वर्ष 2014 में भारत की अर्थव्यवस्था के समक्ष पहली चुनौती महंगाई है.
इससे निबटना नयी सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेवारी होगी. पिछले तीन-चार वर्षो
से महंगाई की दर बहुत अधिक रही है. महंगाई की समस्या बहुआयामी है. यह अन्य
समस्याओं को भी जन्म दे रही है. इससे देश में बहुत बड़ा संकट आया है. अगर
सरकार इन चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम रही, तो भारत की
अर्थव्यवस्था उम्मीदों से भरी होगी. महंगाई को कम करने के लिए सरकार को नयी
नीति बनानी होगी. वह नीति कृषि के साथ ही सब्जी वगैरह के लिए भी बनायी
जानी चाहिए. क्योंकि खाद्यान्न के साथ ही सब्जी के दाम जिस तरह से बढ़े
हैं, उसने आम आदमी की कमर तोड़ कर रख दी है.
दूसरी बात, हमारा बजट घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है. वित्त मंत्री पी
चिदंबरम साहब शायद इसे चार से साढ़े चार प्रतिशत पर रोक सकें. लेकिन, हमें
यह भी देखना होगा कि उन्होंने कौन-कौन सा थोक भुगतान नहीं किया है, क्योंकि
आंकड़ों की बाजीगरी से बजट घाटा कम दिखाया जा सकता है. लेकिन, आंकड़ों की
ऐसी बाजीगरी आनेवाली सरकार के लिए मुसीबत का सबब बन सकती है. इससे आनेवाली
सरकार के ऊपर बड़ा आर्थिक बोझ पड़ सकता है. इसलिए नयी सरकार के वित्त
मंत्री को दो या तीन साल की रणनीति बनानी होगी, जिसका पहला लक्ष्य बजट घाटे
को कम करके शून्य के स्तर पर लाना होना चाहिए. क्योंकि इस घाटे से महंगाई
पर असर पड़ता है. तीसरी चीज, सरकार अभी नयी परियोजनाओं को हरी झंडी दिखा
रही है, लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि विकास दर को बढ़ाया जाये. देश
के कई उद्योगपतियों ने अपना पैसा विदेश भेज दिया है. इस पैसे को भारत वापस
लाने की जरूरत है. यह तभी हो सकता है जब सरकार उन निवेशकों के मन में
विश्वास बहाल करे. भारत में उनके पैसे के लाभकारी निवेश की गारंटी दे. यदि
सरकार ऐसा भरोसा देने में सफल होती है, तो इससे विदेशी पूंजी निवेश को
बढ़ाने में सफलता मिल सकती है. यदि यह निवेश आधारभूत संरचना के विकास में
लगे, तो देश के आर्थिक विकास की दिशा में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कदम साबित
होगा.
इसके साथ ही बेहद महत्वपूर्ण सेक्टर मैन्यूफैरिंग है. इस सेक्टर में
प्रोडक्शन बढ़ाना महंगाई पर काबू करने जितना ही जरूरी है. प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था में मैन्यूफैक्चरिंग के हिस्से को बढ़ाने की
बात की थी. उन्होंने इसे 15 से लेकर 25 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात कही थी,
लेकिन इस दिशा में कोई विशेष प्रगति नहीं दिख रही है. सरकार ने पॉलिसी जरूर
बनायी, लेकिन उसे ठीक से लागू नहीं किया गया, जिसका खामियाजा देश को उठाना
पड़ रहा है. इसलिए नयी सरकार यदि मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के लिए कोई नयी
पॉलिसी लाकर उसे इंपलीमेंट करती है, तो रोजगार सृजन में काफी मदद मिलेगी.
साथ ही इस सेक्टर का शेयर भी बढेगा. विशेष तौर पर अकुशल और अर्धकुशल
कामगारों के लिये इस सेक्टर में रोजगार के नये अवसर भी उपलब्ध होंगे.
