लगभग दस साल की पिंकी पिछले कुछ सालों तक हर साल अपने माता-पिता के
साथ कोलकाता के उपनगर में स्थित एक ईंट-भट्ठे में चली जाती थी. साल के सात
से आठ महीने का वक्त वहीं गुजरता था. वहां उसके माता-पिता जहां सुबह से देर
शाम तक मजदूरी करते थे, उसका काम अपने दूसरे भाई-बहनों की देख-भाल करना.
खाना पकाना और घर संभालना था. जरूरत पड़ने पर उसे ईंट ढोने के लिए या चिमनी
पर मिट्टी साटने के काम में भी लगा दिया जाता था. इतना सब करने के बाद भी
वहां उसकी दुनिया में शांति नहीं थी. कई दफा उसके पिता जो शराब पीने के आदी
हो थे, उस पर बरस उठते थे और उससे मारपीट करने लगते थे. इस उम्र में जब
दूसरे बच्चे स्कूल जा रहे हों, पिंकी के लिए अपना जीवन इस तरह ईंट-भट्ठों
में झोंक देना हताशा भरा था. मगर पिछले दो सालों से उसका जीवन बदल गया है.
अब वह पढ़ती भी है और बेहतर जीवन जीने के सपने भी देखती है. यह सब मुमकिन
हुआ है रांची के नामकुम स्थित ज्योत्सिका मौसमी छात्रावास की वजह से.
2011 में शुरू हुआ यह मौसमी छात्रावास एक अनूठा प्रयोग है. इस छात्रावास
में ऐसे बच्चे रहते हैं जिनके माता-पिता रोजगार के लिए पलायन कर जाते हैं.
इस छात्रावास का उद्देश्य है कि माता-पिता के पलायन करने के कारण बच्चे
शिक्षा के अधिकार से वंचित न हों. इसी भावना को नजर में रख कर यह छात्रावास
पिछले दो सालों से ऐसे बच्चों को अपने यहां रखकर उन्हें सरकारी स्कूलों
में पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध करा रहा है.
सात से आठ महीने रहते हैं यहां बच्चे
इस संस्था का संचालन रांची की संस्था आशा और कोलकाता की संस्था टुमारो
फाउंडेशन की ओर से किया जाता है. आशा संस्था के प्रमुख अजय भगत बताते हैं
कि उनके इस छात्रावास में बच्चे आमतौर पर अक्तूबर के अंत में आते हैं और मई
महीने तक तब तक रहते हैं जब तक उनके माता-पिता घर न लौट जायें. हालांकि जब
यह छात्रावास बना था तो हमने 40-45 बच्चों के रखने की बात सोची थी, मगर आज
की तारीख में यहां 60 बच्चे रह रहे हैं. लगातार नये बच्चे आ रहे हैं, वे
उन्हें मना नहीं कर सकते, लिहाजा यहां बच्चों की संख्या बढ़ती ही जा रही
है.
झारखंड में ऐसे तीन छात्रावास
इन दोनों संस्थाओं द्वारा झारखंड में ऐसे तीन छात्रावासों का संचालन
किया जा रहा है. दो अन्य छात्रावास खूंटी के बरकुली पंचायत और
सरायकेला-खरसावां के डुमरा पंचायत में हैं. इन छात्रावासों में भी तकरीबन
इतने बच्चे ही रह रहे हैं. जहां इन दो छात्रावासों में संबंधित पंचायतों के
बच्चे ही रहते हैं, वहीं रांची के नामकुम स्थित छात्रावास में दूरदराज के
बच्चे भी रहने आते हैं. अजय बताते हैं कि यहां तीस बच्चे गुमला के भरनो
प्रखंड से आये हैं. 22 लोहरदगा के भंडरा प्रखंड से और 8 रांची के बेड़ो
प्रखंड से आये हैं. अजय कहते हैं कि संस्था की इच्छा संबंधित पंचायतों में
ही ऐसे छात्रावास खोलने की थी मगर संसाधनों के अभाव में वे ऐसा नहीं कर पा
रहे.
