आदिवासी विमर्श का दायरा- अनिल चमड़िया

जनसत्ता 25 नवंबर, 2013 : बढ़ता कृषक असंतोष, छिटपुट विस्फोटों से प्रकट
हो रहा है- भू-स्वामियों के बढ़ते शोषण और दमन के विरोध में सशस्त्र
प्रतिरोध की तरफ बढ़ता हुआ यह घटनाचक्र पूरे देश के पैमाने पर, विशेषकर
आदिवासियों की तरफ फैलता जा रहा है।’
क्या शीर्षक (आदिवासी: शोषितों में सबसे बुरी स्थिति) समेत इन पंक्तियों के
बारे में यह ठीक-ठीक अनुमान लगाया जा सकता है कि ये कब लिखी गई होंगी?
क्या ये अंग्रेजों के शासनकाल की पंक्तियां हैं या उनके जाने के बाद के
बीसेक साल बाद की, या फिर ये 2013 के किसी वैसे लेखक, विचारक और
सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता की बेचैनी की पंक्तियां हैं?

इन पंक्तियों को केवल एक उदाहरण के रूप में इसीलिए प्रस्तुत किया गया है
कि क्या मौजूदा दौर में हमारे लिए जो सबसे ज्यादा चिंता के विषय बने हुए
हैं और जिन चिंताओं के जरिए मानवीय, लोकतांत्रिक, समानता का पक्षधर,
शोषण-दमन का विरोध जाहिर किया जाता है वह समाज के प्रबुद्ध, प्रगतिशील और
लोकतंत्र प्रेमियों के लिए शुरू से ही एक स्थापित तरीका भर है। उनकी
पंक्तियां वास्तव में बदलाव का औजार नहीं बन पाती हैं। मोटी भाषा में कहें
तो किसी भी काल में चिंता और बेचैनी की एक ऐसी प्रबल धारा होती है जो
पुरानी भाषा में एक नए ढंग से दोहराई जाती है। किसी भी दौर में जो बहसें चल
रही होती हैं उनके बीच यह जरूर शिनाख्त की जानी चाहिए कि उन बहसों में
कितना हिस्सा ऐसा है जिन्हें ठहरी हुई बहसों के रूप में हम दर्ज करा सकते
हैं।

आदिवासी और उनका समाज, इन्हें आज के सबसे ज्वलंत विषय के रूप में
प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन आश्चर्यजनक है कि आदिवासियों के बारे में
पिछले डेढ़ सौ वर्षों से एक ही तरह की भाषा में बात की जा रही है। उपरोक्त
जिन पंक्तियों को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है उसकी अगली कड़ी
में दर्ज वर्ष स्वयं ही यह बयान करता है कि लगभग चालीस साल पुरानी बातें अब
भी दोहराई जा रही हैं। वर्ष 1917 में अनंतपुर गांव के तारीमेला जिले में
जन्मे कॉमरेड तारीमेला नागी ने अपनी पढ़ाई-लिखाई ऋषि घाटी स्कूल, मद्रास
कॉलेज और काशी हिंदू विश्वविद्यालय से पूरी की। सोलह वर्षों तक आंध्र
प्रदेश के विधानसभा सदस्य रहे। 28 जून, 1976 को बीमारी की वजह से उनकी
मृत्यु हो गई। टीएन स्मारक न्यास ने कॉमरेड तारीमेला नागीरेड््डी की लिखी
किताब ‘इंडिया मॉटर्गेज्ड’ का रंजीत सिंह द्वारा हिंदी में अनुवाद ‘भारत एक
बंधक राष्ट्र’ प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में वे आदिवासियों की हालत
बयान करते हैं।

भारत में तीन करोड़ आदिवासी हैं, जिनमें से पंचानबे प्रतिशत गांवों में
रहे हैं, और ज्यादातर खेतिहर मजदूर, निम्न जोतदार और छोटे किसान हैं।
आदिकालीन गुलामी के इन अवशेषों को कहीं सागड़ी, कहीं जोभारत, हाली, वेट्टी
आदि कहा जाता है। ये मुल्क के सभी हिस्सों, विशेषकर आदिवासी प्रधान इलाकों
में रहते हैं। भारत के सबसे ज्यादा शोषित वर्ग के तौर पर खेतिहर मजदूरों की
गिनती होती है, पर आदिवासी मजदूरों की हालत सबसे गई-गुजरी है।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के आयुक्त की 1960-61 की रिपोर्ट
के अनुसार, आदिवासियों मेंभूमिहीनों का अनुपात 1950 में पचास प्रतिशत था,
जो 1956-57 में सत्तावन प्रतिशत हो गया। ढेवर आयोग की रिपोर्ट के अनुसार
कर्ज, भूमि से निष्कासन, जबरन श्रम और निरक्षरता के संदर्भ में आदिवासी
सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। मसलन, आदिवासी बहुल त्रिपुरा में, शासकवर्गीय
पार्टी की मदद और मौन सहमति से, गैर-आदिवासियों द्वारा इनकी भूमि पर जबरन
कब्जे से ये अल्पमत में आ गए हैं। त्रिपुरा के संदर्भ में तब जो बात लिखी
गई थी आज उसी भाषा में झारखंड के संदर्भ में दोहराई जाने लगी है।