इसके लिए श्रम कानून, भूमि अधिग्रहण कानून आदि में बदलाव कर इस दिशा में
ठोस कदम उठाना होगा.मेरी जानकारी के अनुसार भारत में एक फैक्टरी लगाने से
पहले लगभग 115 बार निरीक्षण किया जाता है. इन निरीक्षणों और लाइसेंस देने
की प्रक्रिया को थोड़ा सरल बना दिया जाये, तो बहुत काम आसान हो सकता है.
मेरे हिसाब से यदि मैन्यूफैक्चरिंग पर फोकस किया जाये, तो महंगाई और बजट
घाटे को कम करने में बहुत आसानी हो सकती है. यदि नयी सरकार इस दिशा में ठोस
कदम उठाती है, अच्छी पॉलिसी बनाती है और उस पर अमल करती है, तो इस वर्ष के
अंत तक देश की आर्थिक विकास दर आठ से साढ़े आठ प्रतिशत तक आ सकती है.
लेकिन भारत में पॉलिसी तो बना दी जाती है, पर उस पर अमल नहीं किया जाता है.
इससे पॉलिसी का लाभ आम आदमी को नहीं मिलता है. यदि नयी सरकार ईमानदारी से
पॉलिसी बनाये और उस पर अमल करे, तो चुनौतियां उम्मीदों में बदल सकती हैं.
सब्सिडी और जनकल्याण
भारत की अर्थव्यवस्था में सब्सिडी एक महत्वपूर्ण फैक्टर है. यहां एक दफा
सब्सिडी शुरू करने पर उसे बंद करना बहुत मुश्किल होता है. एक सरकार कोई
लोकलुभावन घोषणा कर देती है, तो दूसरी सरकार उसे बंद करने से पहले सौ दफा
सोचती है, क्योंकि भारत में सब्सिडी का अर्थशास्त्र विकास से कम, वोट बैंक
से ज्यादा जुड़ा है. इसलिये सरकार बदलने पर सबसे पहले यह सोचा जाना चाहिए
कि कौन सी सब्सिडी को जारी रखा जाये, किसे कम किया जाये और किसे बिल्कुल
बंद कर दिया जाये. सब्सिडी की घोषणा से पहले इस पर विस्तार से अध्ययन किया
जाना चाहिए. लेकिन सरकार सोचने-विचारने से पहले सब्सिडी का ऐलान कर देती
है. आखिर वह सब्सिडी किसके लिए जारी की जा रही है और उससे किनको भला होगा,
यह सिर्फ कागजों पर सोचने की चीज नहीं है. इसके लिए फील्ड में जाकर अध्ययन
करने की जरूरत है. इन्हें कौन सी एजेंसियां लागू करेंगी, ऐसी सभी बातों पर
ध्यान दिया जाना चाहिए. इसके बाद ही इस तरह की घोषणा की जानी चाहिए. डीजल
और भोजन पर सब्सिडी किसानों और आम आदमी को ध्यान में रखकर दी जा रही है,
लेकिन इसका लाभ किसे मिल रहा है? बीज और खाद पर मिलनेवाली सब्सिडी का लाभ
कितने किसान उठा रहे हैं? देखा गया है कि सब्सिडी का पैसा जरूरतमंदों तक
पहुंच ही नहीं रहा है.
नयी सरकार को इन बातों पर ध्यान देना होगा
चुनौतियों की बात करें, तो नयी सरकार को अनाज के भंडारण पर भी ध्यान
देना होगा. हमारे पास गेहूं और चावल का बड़ा भंडार है. इन खाद्यान्नों के
न्यूनतम समर्थन मूल्य को कम किया जा सकता है. भोजन का अधिकार कानून लागू कर
दिया गया है. लेकिन अभी देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली ठीक नहीं है. फिर
सवाल है, कि इसका लाभ सही लोगों तक कैसे पहुंचेगा! सवाल यह भी है कि इतने
व्यापक पैमाने पर खाद्य सुरक्षा देना जरूरी है या नहीं! देश में मनरेगा भी
चल रहा है. उसमें भी पैसे के लीकेज की बात सामने आ रही है. मेरा साधारण
शब्दों में यह कहना है कि आम जन के हित की बात कह कर जो सब्सिडी सरकार दे
रही है, उसका लाभजनताको मिल रहा है या नहीं, इसकी समीक्षा होनी चाहिए.
