एक साल में कितना बदला देश- मनीषा प्रियम

एक साल पहले दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की एक ऐसी घटना हुई थी, जिसने
देश-दुनिया को झकझोर दिया था। तब से अब तक यह देश कई राजनीतिक-सामाजिक
बदलावों का गवाह रहा है। ‘बिटिया’ के बलिदान ने ऐसा मंच तैयार किया, जहां
देश की राजनीति और उसके निजी एवं बाह्य अंतर्विरोधों पर खुलकर बहस हुई है।
वह एक अमानवीय और हृदय विदारक घटना थी। लेकिन उस घटना ने देश में परिवर्तन
की मजबूत नींव रखी है।

कहना अतिशयोक्ति नहीं कि दिल्ली में हुए
राजनीतिक बदलाव और सियासत के पटल पर ‘झाड़ू’ के उभार की पृष्ठभूमि ‘बिटिया’
ने ही तैयार की। 16 दिसंबर की घटना के बाद युवाओं ने जैसा प्रतिरोध किया,
स्थापित राजनीतिक दलों की जिस तरह जमकर मुखालफत की और किसी भी दल को अपने
विरोध में शामिल नहीं होने दिया, वह देश की सियासत के चरित्र पर सीधा हमला
था। उसी विरोध का नतीजा है कि आज न सिर्फ नारी अधिकार की स्वायत्तता पर
चर्चा हो रही है, बल्कि लैंगिक अधिकारों में मौजूद असमानता पर भी लोग खुलकर
बहस करने लगे हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी इस बहस में जमकर
हिस्सेदारी कर रहा है।

कुछ विश्लेषक आंकड़ों के आधार पर कह सकते हैं
कि लोगों की मानसिकता अब भी नहीं बदली है; 16 दिसंबर के बाद अगले दो
महीनों में बलात्कार के जितने मामले दर्ज हुए, वे 2011 के दिसंबर और जनवरी
महीने में हुए वारदातों से दोगुने थे! लेकिन ‘बिटिया’ के बलिदान को सिर्फ
इन्हीं आंकड़ों तक सीमित नहीं किया जा सकता। बदलाव दो स्तर पर होते
हैं-पहला शैक्षणिक और दूसरा कानूनी। इस संदर्भ में देखें, तो समाज या
स्कूली शिक्षा के माध्यम से यह जागरूकता फैलाना, कि बलात्कार गलत है, एक
लंबी प्रक्रिया होने के बाद भी शुरू हुई है।

रही बात कानूनी बदलाव
की, तो मजबूत कानून ने आरोपियों पर दबिश बढ़ाई है। दिवंगत न्यायमूर्ति जे
एस वर्मा की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने जिस मजबूत कानून की नींव रखी, उसी
का नतीजा है कि आज सामाजिक या आर्थिक रूप से कमजोर महिलाएं भी अपने साथ हुए
अन्याय के खिलाफ मुखर हो रही हैं। तरुण तेजपाल (जिनकी गिनती अंतरराष्ट्रीय
स्तर के बुद्धिजीवी में होती रही है) और सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व
न्यायाधीश न्यायमूर्ति गांगुली के विरोध में उठ रहे स्वर भी इसी का नतीजा
हैं।

अमूमन यह माना जाता रहा है कि प्रभावशाली लोग कानूनी तिकड़मों
का फायदा उठाकर दंडित होने से बच जाते हैं, लेकिन अब बलात्कार के वास्तव
में ‘दंडनीय’ अपराध होने की वजह से कानून से लोग डरने लगे हैं। बॉलीवुड और
राजनीति को लेकर आम धारणा है कि यहां महिलाओं का शोषण होता है, लेकिन अब
यहां से भी आवाजें उठने लगी हैं। बड़ी-बड़ी शख्सियतें बेपर्दा होने लगी
हैं। बलात्कार की घटनाएं बेशक पूरी तरह रुकी नहीं हैं, लेकिन ‘बिटिया’ की
मौत ने महिलाओं को पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता के खिलाफ लड़ने की ताकत दी
है, और दंडनीय अपराध होने की वजह से उनमें यह भरोसा जगा है कि लचीले कानून
और अपने प्रभाव की वजह से अब ‘दोषी’ बच नहीं सकता।

