बीते सात वर्षों में जिन किसानों ने खेती छोड़कर वैकल्पिक रोजगार अपना लिया
था, आगामी कुछ महीनों में उनमें से डेढ़ करोड़ किसानों के थक-हारकर अपने
गांव लौट आने की संभावना है। सामान्य स्थितियों में इतने बड़े स्तर पर
किसानों के शहरों से गांव लौटने को समावेशी विकास का संकेत माना जाता।
लेकिन अर्थशास्त्री इस यू-टर्न को आर्थिक मंदी का नतीजा बता रहे हैं।
क्रिसिल ने भी अपनी रिपोर्ट में इसे आर्थिक मंदी का संकेत बताया है, जिसके
कारण लोग अपने गांवों में लौटने को मजबूर हैं।
वर्ष 2005 से 2012 के
बीच अनुमानतः 3.7 करोड़ किसानों ने खेती छोड़ दी। अर्थशास्त्रियों ने इस
प्रवृत्ति को आर्थिक विकास का संकेत माना। यानी जब सालाना 50 लाख किसान
मजबूरन खेती छोड़ रहे थे, तब कृषि क्षेत्र में बढ़ती बेरोजगारी को आर्थिक
विकास बताया जा रहा था! कृषि क्षेत्र में बढ़ती बेरोजगारी और वहां से
विस्थापित लाखों लोगों का वैकल्पिक रोजगार जुटाना भला आर्थिक विकास कैसे हो
सकता है?
इसके बावजूद हमें बताया गया कि गैर-कृषि क्षेत्र में
अनुमानतः 70 लाख रोजगार का सृजन किया गया। गौरतलब है कि ज्यादातर गैर-कृषि
रोजगार निर्माण के क्षेत्र में हैं। जो हमें नहीं बताया जा रहा है, वह यह
कि ये छोटे-मोटे रोजगार तात्कालिक हैं और किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा का
भार वहन नहीं करते। निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिक दिहाड़ी होते
हैं और यहां काम पाने वाले किसानों के लिए यह स्थायी रोजगार नहीं है।
यह
सब तब हो रहा है, जब मानसून की प्रचुरता के कारण इस वर्ष खाद्यान्न का
रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है। वास्तव में वर्ष 2013-14 में कृषि भारतीय
अर्थव्यवस्था के लिए संकटमोचक साबित होने जा रही है। ऐसे समय में जब हर तरफ
निराशा का माहौल है-उम्मीद के मुताबिक औद्योगिक उत्पादन नहीं हो रहा है,
मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में गिरावट आई है, बेरोजगारी बढ़ी है, वित्तीय
घाटा बहुत बढ़ गया है और चालू खाते का घाटा चिंताजनक स्तर तक बढ़ा है- कृषि
ही है, जो उम्मीद की झलक दे रहा है। फिर भी कृषि क्षेत्र से आबादी को बाहर
करने के लिए तमाम प्रयास किए जा रहे हैं।
इस वर्ष चावल एवं गेहूं
का भंडारण अब तक का सर्वाधिक 823 लाख टन हुआ है। अनाज निर्यात बढ़कर 200
लाख टन तक पहुंच गया है। भारत चावल का सबसे बड़ा निर्यातक बनकर उभरा है और
कृषि निर्यात बड़े पैमाने पर बढ़ा है। इसके बावजूद कृषि सबसे उपेक्षित
क्षेत्र है। खुद प्रधानमंत्री भी मानते हैं कि देश कृषि संबंधी भयानक
संकटों से जूझ रहा है। औसतन प्रतिदिन 2,500 किसान खेती छोड़कर भूमिहीन
मजदूरों की जमात में शामिल हो रहे हैं।
मुझे किसानों को उनकी
थोड़ी-सी जमीन से वंचित करने के पीछे का आर्थिक तर्क कभी समझ में नहीं आया।
जब कृषि क्षेत्र सबसे बड़ा नियोक्ता हो सकता है, तब नीति-निर्माता उसे और
ज्यादा उत्पादक और आर्थिक रूप से व्यवहार्य पेशा बनाने की कोशिश क्यों नहीं
करते? किसानों को उच्च आय मुहैया क्यों नहीं कराई जाती, ताकि वे खेती पर
