भारतीय आइटी उद्योग उत्तर अमेरिका से सरक कर यूरोप की ओर जा रहा है.
2014 में इस तरह की भविष्यवाणी से अमेरिका की भृकुटी तन गयी है. नास्कॉम के
अध्यक्ष सोम मित्तल की सुनिये, तो यूरोप भारतीय आउटसोर्सिस सेवा को इस साल
अपनी ओर आकर्षित करेगा, जिससे सिर्फ आइटी सेक्टर से 108 अरब डॉलर के लाभ
की उम्मीद की जा सकती है. क्या इसके लिए 22 से 25 जनवरी तक दावोस में होने
वाले ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम’ की सालाना बैठक में भूमिका बनायी जा रही है?
दावोस जानेवाली छह सदस्यीय भारतीय टीम को वित्त मंत्री पी चिदंबरम और शहरी
विकास मंत्री कमलनाथ नेतृत्व दे रहे हैं. इस टीम ने अभी पत्ते नहीं खोले
हैं कि दावोस में उनकी रणनीति क्या होगी.
चार दिनों तक चलनेवाली दावोस बैठक में 100 देशों के 2,500 प्रतिनिधि
इकट्ठे होंगे. इनमें से कोई 1,500 बिजनेस लीडर्स पधारेंगे. इस साल भी 40
देशों के शासनाध्यक्ष, 64 मंत्री, 30 अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रमुख, 219
पब्लिक फीगर, सिविल सोसाइटी के 432 सदस्य, 150 अकादमिक हस्तियां, 15
धार्मिक नेता, 11 यूनियन लीडर और इसे कवर करनेवाले विभिन्न माध्यमों के कोई
500 पत्रकार दावोस की शान बढ़ायेंगे. वक्त-वक्त की बात है. 1997 में एचडी
देवगौड़ा प्रधानमंत्री रहते दावोस सम्मेलन में गये, तो उन्हें वहां कोई
पूछनेवाला नहीं था. लेकिन अब दावोस फोरम में साल-दर-साल पहुंचनेवाले भारतीय
चेहरों से लोग परिचित हो चुके हैं. निवेश करनेवाली कंपनियों के सीइओ और
सरकारों के नुमाइंदे भारतीय प्रतिनिधियों की सुनते हैं, और एमओयू पर
हस्ताक्षर करते हैं. यही फर्क पिछले 17 वर्षो में आया है.
पिछले साल पूरी दुनिया से दावोस पहुंचे 1,330 सीइओ में से 36 प्रतिशत ने
मान लिया था कि मंदी ने उनके आत्मविश्वास को डिगा रखा है. प्रिंसवाटरहाउस
कूपर नामक एक अमेरिकी कंपनी ने दुनिया भर के 1,330 सीइओ से किये
साक्षात्कारों के हवाले से निष्कर्ष दिया था कि इन लोगों को अपने कारोबार
के पनपने का भरोसा नहीं है. ‘कूपर’ के इस सर्वेक्षण में यूरोपीय कंपनियों
के मालिकान सबसे अधिक निराश दिखे थे. इसी तरह उत्तर अमेरिका में उद्योग
व्यापार चलानेवालों का विश्वास डिगा था. उत्तर अमेरिका के 33 प्रतिशत सीइओ
मान रहे थे कि 2013 में कमाई नहीं होगी. यही नकारात्मक सोच एशिया के 36
प्रतिशत व्यापार दिग्गजों की रही थी. मंदी के दौर में जिस अफ्रीका को अगला
व्यापारिक ठिकाना मानने का भ्रम लोगों ने पाला था, वहां भी उद्योग-व्यापार
के तेवर ढीले हो गये थे. क्या यही सब कारण है कि 2014 में यूरोपीय कंपनियां
भारतीय आइटी उद्योग पर अपने दांव लगा रही हैं?
खाली बैठे लोगों को 2013 में रोजगार मिलने की जो उम्मीद थी, वह पूरी
नहीं हुई. हर साल की तरह 2013 बैठक में सिर्फ बड़े-बड़े वायदे किये गये थे.
साल देखते-देखते निकल गया, लेकिन लोगों की आशाएं पूरी नहीं हुईं. इस बार
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए यह खबर अच्छी नहीं है कि भारतीय आइटी
कंपनियां अपना ठिकाना बदल रही हैं. साल के आखिरी महीने में भारत से हुई
कूटनीतिक कड़वाहट भी अमेरिका से व्यापार समेटने का सबब बना है. लेकिन जब तक
ओबामा प्रशासन ‘डैमेज कंट्रोल’ करेगा, तब तक भारतीय कंपनियां फुर्र हो
/>
चुकी होंगी. विश्व आर्थिक मंच क्या इस बार अमेरिका बनाम यूरोप की बहसबाजी
मे फंसेगा, वह भी भारत के कारण? यह एक बड़ा सवाल है.