‘बिटिया’ के
बलिदान ने महिला आंदोलनों को भी नई ऊर्जा दी है। पहले इन्हें ‘परकटी/> आंदोलन’ कहा जाता था। यहां ऊंच-नीच वाली मानसिकता थी, यानी सभ्य महिलाएं ही
अपने हक की आवाज उठाती रही थीं। लेकिन अब ऐसा नहीं रहा। अपने अधिकारों के
लिए जितनी आवाज पढ़ी-लिखी और शिक्षित महिलाएं उठा रही हैं, उतनी ही
झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाली महिलाएं भी बुलंद कर रही हैं। दिल्ली में चल
रहे ‘जुर्रत’ अभियान का ही उदाहरण लें। यह अभियान विगत 10 दिसंबर से चल रहा
है और आज ‘आजाद चलो, बेबाक चलो’ के नारे के साथ इस आंदोलन से जुड़े लोग
साकेत सिटी मॉल से लेकर मुनीरका बस स्टैंड तक पैदल मार्च करेंगे। यह वही
रास्ता है, जिसे पिछले वर्ष 16 दिसंबर को ‘बिटिया’ ने अपने दोस्त के साथ
ऑटो से तय किया था और फिर मुनीरका से उसने बस पकड़ी थी। इस मार्च में
जाने-माने संगीतकार रब्बी शेरगिल, मानवाधिकार वकील वृंदा ग्रोवर, अभिनेत्री
स्वरा भास्कर जैसे नामचीन लोग तो शामिल होंगे ही, झुग्गी-झोपड़ियों में
रहनेवाली महिलाएं भी भाग ले रही हैं। इस लिहाज से देखें, तो उस घटना ने
सामाजिक-आर्थिक हैसियत की वजह से बने ऊंच-नीच की दीवार को पूरी तरह खत्म कर
दिया है।

दरअसल, अब महिलाएं अपने हक को लेकर ज्यादा मुखर होने लगी
हैं। 16 दिसंबर जैसी घटनाएं भारतीय लोकतंत्र के लिए दुखद हैं, पर इसने जिस
तरह असमता की लड़ाई में योगदान दिया है, वह अभूतपूर्व है। राजस्थान के
भंवरी देवी बलात्कार कांड या फिर विशाखा गैर-सरकारी संगठन ने भी लोकतंत्र
की नींव ऐसी नहीं हिलाई, जैसी ‘बिटिया’ ने हिलाई। न सिर्फ सामाजिक, बल्कि
राजनीतिक रूप से भी महिलाएं अब विरोध जता रही हैं। दिल्ली में ही आम आदमी
पार्टी को मिली जीत में हाशिये पर मौजूद महिलाओं का बड़ा योगदान है,
जिन्होंने ईवीएम का बटन दबाकर स्थापित राजनीतिक दलों के खिलाफ अपना मूक
विरोध दर्ज कराया है।

ऐसे में दबाव अब हमारे उन नियंताओं पर भी है,
जो नीतियां तय करते हैं। समता और स्वतंत्रता का अधिकार वास्तव में महिलाओं
को मिले, इसके लिए उन्हें प्रयास करना होगा। असमानता बढ़ाने वाले
रीति-रिवाज खत्म करने होंगे, और लिंगभेद को इतिहास बनाना होगा। अगर ऐसा
नहीं हुआ, तो विरोध के स्वर और तेज होंगे। ‘बिटिया’ ने इसकी बुनियाद तैयार
कर दी है। चूंकि इन विरोधों पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया की भी
निगाहें हैं, इसलिए आने वाले वक्त में अभी और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक
बदलाव होंगे।

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