क्योंकि यदि पैसे बर्बाद हो रहे हैं, तो इससे न सरकार का भला हो रहा है और न
ही आम जनता का.
रेगुलेशन और डायरेक्ट कैश ट्रांसफर
भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए पॉलिसी के साथ ही रेगुलेशन
की भी जरूरत है. कोई भी योजना बगैर रेगुलेशन के ठीक ढंग से नहीं चल पाती.
पॉलिसी और सब्सिडी के मोरचे पर सरकार को बेहतर विनियामक ढांचा खड़ा करने की
जरूरत है. कई लोगों को यह लगता है कि यूपीए सरकार ने जो सब्सिडी दी है,
उसके पीछे जनकल्याण से ज्यादा वोटबैंक की चिंता है. मेरी राय है कि सब्सिडी
देने के बदले सभी सब्सिडी को एक साथ मिला कर लाभांवितों के खाते में
डायरेक्ट कैश ट्रांसफर जरूरतमंदों के लिए ज्यादा फायदेमंद होगा. पैसे लोगों
की जेब में जायेंगे और वे सोचेंगे कि उसे कैसे खर्च करना है. यदि हम चावल
देते हैं और लाभांवित सिर्फ गेहूं ही खाना चाहता है, तो उसके पास कोई
विकल्प नहीं है. इसीलिए सब्सिडी के बदले कैश ट्रांसफर ज्यादा अच्छा होगा.
पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में बहुत कुछ बर्बाद हो जाता है. बिहार में
डायरेक्ट कैश ट्रांसफर हो रहा है और इसका नतीजा भी अच्छा सुनने को मिल रहा
है.
आर्थिक विकास और भ्रष्टाचार
भारत में भ्रष्टाचार पर लगाम कसना बहुत ही मुश्किल दिख रहा है. यह काम
सिर्फ कानून बनाने से नहीं हो सकता है. सीबीआइ को और अधिक अधिकार देने और
लोकपाल सहित लोकायुक्त गठन की बात हो रही है. लेकिन इससे ही भ्रष्टाचार को
मिटाना मुमकिन नहीं है. मुङो लगता है कि कहीं न कहीं इसके पीछे हमारी
सांस्कृतिक गिरावट का भी हाथ है. भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कुछ नहीं बोलता
है. हमारे धर्मो में भी अपने मोक्ष की चिंता करने की बात है. दूसरे को भी
मोक्ष कैसे मिले इस पर कोई सोचता-विचारता नहीं है. आप किसी भी तरह से पैसे
कमाओ, लेकिन उसका कुछ हिस्सा मंदिर-मसजिद-गुरुद्वारे और चर्च में दे दो, तो
आपके पाप धुल जायेंगे. यह नैतिकता बहुत ही गलत है. भ्रष्टाचार के प्रति
हमारा नजरिया क्या है, हमारी सोच क्या है, तथा भ्रष्टाचारियों के खिलाफ
समाज क्या सोचता है, यह बहुत महत्वपूर्ण है. समाज में आज भी भ्रष्टाचारियों
का सोशल बायकॉट नहीं किया जा रहा है. भ्रष्टाचारी अपने समाज के लिए या
अपने गांव के लिए कुछ अच्छा काम कर दें, तो फिर पूरा समाज उसका गुणगान करने
लगता है. लोग यह कहते भी आपको सुनाई देंगे कि उसने बाहर कुछ किया हो, उससे
हमें क्या मतलब? यहां के लिए तो वह अच्छा कर रहा है. बहुत सारे लोग मेरे
इस विचार से सहमत नहीं हो सकते हैं, लेकिन मुङो लगता है कि हमारे यहां
टॉलरेंस ऑफ करप्शन (भ्रष्टाचार के प्रति सहनशीलता) बहुत ही ज्यादा है. कोई
भ्रष्ट किसी मंदिर में चढ़ावा चढ़ा देता है, सिर्फ इतने से ही लोग उसकी
इज्जत करने लगते हैं. कोई भ्रष्ट अगर पकड़ा जाये, तो समाज उसका बहिष्कार
नहीं करता है. किसी न किसी को बताना पड़ेगा कि इस करप्शन से समाज को बहुत
नुकसान होता है.
