जनसत्ता 28 जनवरी, 2014 : महिलाओं के विरुद्ध होने वाले यौन अपराधों से निपटने के उपायों और तौर-तरीकों को लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक ही नहीं,काफी कानूनी विभ्रम भी हैं। कठोरतम दंड-प्रावधानों के साए में, देश की अपराध-न्याय व्यवस्था आसाराम और तेजपाल के आचरण में भेद नहीं कर पा रही है; पुलिस और अदालती कार्यवाही में दोनों को एक समान ही निपटाया जा रहा है। यौनिक दुराचरण के आरोपी जजों की ओर से भी बचाव में जैसी सफाइयां आई हैं वे अनायास उत्पीड़ित को ही जवाबदेह बना देती हैं। यहां तक कि एक सक्रिय समाजकर्मी खुर्शीद अनवर ने तो अतिवादी मीडिया माहौल में बजाय पुलिस और अदालत का कानूनी रूप से सामना करने के, आत्महत्या का ही रास्ता चुन लिया। अब, अन्य सरकारों की तरह, दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार भी पुलिस गश्त के दम पर ही बलात्कार और देह-व्यापार को रोकने का आह्वान कर रही है।
ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय, अपने दो पूर्व जजों पर यौनिक दुराचरण का आरोप सार्वजनिक होने के बाद, ऐसे मामलों में छानबीन की एक मानक प्रणाली बनाने की राह पर है। कार्यस्थल पर स्त्री-उत्पीड़न रोकने के ‘विशाखा’ कानूनों के बावजूद, व्यवहार में केवल शिकायत-सफाई-दंड-निगरानी तक सीमित परिदृश्य में हर नई पहल का स्वागत होना चाहिए। आखिर स्त्री को अपने यौनिक अस्तित्व के चप्पे-चप्पे पर अराजक ‘मर्द’ से सामना होने का खतरा उठाना ही है- सड़क के लंपट, कार्यस्थल के उत्पीड़क, घरों-मोहल्लों के भेड़िये, उसकी नियति से जल्दी विदा नहीं होने जा रहे। न निकट भविष्य में उसे अपने नजरिये से कानून मिलने जा रहे। कम से कम, कानूनी दायरे में न्याय का गुरुतर कार्यभार उठाने वाले जजों के आचरण में तो उसका विश्वास बना रहे।
नए वर्ष में राजधानी में डेनमार्क की एक पर्यटक का सामूहिक बलात्कार, चाहे नशेड़ी उचक्कों की वहशी जमात का काम हो, पर एक स्तर पर यह सांस्कृतिक बलात्कारों की ही कड़ी है और लोकतांत्रिक जन-आंदोलनों के रास्ते दिल्ली की सत्ता में आई आम आदमी पार्टी द्वारा वेश्यावृत्ति रोकने के नाम पर विदेशी महिलाओं पर नैतिक निगरानी थोपना, स्त्री के विरुद्ध लैंगिक पाशविकता की वैसी ही खाप-कवायद है जैसी ‘डायनों’, ‘छिनालों’, ‘कुलटाओं’ को समाज से मिटाने के नाम पर होती आई है। ऐसे में क्या यह नियम बन सकेगा कि स्त्री की सुरक्षा, शालीनता और हक-प्राप्ति की कानूनी-संवैधानिक प्रणालियों से जुड़े हर पेशेवरकर्मी के लिए लिंग-संवेदी प्रमाणित होना भी एक पूर्व-शर्त हो। एक जज के लिए ही नहीं; अभियोजक, वकील-सफाई, अनुसंधानकर्ता, सुरक्षाकर्मी, मजिस्ट्रेट, जेलकर्मी, महिला आयोगकर्मी, चिकित्साकर्मी, काउंसलर, मीडियाकर्मी, मंत्री के लिए भी स्त्री के प्रति संवेदी मिजाज उनके पेशेवरपन का अनिवार्य हिस्सा हो।
