उम्र के जिस पड़ाव पर माता-पिता को अपने बच्चों की जरूरत होती है उस दौरान
बच्चे उनका साथ देने से कतराते हैं। 18.67 फीसदी ऐसे लोग माता-पिता को बोझ
मानते हैं। इतना ही नहीं, 86 फीसदी बुजुर्गों का कहना है कि बच्चों द्वारा
परेशान किए जाने पर उन्हें पुलिस व अदालत का दरवाजा खटखटाने में दिक्कतों
का सामना करना पड़ता है। डीयू के मनोविज्ञान विभाग का सर्वे इस बात की
तस्दीक करता है।
सीनियर सिटीजन एक्ट आधार
दिल्ली विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के प्रमुख एनके चड्ढा
ने बताया कि यह सर्वेक्षण मेनटेनंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरंट्स एंड सीनियर
सिटीजन एक्ट को आधार बनाकर किया गया। इस कानून से कितनों का फायदा हुआ,
बुजुर्ग व युवा क्या सोचते हैं, इन तमाम पहलुओं पर राय ली गई।
कानून का नहीं उठा पाते हैं लाभ
नतीजों के अनुसार, कानून का इस्तेमाल करने में कानून की तकनीकी
प्रक्रियाओं व समाज की चुनौतियों से निपटना पडम्ता है। नतीजतन, बुजुर्ग
कायदे से इसका लाभ नहीं उठा पाते हैं। यही नहीं, हैरानी की बात यह है कि 18
से 22 साल का 38 फीसदी युवा वर्ग मानता है कि यदि माता-पिता के साथ बुरा
बर्ताव होता है तो उन्हें अदालत से न्याय पाने की जगह घर में ही मसले
सुलझाने चाहिए। सर्वेक्षण में 30 से 45 साल के 40 प्रतिशत वयस्क लोगों की
भी इसी तरह बुजुर्गों द्वारा कानून का सहारा न लेने की राय है।
92.33 फीसदी बुजुर्गों का कहना है कि जो बच्चे अपने
माता-पिता की सेवा नहीं करते और परेशान करते हैं, ऐसे बच्चों को कानून के
तहत सजा दिलाना जायज है। इस बाबत किसी भी तरह की हिचक नहीं होनी चाहिए।
45.33 फीसदी बुजुर्गों का कहना है कि वह अपने परिवार से
खुश हैं और बुढ़ापा परिवार के साथ बिताने पर प्राथमिकता देते हैं। ऐसे
लोगों का यह भी मानना है कि उन्हें मजबूरन कानून का सहारा लेना पड़ता है।
पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव और व्यक्तिगत इच्छाएं हैं कारण: सर्वेक्षण में 75
फीसदी कहते हैं कि बच्चों द्वारा अपने बुजर्ग माता-पिता से अलग होने के दो
कारण हैं। पहला, पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव। पश्चिमी देशों की तरह देश में
लगातार संयुक्त परिवार का चलन खत्म हो रहा है। दूसरा, व्यक्तिगत इच्छाएं,
बच्चे व्यस्त दिनचर्या में समय नहीं दे पाते हैं और अपनी इच्छाओं को पूरा
करने में लगे रहते हैं। बता दें कि 50 फीसदी बुजुर्ग ही परेशानी की स्थिति
में बच्चों पर मामला दर्ज करा पाते हैं।