छोटे-छोटे करप्शन पर लगे रोक
हम बड़े करप्शन की तो खूब बातकरते हैं, लेकिन मुङो लगता है कि हमारी
चिंता में छोटे-छोटे करप्शन सबसे आगे होने चाहिए. हमें इन पर लगाम लगाना
चाहिए. रिक्शा-ठेला चलाने, रेहड़ी लगाने के लिए लाइसेंस बनवाने के लिए,
राशन कार्ड बनाना, जन्म-मृत्यु प्रमाण-पत्र, बीपीएल सूची में नाम दर्ज
कराना आदि कई ऐसे छोटे-मोटे काम हैं, जहां पर करप्शन की कोई गुजाइंश नहीं
होनी चाहिए. मुङो बड़े करप्शन की तुलना में छोटे-छोटे करप्शन की चिंता
ज्यादा है. क्योंकि ये छोटे-छोटे भ्रष्टाचार आम आदमी और मध्यम वर्ग के जीवन
को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं. यदि सरकार इस ‘पेटि करप्शन’ पर लगाम
लगाने के लिए कुछ नया कर सके, तो यह आर्थिक विकास की दिशा में बड़ा कदम
साबित हो सकता है. ऐसे करप्शन यदि रुक जाएं, तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था में
उम्मीद की किरण साबित हो सकता है. तीन-चार साल पहले मैंने भारत के संदर्भ
में ट्रासपरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट पढ़ी थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि
गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करनेवाले परिवार हर साल 800 करोड़ रुपये घूस
में देते हैं. गरीबी रेखा से नीचे रहनेवाले लोगों के लिए यह बहुत बड़ी रकम
है. यदि इस रकम को ही उन लोगों के विकास पर खर्च किया जाये, तो कई समस्याएं
खुद-ब-खुद दूर हो जायेंगी. यानी गरीबों के लिए जो काम मुफ्त में होना
चाहिए उन कामों से अगर रिश्वतखोरी को दूर कर दिया जाये, तो बहुत सारी
समस्याओं का हल निकाला जा सकता है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी जिस तरह का
भ्रष्टाचार के खिलाफ एक माहौल बना रही है, उस तरह का माहौल पूरे देश में
बनना चाहिए. इसके लिए फोन नंबर, हेल्प लाइन नंबर, इमेल वेब साइट, डाक आदि
का सहारा लिया जा सकता है. साथ ही ऐसे मामले का निपटारा तुरंत होना चाहिए,
जिससे पीड़ित व्यक्ति को न्याय मिल पाये. इससे भ्रष्टाचारियों के मन में एक
डर पैदा होगा. साथ ही भ्रष्टाचार में कमी भी आयेगी.
बाजार का प्रभाव
अर्थव्यवस्था में सुधार और विकास के लिए बाजार को स्वतंत्रता मिलनी
चाहिए. स्वतंत्रता के साथ ही उसे अच्छी तरह से रेगुलेट भी करना चाहिए.
