे इंडिया में भी देखा जा सकता है, जिसमें एक स्थूल पंजाबी डिफेंडर एक
चपल मणिपुरी को यह कहती है कि उसे भारतीय टीम की तरफ से खेलने से पहले
पंजाबी सीख लेनी चाहिए। कुछ ऐसा ही होता है, जब पूर्वोत्तर की लड़कियां शेष
भारतीय शहरों में अपने गृह राज्य की तरह बिना बाधा के घूमना चाहती हैं।
उन्हें न सिर्फ गलत नजरों से देखा जाता है, बल्कि उनके साथ बलात्कार और
छेड़छाड़ की घटनाएं भीहोती हैं। ऐसा दिल्ली में अमूमन होता है।
इसी
कड़ी में दिल्ली में अरुणाचल प्रदेश के एक लड़के को पीटकर मार डाला गया,
क्योंकि उसे भारतीयों का सामना करने और उन्हें चुनौती देने का कोई ‘अधिकार’
नहीं था। यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि वह आम भारतीयों से अलग दिखता था।
दिल्ली या शेष भारत के लोगों को यह समझना चाहिए कि यदि वह अरुणाचल प्रदेश
को अपना नहीं समझेंगे, तो चीनियों को उन्हें कुबूलने में ऐतराज नहीं है। वह
वक्त बीत गया, जब पूर्वोत्तर भारत के लोगों को मंगोल नस्ल का कहकर संबोधित
किया जाए। मौजूदा वक्त में जैविक श्रेणी के आधार पर मंगोल, नीग्रो,
काकेशियान या अन्य नस्लीय समूहों का कोई वैज्ञानिक महत्व नहीं है।
अरुणाचली,
असमी, गारो, खासी, मणिपुरी, मिजो, नगा और त्रिपुरा के लोगों में जीन या
पर्यावरण के आधार पर जो कुछ समानताएं हैं, वे आनुवांशिक हैं। इसलिए अगर कोई
रूप-रंग के आधार पर किसी को पूर्वोत्तर भारत का बताता है, तो वह हमेशा सही
नहीं हो सकता। मानव आबादी में एक व्यापक आनुवांशिक क्षमता होती है, जो
पीढ़ी-दर-पीढ़ी नई जातीय संरचना या परिवर्तन के माध्यम से बदलती रहती है।
इसलिए हमें समझना होगा कि सामाजिक श्रेणी के रूप में नस्ल का जन्म असल में
प्रथाओं से हुआ है।
मौजूदा दौर में हमें संचार और यातायात साधनों का
शुक्रिया अदा करना चाहिए, जिस वजह से आज भारतीय, खास तौर से पूर्वोत्तर
भारत के लोग उन इलाकों की ओर भी जा रहे हैं, जहां वे पहले कभी नहीं गए।
दिल्ली, बंगलूरू, मुंबई, पुणे, कोलकाता और अन्य शहरों में पूर्वोत्तर के
छात्रों की काफी संख्या इसका प्रमाण है। वे अब कई विश्वविद्यालयों में
‘प्रत्यक्षतः अल्पसंख्यक’ भी बन गए हैं। ऐसे में कइयों का यह अनुभव कि नस्ल
के आधार पर उन्हें चपटा या चिंकी कहा जाता है, व्याकुल करता है। कई इसलिए
इन परिस्थितियों में ही अपना जीवन बिताने को मजबूर हैं, क्योंकि उनके अपने
गृह राज्य में अवसरों की कमी है।
शेष भारत को समझना चाहिए कि देश
मात्र दिल्लीवासियों का ही नहीं है। यह विविधताओं का देश है, जहां
पूर्वोत्तर के लोगों ने काफी प्रयास के बाद भारतीय हितों को जज्ब किया है।
अब वे भारत को अपना बनाना चाहते हैं, लेकिन यह भारत है, जो उन्हें अब भी
बेगाना मान रहा है। यह वास्तव में दुखद है।