इसी तरह पश्चिम बंगाल में आदिवासियों की समस्या माओवादी समस्या की तरफ
धकेल दी गई। वहां की स्थितियों के बारे में नागारेड््डी की पुस्तक बताती
है। पश्चिम बंगाल के आदिवासी कल्याण विभाग के अनुसार, ‘1950-60 के समय के
दौरान, मालदा, पश्चिम दिनाजपुर, दार्जिलिंग, बीरभूम, चौबीस परगना, बांकुडा,
पुरुलिया, हुगली, बर्दपवरल और मिदनापुर जिलों में इन्हें भारी संख्या में
भूमि से बेदखल कर दिया गया है।’ और ‘यह मुख्यतया आदिवासियों की भूमि
गैर-आदिवासियों द्वारा लेने से हुआ है।’ यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि
यह भूमि हस्तांतरण, संविधान की पांचवीं अनुसूची के बावजूद हुआ है, जो
आदिवासियों की भूमि की रक्षा के लिए बनाई गई है। इनकी विशाल संख्या आंध्र
प्रदेश के मुतादारी सिस्टम की तरह सामंती शोषण और गुलामी की शिकार है।

जिन प्रदेशों के नाम यहां आए हैं क्या उनमें छत्तीसगढ़ और नहीं जुड़ जाता
है? आज आदिवासियों के हालात पर चिंता जाहिर की जाती है तो पुराने संदर्भों
को दोहराने के बजाय उन हालात से निकलने के तरीकों में बुनियादी बदलाव से
हिचकिचाहट क्यों होती है? बहस अगर विमर्श की जड़ता को नहीं तोड़ती तो वह बहस
होने की अपनी अर्थवत्ता ही खो देती है और फिर उसका कोई असर नहीं होता है।
फिलहाल यही हो रहा है।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग के आयुक्त ने अपनी 1966-67 की
सोलहवीं रिपोर्ट में विशाखापत्तनम जिले के चिंतापल्ले तालुका में किए गए
सर्वे के हवाले से बताया गया है कि ‘एजेंसी एरिया में एक मुनादार के लिए यह
नियम है कि यह मैदानी एरिया के व्यक्ति को भूमि हस्तांतरण में एक पार्टी बने, लेकिन मुंसिफ (जिसके जरिए मुत्तादार लगान इकट्ठा करता
है) की मदद से भूमि हाथ बदलती रहती है।’ ये सिर्फ भू-स्वामी नहीं हैं, जो
आदिवासी का शोषण कर रहे हैं। सरकार उन्हें विभिन्न कारणों से जमीन से बेदखल
कर रही है। हमने देखा है कि उत्तर प्रदेश के लखीमपुर में खेती और अन्य
जंगलात क्षेत्रों में, वहां की सरकार की भूमि-उपनिवेशीकरण योजना ने
भू-स्वामियों, उच्च अधिकारियों और उद्योगपतियों की कैसी सहायता की है।
सरकारी वित्त की मदद से, इस पहाड़ी क्षेत्र के विकास के नाम पर, इन्होंने
हजारों एकड़ भूमि पर कब्जा कर लिया है। चार अप्रैल, 1970 के ‘ब्लिट्ज’ ने एक
घटना का ब्योरा देते हुए लिखा है कि आदिवासियों और अन्य भूमिहीन मजदूरों
का भाग्य ऐसी सरकार के हाथों में बंद है, जो दिन-रात सुधारों की बातें करते
हुए, जन-विरोधी कार्रवाइयां कर रही है।

चार अप्रैल, 1970 का ब्लिट्ज लिखता है- ‘महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में
निर्णय लिया है कि तथाकथित वन-भूमि से तैंतालीस हजार आदिवासियों को बेदखल
किया जाताहै,जिस पर वे सदियों से खेती करते आ रहे हैं। इस घटना ने, पिछले
सप्ताह, राज्य विधानसभा में आक्रोश पैदा कर दिया है।’ आगे लिखा गया है कि-
‘नासिक जिले के फेथ तालुका में, वन विभाग ने, आदिवासी भूमिहीनों से वनभूमि
पर अतिक्रमण कर उस पर खेती करने के नाम पर पैंतीस लाख रुपए जुर्माना वसूल
किया है।’ आगे लिखा है कि ‘यह राशि उस राशि से कहीं ज्यादा है, जो सरकार ने
तालुका में आदिवासियों की उन्नति और विकास के लिए खर्च की है।’ 31 जुलाई,
1968 के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादकीय में सरकार को चेतावनी देते हुए
लिखा गया है कि ‘अगर आदिवासियों की तकलीफों पर गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं
दिया गया, तो किसी भी समय विस्फोटक स्थिति पैदा हो सकती है।’ संपादकीय आगे
लिखता है, ‘लोकसभा में श्रीमान एसएम जोशी ने कहा कि कानून का उल्लंघन करते
हुए, आदिवासियों को उनकी जमीन से उखाड़ा जा रहा है।’

