महंगाई के मोरचे से आ रही खबरों को देखते हुए लगता
नहीं कि निकट भविष्य में इसकी मार से छुटकारा मिलेगा. ताजा आंकड़ों के
मुताबिक खाद्य-पदार्थो, विशेषकर सब्जियों, की कीमतों में खासी तेजी आयी है.
इससे थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति नवंबर में बीते 14 माह की
रिकॉर्ड ऊंचाई पर रही. सब्जियों की महंगाई का आलम यह है कि अक्तूबर से
नवंबर के बीच कीमतों में तकरीबन 17 फीसदी का इजाफा हो गया है.
पिछले साल के नवंबर महीने की तुलना में इस साल नवंबर
में आलू की कीमतें 26 फीसदी ऊंची रहीं, तो प्याज की कीमतें 190 प्रतिशत.
मांस-मछली, दूध, अंडे आदि की कीमतों में इतनी विकराल तेजी भले न आयी हो, पर
इनकी कीमतों में भी पिछले एक साल में 6 से 15 फीसदी का इजाफा हुआ है. फिर
एक साल ही क्यों, बीते चार सालों में महंगाई लगातार बढ़ी है, परंतु यूपीए
सरकार ने सिर्फ लाचारी का ही इजहार किया है, यह कह कर कि वैश्वीकरण के दौर
में अगर वैश्विक बाजारों में चीजों के दाम बढ़ रहे हैं तो भारत में भी
बढ़ेंगे.
पेट्रोलियम पदार्थो के मामले में यह बात एक हद तक सच
है, लेकिन खाद्य-पदार्थो के मामले में नहीं. वैश्विक संस्था फूड एंड
एग्रीकल्चरल एसोसिएशन का हालिया आकलन बताता है कि वैश्विक स्तर पर
खाद्य-पदार्थो की कीमतें कम हुई हैं. यूपीए सरकार यह बहाना भी बनाती रही है
कि जैसे-जैसे घरेलू स्तर पर खाद्य-पदार्थो की आपूर्ति बढ़ेगी, इनकी कीमतें
गिरेंगी, परंतु उत्पादन अच्छा रहने के बावजूद इनकी कीमतों की बढ़वार थमने
का नाम नहीं ले रही है. दरअसल सरकार की प्राथमिकताओं में महंगाई रोकना
शामिल ही नहीं है.
उल्टे यूपीए सरकार वित्तीय घाटा कम करने के नाम पर
सामाजिक कल्याण की योजनाओं के मद में स्वीकृत बजट राशि में भी कमी करने जा
रही है. सरकार का उद्देश्य मात्र इतना है कि बाजार से कर्ज लेना इतना महंगा
न हो जाये कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत को निवेश के लिए अलाभकर या
जोखिम भरा देश करार दे दें. महंगाई की मार सबसे ज्यादा आम लोगों पर पड़ती
है. हाल के चुनावी नतीजों में महंगाई का भी असर दिखा है और संभव है 2014 के
आम चुनाव में भी यह मतदाताओं का रुझान तय करे. इसलिए यूपीए सरकार के लिए
यह समय रहते चेत जाने का वक्त है.