टिके रहें? ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी आबादी का विस्थापन शहरों की बर्बादी
को ही बढ़ावा देता है और रोजगार के अभाव के मौजूदा दौर में येकिसान केवल
रियल एस्टेट और निर्माण उद्योग के लिए सस्ता और आसान श्रम ही उपलब्ध कराते
हैं। खेती से ज्यादा लोगों को बाहर करने से केवल गरीबी और छिपी हुई
बेरोजगारी ही बढ़ेगी।
खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू करने का उद्देश्य
मात्र भीषण महंगाई के अतिरिक्त बोझ को कम करना ही नहीं है, बल्कि खाद्यान्न
के लिए होने वाली उस संभावित छीनाझपटी को भी कम करना है, जो आबादी के एक
बड़े वर्ग को उनकी आजीविका से वंचित करने के कारण भविष्य में संभव हो सकती
है। सरकार मान रही है कि खाद्यान्न की जरूरतों को आयातित अनाज से पूरा किया
जाएगा और उद्योगों, रियल एस्टेट एवं हाई-वे के लिए जमीन अधिग्रहण पर बल
दिया जाएगा। वैसे में आबादी के लिए खाद्यान्न उत्पादन और भी ज्यादा कठिन हो
जाएगा। जबकि इसके संकेत मिल रहे हैं कि भारत अगले तीन वर्षों में चावल का
आयातक बन जाएगा।
दो वर्ष पहले देश की आर्थिक विकास दर 9.3 फीसदी थी,
जो 2013 में घटकर पांच फीसदी से भी कम रह गई है। उम्मीद तो यही है कि कृषि
क्षेत्र का विकास 2013-14 में जीडीपी को ऊपर उठाएगा। विकास दर में गिरावट
उद्योग एवं विनिर्माण क्षेत्र के बुरे प्रदर्शन के कारण आई है। ऐसे में,
लोगों को खेती से वंचित करने का भला क्या औचित्य है?
इस वर्ष की शुरुआत
में योजना आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट देश के आर्थिक विकास के
अंतर्विरोधों को रेखांकित करती है। वर्ष 2005 से 2010 के दौरान जब विकास दर
आठ से नौ प्रतिशत थी, तब रिपोर्ट के मुताबिक 1.4 करोड़ लोग खेती से
विस्थापित हुए थे।
अमूमन यह माना जाता है कि जिन लोगों ने खेती
छोड़ी है, वे विनिर्माण क्षेत्र के कार्यबल में शामिल होंगे। लेकिन रिपोर्ट
बताती है कि विनिर्माण क्षेत्र में भी 57 लाख लोगों ने नौकरी गंवाई। साफ
संकेत है कि देश रोजगार विहीन विकास के दौर से गुजर रहा है।
2013
में ऐसा कुछ भी नहीं बदला है, जो रोजगार सृजन पर ध्यान केंद्रित करे। यह
जरूरी नहीं कि ज्यादा निवेश ज्यादा रोजगार पैदा करे। यह जो नया भूमि
अधिग्रहण कानून लागू हुआ है, उससे और भी अधिक लोग अपनी थोड़ी-सी जमीन से
वंचित होकर शहरों में छोटे-मोटे रोजगार तलाशने के लिए विवश होंगे। कॉरपोरेट
खेती को मल्टी ब्रांड रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जोड़ने पर देश
का कृषि क्षेत्र भी सबसे बड़ा नियोक्ता नहीं रह जाएगा। राजनीतिक एवं
सामाजिक रूप से इससे ज्यादा विनाशकारी और कुछ नहीं हो सकता। वह समय कब
आएगा, जब हमारे नीति नियंता विकास केंद्रित अर्थनीति पर समावेशी अर्थनीति
को तरजीह देंगे?
खेती छोड़कर वैकल्पिक रोजगार अपनाने को हमारे
अर्थशास्त्री आर्थिक विकास मानते हैं, जबकि क्रिसिल की एक रिपोर्ट बताती है
कि रोजगार के अभाव में खेती छोड़ चुके डेढ़ करोड़ लोगों के पास वापस गांव
लौटने के सिवा विकल्प नहीं है।
देविंदर शर्मा
जाने-माने कृषि विशेषज्ञ
edit@amarujala.com