दरअसल, बहस के सारे मंच जब एक जैसे दिखने लगते हैं तब हालात के सुधरने
की उम्मीदें भी खत्म होने लगती हैं। बुद्धिजीवी वर्ग, मीडिया और विधायिका
सभी स्तरों पर देखें कि आदिवासियों को हम क्या समझ कर उनके प्रति दयाभाव
दिखाने की कोशिश कर रहे हैं? नागारेड््डी की पुस्तक कहती है: सरकार संदिग्ध
बयान देती रहती है कि वह आदिवासियों के कल्याण के नाम पर करोड़ों रपए खर्च
कर रही है। समाज कल्याण समितियां इस मुल्क की एक विशेषता हैं। इस धार्मिक
समाज में हरिजन कल्याण, आदिवासी कल्याण और नारी-कल्याण से लेकर पशु-कल्याण
तक की ढेरों समितियां बनी हुई हैं।

परोपकारिता, मोक्ष-प्राप्ति पवित्र रास्ता है। अगर गरीब और भिखारी न हों
तो परोपकारिता नहीं दिखाई जा सकती। अत: गरीबों के उन्मूलन के बजाय उन्हें
बनाए रखना एक धार्मिक कर्तव्य है। समाज कल्याण योजनाओं के बजाय उन्हें बनाए
रखने का एक धार्मिक कर्तव्य भली प्रकार निभाया जा सकता है। मार्च, 1960
में मध्यप्रदेश आदिवासी सहकारी विकास निगम की स्थापना हुई थी। 30 जुलाई
1971 के ‘ब्लिट्ज’ के अनुसार ‘‘राज्य के सत्तर लाख (जनसंख्या का बाईस
प्रतिशत) से ज्यादा आदिवासियों को शोषण से बचाने के अति आवश्यक सामाजिक
उद््देश्य की प्राप्ति के लिए विभाग की स्थापना हुई थी। तीन करोड़ रुपयों के
अपव्यय के बाद इससे विषाद (संताप) ही प्राप्त हुआ था। उदाहरणतया निगम ने
खरीदी, कुछ लाख रुपयों की राखियां, सांठ हजार टेरेलिन सूटिंग पीस, जिनकी
कीमत छह लाख रुपयों से ज्यादा थी, 3.45 लाख रुपयों के टेरेलिन शर्टिंग, और
अन्य पांच लाख रुपयों की लिपिस्टक, पाउडर, चाकलेट, मूल्यवान क्रॉकरी तथा
ऊंचे दर्जे की चाय-कॉफी।’’

इस प्रकार वस्तुगत स्थितियां क्या एक विस्फोटक स्थिति पैदा नहीं करतीं?
अगर वे करती हैं, तो इसका जिम्मेवार कौन है? यह है वह सामान्य पृष्ठभूमि,
जिसके अंतर्गत बढ़ता असंतोष विद्रोह के रूप में फूट पड़ता है। क्योंकि पुलिस
के समर्थन और सहयोग से भू-स्वामियों की हिंसक गतिविधियां इसे प्रोत्साहन
देती रही है। असंतोष का यह विस्फोट श्रीकाकुलम, गोपी वल्लभपुर, पूर्वी
गोदावरी, मुसहरी, लखीमपुर, खम्माम और वारंगल में फूट रहा है। प्रत्येक
स्थान पर यही हालात हैं कि स्थानीय व्यक्तियों को भूमि से बेदखल किया जा
रहा है। धनिकों की गैर-कानूनी मांग, जबरन मुफ्त मजदूरी, अकल्पनीय अल्प
वेतन, अत्यधिक ऊंचीदर का ब्याज, गरीब व्यक्तियों की हड््िडयों तक को निचोड़
रहा है।

अगर उपरोक्त भाषा का अध्ययन करें तो यह कहने में हिचक नहीं होनी चाहिए
कि वह अब भी हमारी बहस में यथावत बनी हुई है। उन्होंने उस समय की तस्वीर का
वर्णन इस रूप में भी किया है कि इन सभी क्षेत्रों में अच्छी मजदूरी के
लिए, भूमि के लिए और मुफ्त श्रम, कम मजदूरी, लूट जैसे सामंती अत्याचारों को
समाप्त करने के लिए, कम्युनिस्ट इन गिरिजनों को संगठित करने की अपनी
न्यायपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसके लिए उन्हें सर्वप्रथम भू-स्वामियों
की हिंसा का प्रतिरोध करना पड़ता है। प्रत्येक क्षेत्र में पुलिस और सरकार
का समर्थन, भू-स्वामियों के पक्ष में रहता है।

हमारी चिंता है कि न केवल आदिवासी बल्कि विभिन्न क्षेत्रों के बहाने चल रही लेकिन ठहरी हुई बहसों से कैसे निकला जाए?

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