सामूहिक बलात्कारों को रोजमर्रा के सामान्य यौनिक अपराधों के प्रति चौतरफा सजगता से ही रोका जा सकता है। इस दर्जे की सजगता पुलिस की गश्त, निगरानी और सूचना की सटीकता और उसमें समाज के चौकस योगदान से ही हासिल होगी। ‘संवेदी पुलिस’ के होते हुए ही ऐसा जुड़ाव संभव है। गंभीर और चर्चित मामलों में प्रदर्शनों, धरनों, कैंडल-जुलूसों, निलंबनों, तबादलों, सजाओं आदि से पुलिस और अन्य पेशेवरकर्मियों के आचरण की बस व्यक्तिगत जवाबदेही निशाने पर लाई जा सकती है, वह भी यौन अपराधों के घट जाने के बाद। पर घटना-पूर्वकी, अपराध को संभव करने वाली चूकों और परिस्थितियों को लेकर उनकी जवाबदेही? रोजमर्रा के यौनिक हिंसा के सामान्य मामलों को नजरअंदाज किए जाने की जवाबदेही? और इन स्थितियों के होने में राज्य की अपनी जवाबदेही? ‘संवेदी पुलिस’ से नत्थी इन जवाबदेहियां को कहीं अधिक महत्त्व का मुद््दा होना चाहिए। इस लिहाज से भी कि लोकतंत्र में, विशेषकर उत्पीड़ित को, लैंगिक रूप से संवेदी पुलिस ही आश्वस्त करेगी। तभी रोजमर्रा की वांछित सजगता की दिशा में भी राज्य और समाज की वैसी ही सक्रियता बन पाएगी जैसी आज कानूनी रूप से अधिकार-संपन्न और प्रशासनिक रूप से जवाबदेह पुलिस को लेकर नजर आती है।
समाज में भी यौनिक अराजकता की अनेक स्थितियां हैं। बेलगाम यौन विस्फोट के मुकाबले नदारद यौन शिक्षा की स्थिति बच्चियों को बीमार दिमागों के रहमोकरम पर रखती है। आप निगरानी में क्या-क्या भूखंड रखेंगे जब सारा का सारा भूगोल असुरक्षित हो! बलात्कार जब चलती बस में हुआ तो हर बस की निगरानी, जब सामुदायिक शौचालय में तो हर शौचालय पर नजर, कार-पार्क में या किसी निर्जन परिसर में होने पर ऐसी तमाम जगहों की पुख्ता चौकीदारी! और जब घर या पड़ोस में हो तो? सामुदायिक या पंचायती कलेवर में घटे तो? सामूहिक बलात्कारों पर राजनीति भी ठेठ पुलिसिया उपायों के गिर्द ही घूमती मिलेगी। पिछले साल हुई विधिक कवायदों का अनुभव बताता है कि जघन्य यौनिक अपराधों के लिए पुलिस की कमी-कोताही को ही कोसते रहने का मतलब है राज्य के प्राधिकार में वृद्धि की और निरर्थक जमीन तैयार करना, और पुलिस के मनमानी-क्षेत्र को ही और बड़ा करना।
एक वर्ष का समय कम नहीं होता, बशर्ते हम सबक लेना चाहें कि हम पहुंचे कहां? इस बीच यौन अपराधियों के विरुद्ध कानूनी ढांचा मजबूत हुआ, पर स्त्री की सुरक्षा की कानूनी मशीनरी ज्यों की त्यों अप्रभावी दिखी। बीते वर्ष में, सोलह दिसंबर 2012 के सामूहिक बलात्कार कांड के चलते, यौनिक हिंसा के मामलों में राज्य की मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त करने में विधायिका और कार्यपालिका के समांतर न्यायपालिका की पहलों की भी भूमिका अपूर्व ही गिनी जाएगी। दंड और कठोर किए गए, अनुसंधान और अभियोजन की प्रणालियां त्वरित की गर्इं,
और पुलिस बलों को पहुंच, संख्या और तकनीक के लिहाज से बेहतर बनाया गया। यानी राज्य के आरक्षी और विधिक प्राधिकार को मजबूत करने से स्त्री की सुरक्षा भी मजबूत होगी, सभी द्वारा यही निचोड़ मान लिया गया।
लिहाजा समाज के लिए, इस रास्ते पर चलते रहने का नतीजा एकदम विपरीत रहना स्तब्धकारी है। पर हुआ है कुछ ऐसा ही। उत्पीड़न और बलात्कार की बाढ़ जरा भी नहीं थमी। वर्ष भर के अनुभवों का सबक यही निकलेगा- राज्य मशीनरी का प्राधिकार बढ़ाने से स्त्री-सुरक्षा की प्रणाली प्रभावी या विश्वसनीय नहीं हुई। नए कानूनों ने राज्य को और सशक्त बनाया; और मीडिया-पहलों ने स्त्री को और मुखर किया, तो भी स्त्री के पूर्ववत अशक्त बने रहने और राज्य मशीनरी के असंवेदी होने से, उसकी सुरक्षा के नाम पर किए जाने वाले उपायों में दिशाहीनता ही अधिक दिखी है। इस महीने दिल्ली और कोलकाता में घटे दो चर्चित सामूहिक बलात्कार प्रकरणों से क्या सीख ली गई?
दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पुलिस को हरबलात्कारकांड के लिए जिम्मेदार चेताया और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हर बलात्कारी को खमियाजा भुगताने का वादा दोहराया। राजनीतिक वर्ग इसी तरह की मंशा का शिकार रहा है। अगर पुलिस उसके अधीन है तो वह बलात्कारियों पर बरसता है, वरना पुलिस उसके निशाने पर रहती है। अगले कांड तक चुप्पी रहेगी और फिर यही क्रम दोहराया जाएगा। दरअसल, जब बहुप्रचारित यौनिक हिंसा के मामलों में मात्र कठोरतम दंड और गहनतम निगरानी की मांग ही वातावरण में बुलंद रहती है, लगता है हम सबक सीखना ही नहीं चाहते।
यौनिक हिंसा के तमाम बहुचर्चित कांडों की भी गवाही है कि दंड की अतिरिक्त कठोरता से उत्पीड़ित का भला नहीं होता, और निगरानी करने वालों की निगरानी का राजकीय चक्रव्यूह स्त्री को आश्वस्त नहीं करेगा। बल्कि इनसे राज्य की असंवेदी मशीनरी को अपनी जवाबदेही छिपाने का कवच जरूर मिल जाता है। पिछले महीने चंडीगढ़ के
पांच बलात्कारी पुलिसकर्मियों को महज यौन अपराधी मान कर, उस प्रकरण को उनकी गिरफ्तारी, बर्खास्तगी और चालान/सजा तक सीमित करना प्रशासन की ऐसी ही ज्वलंत चूक है।
एक घरेलू मामले की शिकायतकर्ता स्कूली छात्रा की गुहार पर पुलिस नियंत्रण कक्ष द्वारा सहायता के लिए भेजे गए इन पीसीआर कर्मियों ने उस छात्रा की डांवांडोल स्थिति का फायदा उठाते हुए उसका यौन शोषण ही शुरू कर दिया। वे पहले भी ऐसे मामलों में इसी तरह के कुकृत्य कर चुके थे; इस छात्रा की शिकायत पर अब जाकर नंगे हुए। अधिकार-संपन्न पुलिस की इस टोली पर राज्य द्वारा अंतत: अधिकतम आपराधिक जवाबदेही- गिरफ्तारी, बर्खास्तगी, न्यायिक कार्यवाही- लादी गई। पर उत्पीड़ित का नजरिया अलग होगा- काश, इस टोली के स्थान पर स्त्री के प्रति एक संवेदी टोली रही होती!
राज्य के नजरिये से बनाए गए कार्य-स्थल पर यौनिक हिंसा रोकने के ‘विशाखा’ नियम उस छात्रा के काम नहीं आए, क्योंकि पुलिस विभाग ने पेशेवर सांडों को लैंगिक असमानता के संवेदनशील क्षेत्र में उतारा हुआ था। असंवेदी प्राधिकार को मजबूत करने की यह एक स्वाभाविक मिसाल है, जहां उत्पीड़ित को सुरक्षा मिलनी तो दूर, उसे राज्य की सुरक्षा मशीनरी के हाथों ही यौनिक शोषण मिला। जबकि, स्त्री को सशक्त करने के नजरिये से बनी कानूनी प्रणाली की पहली ही शर्त होती कि स्त्री का अपराध-न्याय व्यवस्था से संपर्क उसके प्रति संवेदी कर्मियों के माध्यम से ही होगा।
ऐसे में अव्वल तो पुलिसकर्मियों की सारी टोली बलात्कार में लिप्त नहीं हो सकती थी; संवेदीकर्मी एक-दूसरे के आचरण को नैतिक रूप से संतुलित करते, न कि, जैसा कि इस मामले में हुआ, एक दूसरे को पतन में धकेलते। दूसरे, ‘संवेदी’ अनुशासन में जवाबदेही केवल अपराध करने वाले पीसीआर-कर्मियों की नहीं बनेगी; बल्कि उन्हें बिना पूर्णत: लिंग-संवेदी बनाए कार्यक्षेत्र में उतारने वालों की और ज्यादा होगी।
अगर स्त्री के नजरिये से कानून की लक्ष्मण-रेखा खींचने की पहल की जाय तो कार्यस्थलों पर दुराचार की रोकथाम के जरूरी उपाय भी होंगे जो आज नदारद हैं। ऐसे उपाय कि उत्पीड़न के खतरे के सामने स्त्री मजबूती से खड़ी रहे, न कि उत्पीड़क के अवांछित व्यवहार को सहने की विवशता झेले। सवाल है ‘संवेदी पुलिस’ किसकी जरूरत है? पुलिस विभाग की? राजनीतिकों की? समाज की? स्त्रियों की? लोकतंत्र की? पुलिस विभागअपनी कार्यकुशलता आंकड़ों में दिखा लेता है; राजनीतिकों को अधीन पुलिस रास आती है; समाज लैंगिक बराबरी से बिदकता रहा है; स्त्रियों की नैतिक घेरेबंदी है; और लोकतंत्र को चुनावी कवायद का गणित चला रहा है।
केजरीवाल ने दिल्ली पुलिस को ठीक ही भ्रष्ट कहा है। ज्यादा समय नहीं बीता जब एक पुलिस आयुक्त खुले में थाने बेचता था और अपराध के आंकड़ों में मौखिक निर्देशों से हेराफेरी कराता था। कमोबेश हर राज्य में पुलिस की ऐसी ही कहानी है, क्योंकि मूलत: हमारी पुलिस समाज से कटी एक अलोकतांत्रिक व्यवस्था है। अगर परिवर्तन चाहिए तो पुलिस के लोकतंत्रीकरण की हिम्मत दिखानी होगी। लोकतंत्र, समाज को सशक्त करने की प्रणाली है और ‘संवेदी पुलिस’ इस लिहाज से सशक्त समाज की दिशा में लोकतांत्रिक पहल भी होगी। स्वाभाविक रूप से, यह उन आभासों के प्रति भी अधिक सटीक उपायों वाली सिद्ध होगी जो वातावरण में यौनिक खतरों के होने का संकेत करते हैं।