अमेरिका-ईरान संबंध के कारण दक्षिण-पश्चिम एशिया की भू-राजनीतिक
परिस्थितियां बदलने लगी हैं. ईरान और अमेरिका एक-दूसरे के करीब और जायेंगे,
इसे देखते हुए भारत को अपनी पेट्रोलियम नीति के अनुपालन में सतर्क रहना
होगा. कल तक हम रुपये, बासमती चावल और दूसरी सामग्री के बदले ईरान से तेल
आयात करते थे, लेकिन अब ईरान पेमेंट का 55 प्रतिशत यूरो में चाहता है.
यूरो, डॉलर के मुकाबले और मजबूत स्थिति में रहा है, इससे भारत के लिए
मुश्किलें पैदा होंगी. भारत ने 2013 में करीब आठ अरब डॉलर का कच्चा तेल
ईरान से आयात किया था, जबकि 2012-13 में भारत से 3.7 अरब डॉलर की सामग्री
ईरान भेजी गयी थी. प्रतिबंध उठने के बाद हम ईरान से ज्यादा से ज्यादा कच्च
तेल मंगाने की स्थिति में हैं, लेकिन अब यह शायद रुपये में न मिले. भारत
में तेल की कीमतें यदि काबू से बाहर हुईं, तो इसके पीछे अमेरिका-ईरान की
नयी दोस्ती एक वजह होगी.
ईरान यदि अपनी नजरें फेरता है, तो उसकी एक और वजह भारत-इजराइल संबंध भी
है. इजराइल अमेरिका से इस वास्ते खुंदक में है कि उसने उसके चिर शत्रु ईरान
के लिए सिविल नाभिकीय सुविधाओं का मार्ग प्रशस्त कर दिया है. इसलिए इजराइल
ने अपनी प्रतिरक्षा निर्यात की प्राथमिकताएं बदल दी हैं. इजराइल, भारत का
नंबर एक हथियार निर्यातक देश बनना चाहता है. पहले नंबर पर रूस रहा है. भारत
को अपनी सीमाओं की निगरानी के लिए जिस किस्म के फाल्कोन, अवाक्स और यूएवी
चाहिए, उसकी उन्नत किस्में इजराइल में बनती हैं. इजराइल आतंकवाद को काबू
करने की तकनीक में भी अव्वल रहा है, इसलिए भारत को अपनी घरेलू जरूरतों के
अनुसार प्रतिरक्षा आयात नीति भी बदलनी होगी. यों भी भारतीय राजनीति में
‘नमो-नमो’ की गूंज यूरोप-अमेरिका के साथ मध्य एशिया तक पहुंच चुकी है. भारत
स्थित विदेशी दूतावास जिस तेजी से भावी सत्ता प्रतिष्ठान के इर्द-गिर्द
मंडरा रहे हैं, उससे संकेत मिलता है कि भारत में आम चुनाव के बाद 2014 का
आर्थिक भूगोल बदलनेवाला है. भारत अब सिर्फ अमेरिका का एक बड़ा बाजार बन कर
नहीं रह जायेगा.
अब भारत भी हथियार निर्माण, उपग्रह प्रक्षेपण से लेकर उपभोक्ता सामग्री
के निर्यात के लिए एक बड़े बाजार की तलाश में उतर रहा है. उसकी वजह चीन है.
चीन, निर्यात के भरोसे नहीं रह कर खुद के उपभोक्ता बाजार को समृद्घ करने
पर जोर दे रहा है. निर्यात वाली जगह को भरने में भारत पीछे क्यों रहे?
लेकिन विदेशी बाजार को सुचारु रूप से चलाने के लिए शांत पड़ोस की आवश्यकता
है. बांग्लादेश में चुनाव और अमन एक बड़ी चुनौती है. पड़ोसी पाकिस्तान,
श्रीलंका, नेपाल, मालदीव, म्यांमार, भूटान, चीन से बेहतर रिश्ते के लिए
हमारा विदेश मंत्रलय क्या सचमुच किसी विजन के साथ है, या वहां भी ‘हैप्पी
न्यू इयर’ से अधिक कुछ नहीं हो रहा है?