बच्चों के लिए क्या-क्या सुविधाएं
आशासंस्था अपने सीमित संसाधनों से इन छात्रावासों में बच्चों के लिए घर
का माहौल उपलब्ध करा रही है. यहां रहने के अलावा भोजन, सुबह और शाम का
टय़ूशन, खेलकूद आदि सुविधाएं बच्चों को मिलती है. रामकृष्ण मिशन के सहयोग से
नियमित अंतराल पर बच्चों का हेल्थचेक अप भी किया जाता है. जहां छोटे बच्चे
रोज स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने जाते हैं, वहीं बड़े बच्चे
उत्क्रमित मध्य विद्यालय कोचबोंग जाते हैं जो छात्रावास से एक किमी दूर है.
इसके अलावा बच्चों को कॉपियां, बिस्तर, जरूरत पड़ने पर कपड़े, जूते चप्पल
आदि सुविधाएं भी छात्रावास की ओर से उपलब्ध करायी जाती है.
दो शिक्षिका और दो रसोइया
हर छात्रावास में दो शिक्षिका और दो रसोइया काम करती हैं. शिक्षिकाओं का
काम बच्चों की देखरेख के साथ उन्हें सुबह शाम पढ़ाना है और बच्चों में
अच्छी आदतों का विकास करना है. चारों स्टाफ चौबीसो घंटे बच्चों के साथ ही
रहते हैं.
छात्रावास को नहीं मिल रही मदद
दो साल तक विभिन्न संस्थाओं की मदद और कंपनियों के सीएसआर फंड से चलने
वाले ये छात्रावास इस साल फंड की कमी से जूझ रहे हैं. अजय कहते हैं कि इस
साल कहीं से पैसों का प्रबंध नहीं हो पाया है लिहाजा इन्हें चलाना मुश्किल
लग रहा है. वे कहते हैं कि सरकार भी यह समझ नहीं पा रही कि इस तरह के
छात्रावास को जीवित रखना कितना जरूरी है. अगर ये छात्रावास न हों तो बच्चों
के शिक्षा के अधिकार का हनन होता है.
बैजनाथ राम ने किया था उद्घाटन
नामकुम स्थित मौसमी छात्रावास का उद्घाटन तत्कालीन शिक्षा मंत्री बैजनाथ
राम के हाथों 2011 में हुआ था. मगर इसके बावजूद सरकार की ओर से उन्हें अब
तक कोई सहायता नहीं मिली है. अगर सहायता मिली होती तो इस प्रयोग का अंजाम
कुछ और ही होता. वे कहते हैं आज की तारीख में राशन का और स्टाफ के वेतन का
लाखों रुपये बकाया हो गया है. मगर फिर भी वे किसी न किसी तरह इसे चलाने की
कोशिश कर रहे हैं और इस प्रयास में उन्हें उनके स्टाफ और बच्चों से भरपूर
सहयोग मिल रहा है.
सर्वशिक्षा अपना रहा इस मॉडल को
अजय बताते हैं कि सर्वशिक्षा अभियान उनके छात्रावासों के मॉडल से काफी
प्रभावित है और वह इस साल से राज्य के 7 जिलों के 18 पंचायतों में ऐसे
छात्रावास खोलने जा रहा है. सरकारी योजना के मुताबिक संबंधित पंचायतों के
पंचायत भवन में बच्चों के रहने और खाने-पीने का इंतजाम करना है.
मगर प्रयास में गंभीरता नहीं
मगर सरकार द्वारा शुरू किये जा रहे इस तरह के प्रयास में गंभीरता नजर
नहीं आ रही. गांव के लोग गांव छोड़कर जाने की तैयारी कर रहे हैं, मगर अब तक
किसी पंचायत में ऐसे छात्रावास खोले नहीं जा सके हैं. अजय के मुताबिक
अधिकारियों का कहना है कि जब लोग जाना शुरू करेंगे तब छात्रावास खोले
जायेंगे. मगर अजय का कहना है कि जब तक लोग छात्रावास की व्यवस्था नहीं
देखेंगे तब तक बच्चों को किस भरोसे पर छोड़ेंगे, लिहाजा तैयारी पहले से
करना और अभिभावकों में विश्वास का माहौल बनाना भी जरूरी काम है.