कुछ साल पहले की बात है। दिल्ली जाने पर मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
में अर्थशास्त्र के एक प्राध्यापक से मिलने गया था। चर्चा के दौरान मैंने
कहा कि पांचवें-छठे वेतन आयोग ने प्रथम और द्वितीय श्रेणी के
अफसरों-प्रोफेसरों के वेतन बहुत बढ़ाए हैं, जिससे समाज में गैरबराबरी और
उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा मिला है। उन्होंने तुरंत उसका बचाव करते हुए
कहा कि वेतन बढ़ाना जरूरी है, नहीं तो विश्वविद्यालय में अच्छे लोग टिकेंगे
नहीं। वह प्रगतिशील और समाजवादी रुझान के अर्थशास्त्री माने जाते हैं और
वैश्वीकरण-बाजारीकरण की नीतियों के आलोचक हैं, इसलिए मेरे लिए यह थोड़ी
हैरानी की बात थी।
दिवंगत समाजवादी चिंतक किशन पटनायक जैसे लोग और
देश के किसान संगठन लगातार वेतन आयोगों की सिफारिशों का विरोध करते रहे
हैं। महाराष्ट्र के किसान नेता और एक वक्त किसान संगठनों की अंतरराज्यीय
समन्वय समिति के अध्यक्ष रहे विजय जावंधिया ने हाल ही में एक लेख में लिखा
है कि वेतन आयोगों ने कर्मचारियों-अफसरों के वेतन जितने बढ़ाए हैं, उसी
अनुपात में किसान की आमदनी बढ़ानी है, तो गेहूं का मूल्य 2,835 रुपये और
कपास के दाम 20,240 रुपये प्रति क्विंटल करने होंगे। क्या देश इसे मंजूर
करेगा?
दोनों तरफ के तर्कों में दम है। यह सरकार पर निर्भर करता है
कि वह किसको महत्व देती है। यानी यह इस पर निर्भर करता है कि किसकी लॉबी
तगड़ी है और सत्ता में किसकी ज्यादा चलती है। हमारी अर्थव्यवस्था में मौजूद
कई द्वंद्वों में से यह एक है। अमीर-गरीब, गांव-शहर, खेती-उद्योग,
सवर्ण-दलित, स्त्री-पुरुष, विकसित-पिछड़े राज्य, पूंजीपति-मजदूर जैसे कई
द्वंद्व हमारे समाज में मौजूद हैं।
एक दूसरा उदाहरण लें। विश्व
व्यापार संगठन बनने के बाद मुक्त व्यापार की जय-जयकार के बीच हमारी सरकार
‘निर्यात-आधारित विकास’ की नीति पर चलती रही है। लेकिन निर्यात बढ़ाने और
दुनिया की गलाकाट अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में टिकने के लिए जरूरी है कि
कारखानों में पैदा होने वाले माल की लागत कम रखी जाए। इसके लिए जरूरी है
कि मजदूरी कम रहे, मजदूर आंदोलन को दबाकर रखा जाए और मजदूर-हितैषी
नियम-कानूनों को शिथिल किया जाए। यह भी आवश्यक है कि प्रदूषण रोकने पर जोर न
दिया जाए, क्योंकि इससे कंपनियों की लागत बढ़ती है।
जाहिर है, आप
मजदूर और पूंजीपति, दोनों को खुश नहीं रख सकते। एक तरफ निर्यात और
राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर बढ़ाने और दूसरी तरफ पर्यावरण या मजदूरों के
हितों की रक्षा करने के काम एक साथ नहीं हो सकते। गुड़गांव-मानेसर में
मारुति कंपनी के मजदूरों का जिस तरह दमन हुआ, वह इस विकास नीति का ही
हिस्सा है। पिछले दो दशकों से हर राज्य सरकारें विकास के लिए कंपनियों को