उदाहरण के लिए भारत में सेबी(सेक्यूरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया)
है. सेबी के पास स्टॉक मार्केट पर नजर रखने की शक्ति है. उसका काम यह देखना
है कि कोई घोटाला न करे. हालांकि, बाजार को ठीक ढंग से चलने की आजादी भी
देनी चाहिए. लेकिन, आजादी के साथ ही मॉनिटरिंग और रेगुलेशन पर ध्यान देने
की भी जरूरत है. बैंकों का विस्तार किया जाना चाहिए. इनकी शाखाएं हर जगह
खोली जानी चाहिए. इन्हें लाइसेंस देने की प्रक्रिया को सरल किया जाना
चाहिए. लेकिन बैंकों के जो नॉन परफार्मिग एसेट्स हैं, उसका ध्यान रखा जाना
चाहिए. बैकों में करप्शन नहीं हो. यानी फ्री मार्केट के साथ ही रेगुलेशन की
अनिवार्यता होनी चाहिए. गबन और अपराध के लिए जिस तरह का रेगुलेशन जरूरी
है, उसी तरह का रेगुलेशन आर्थिक एजेंडा में भी शामिल होना चाहिए. चाहे वह
घरेलू पूंजी हो या विदेशी पूंजी. एक बेहतर और साफ-सुथरी विनियामक प्रणाली
का निर्माण किया जाना चाहिए. जिसे ‘गुड रेगुलेशन’ कहा जा सके. हमारे यहां
कृषि भी इस अर्थ में रेगुलेटेडहै किसभी किसानों को मंडी में ही अपना
उत्पाद बेचना चाहिए. कई किसान अपना उत्पाद सीधे बाजार में बेचना चाहते हैं.
इसलिए किसानों को भी यह स्वतंत्रता मिलनी चाहिए कि वह अपने समान को जहां
बेचना चाह रहे हैं, वहां बेच सकें. यानी किसी भी चीज को फ्री करने के साथ
ही उसे रेगुलेट करने का सिस्टम विकसित होना चाहिए. अन्यथा आप कितना भी उदार
काननू बना दीजिये, उसमें लीकेज की समस्या बनी रहेगी.
वैश्विक परिदृश्य और भारत
अन्य देशों में आर्थिक स्थिति सुधर रही है. अमेरिका, इंग्लैंड में ग्रोथ
वापस आ गया है. चीन का ग्रोथ भी आने वाले दिनों में अच्छा होगा. मुङो लगता
है कि सिर्फ यूरो जोन (यूरोपीय देश) में ही हालात अभी ठीक नहीं हैं. लेकिन
देर-सबेर वहां भी हालत सुधरेंगे. विश्व के अन्य देशों की बेहतर आर्थिक
स्थिति का लाभ भारत को मिलने की उम्मीद की जा सकती है.
आर्थिक विकास और राजनीतिक दल
किसी भी देश के आर्थिक विकास में वहां के सत्ताधारी दलों का बहुत बड़ा
महत्व होता है. भारत के संदर्भ में मुङो लगता है कि हमारी पार्टियों को
आर्थिक विकास के क्षेत्र में सिर्फ सब्सिडी देने में रुचि है. इसलिए जो भी
सरकार आये, एक ऐसा रोल मॉडल पेश करे, जो अन्य पार्टियों को भी अपनाना पड़े.
ऐसी नीति बना कर उसे लागू करें, जो भारत की जनता के हित में हो. वह नीति
संपूर्णता में हो. किसी व्यक्ति विशेष या क्षेत्र विशेष को ध्यान में रख कर
न बनाया जाये. न ही वोट बैंक को ध्यान में रखकर.
मौजूदा अनुमान केंद्र में भाजपा की अगुवाई में सरकार बनने और
प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिहाज से नरेंद्र मोदी के सबसे आगे चलने
की बात कर रहे हैं. भाजपा गुजरात में नरेंद्र मोदी के विकास को भुनाने की
पूरी कोशिश कर रही है. मेरा साफ तौर पर मानना है कि यदि भाजपा सरकार बनाती
है, तो उसे आर्थिक विकास की दिशा में ठोस नीति बनाने के साथ ही उस पर अमल
करना होगा. यदि कांग्रेस आती है, तो उसे अपने नीतियों पर पुनर्विचार करना
होगा.
(बातचीत : अंजनी कुमार सिंह)