बुलाती रही हैं। वे ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट आयोजित करती हैं। पर इन
कंपनियों के आने से जल-जंगल-जमीन को लेकर अनेक झगड़े खड़े हो गए हैं।
दरअसल
तीव्र औद्योगिकीकरण के लिए खनिज, जमीन और जल की बड़े पैमाने पर जरूरत पड़ती
है। लेकिन ये चीजें बहुतायत में जहां मिलती हैं, वहां इन पर आदिवासियों,
किसानों, मछुआरों आदि की जिंदगी टिकी हुई है। इसलिए उनके आंदोलन खड़े हो
जाते हैं। अब या तो औद्योगिकीकरण किया जाए या प्रकृति और प्रकृति से जुड़े
समुदायों को बचाया जाए। जो सरकार दोनों करनेका दावा करती है, वह स्पष्टतः
झूठ बोलती है।
इनको हल करने का तरीका यही है कि नए तरह के वैकल्पिक
विकास के बारे में सोचा जाए। देश की मौजूदा पार्टियां इस बारे में नहीं
सोचतीं, तो इसके दो कारण हैं। एक तो विकास का स्वरूप बदलने के लिए काफी बड़े
बदलाव की जरूरत होगी, जिसका साहस इनमें नहीं है। दूसरे, इन पार्टियों के
नेताओं के निहित स्वार्थ मौजूदा विकास नीति में हैं। वे जिस तबके से आते
हैं, उसका हित इसी में है। हैरानी की बात यही है कि इस वक्त देश में
वैकल्पिक राजनीति का दावा करने वाली जो नई पार्टी उभर कर आई है, वह भी इन
मुद्दों पर मौन है। उसने भ्रष्टाचार और पानी-बिजली का मुद्दा सफलतापूर्वक
उठाया है। उसने राजनीति में स्वच्छता, पारदर्शिता, सादगी और वायदे पूरे
करने पर जोर दिया है। पूंजी-माफिया-राजनीति के गठजोड़ को तोड़ने का साहस भी
उसने दिखाया है।
लेकिन मौजूदा व्यवस्था के कई बुनियादी सवालों पर वह
या तो चुप है या अस्पष्ट। खास तौर पर उसकी आर्थिक और विकास नीति साफ नहीं
है। दिल्ली और शेष देश में फर्क है। यदि आम आदमी पार्टी दिल्ली की सफलता को
देश के स्तर पर दोहराना चाहती है, तो केवल भ्रष्टाचार की बात करने से काम
नहीं चलेगा। देश की जनता के सामने कई सवाल हैं। जैसे, गरीबी कैसे दूर होगी?
मौजूदा ‘उद्यमहीन’ विकास चलता रहा, तो बेरोजगारी दूर होगी या बढ़ेगी?
विस्थापन का सिलसिला कैसे रुकेगा? गांव कैसे बचेगा? पर्यावरण कैसे बचेगा?
केवल
जनलोकपाल बन जाने या ईमानदार लोग चुनकर जाने से ये समस्याएं हल हो जाएंगी,
ऐसा मानना भोलापन है और इतिहास के अनुभव के खिलाफ भी है। व्यक्तिगत रूप से
ईमानदार तो जवाहरलाल नेहरू और मोरारजी देसाई भी थे, और आज मनमोहन सिंह भी
हैं। लेकिन उनकी गलत नीतियों, विकास की गलत सोच और आर्थिक-सामाजिक ढांचों
को बदलने की अनिच्छा ने देश को मौजूदा हालत में पहुंचा दिया है। यदि इन
अनुभवों से सबक नहीं लिया, तो कहीं इतिहास फिर अपने को दोहराने न लगे।
2014
में एक बार फिर 1977 जैसा माहौल बन रहा है। लेकिन यदि हम 1977 से आगे न
बढ़े और पुरानी कमियों को दुरुस्त नहीं किया, तो खतरा इस बात का है कि
युवाओं की यह ऊर्जा और मेहनत बेकार चली जाएगी।