बंधुआ बचपन-प्रियंका दुबे

करीब साल भर पहले तहलका ने तस्करी के शिकार उन बच्चों की व्यथा
उजागर की थी जिनसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खेतों में बंधुआ मजदूरी करवाई
जाती है. हाल में ऐसे दो बच्चों की बरामदगी ने न सिर्फ फिर हमारी पड़ताल की
पुष्टि की है बल्कि यह भी ध्यान दिलाया है कि तस्करी के इस व्यवस्थित
नेटवर्क के खिलाफ व्यापक कार्रवाई होनी चाहिए. प्रियंका दुबे की रिपोर्ट.

पिछले 11 महीने से गन्ने के खेतों में बंधुआ
मजदूरों की तरह दिन-रात काम कर रहे सुमन और रघु (परिवर्तित नाम) गुमसुम
बैठे हुए अपनी रूखी और कटी-फटी हथेलियों को एकटक देखे जा रहे हैं. एक साल
पहले ‘दिल्ली घूमने’ के लालच में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से भाग कर
दिल्ली आए इन दोनों बच्चों को दिल्ली पुलिस ने बीती रात ही पश्चिमी उत्तर
प्रदेश के बागपत जिले में फैले गन्ने के खेतों से बरामद किया है. सुमन अभी
सिर्फ 12 साल का है जबकि रघु की उम्र मात्र 13 वर्ष है. साल भर की प्रताड़ना
और अलगाव के बाद अपने बिछड़े परिवार से मिलने पर भी बच्चे डरे सहमे से
खामोश बैठे हैं. अचानक बागपत के दूर-दराज के गन्ना-खेतों और भैंसों के
तबेलों से दिल्ली के मुहाने पर स्थित और बच्चों के लिए बने ‘मुक्ति आश्रम’
तक पहुंचने से उपजा आश्चर्य, संदेह और डर उनके चेहरों पर साफ झलक रहा है.

लेकिन रघु और सुमन के गुमशुदा होने और फिर गन्ने के खेतों से बंधुआ
मजदूरों की तरह बरामद होने की कहानी इतनी सीधी नहीं है जितनी पहली नजर में
दिखती है. दिल्ली से हर रोज गुमशुदा हो रहे बच्चों की तस्करी कर उन्हें
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के गन्ना-किसानों को बेचने में शामिल
तस्करों और बिचौलियों का एक व्यवस्थित नेटवर्क राजधानी में सक्रिय है. 31
जुलाई, 2012 को तहलका ने ‘क्या हम जो खा रहे हैं उसे अगुआ बच्चे बंधुआ बन कर उपजा रहे हैं?
शीर्षक से प्रकाशित आवरण कथा में दिल्ली के रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों और
गरीब बस्तियों से बच्चों को उठाकर उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना
किसानों को बेच रहे इस पूरे नेटवर्क को उजागर किया था. यहां यह तथ्य
महत्वपूर्ण है कि गन्ने की खेती पूरी तरह मानव श्रम पर आश्रित है. गन्ने की
रोपाई से लेकर फसल की कटाई, ईख की छिलाई और फिर गन्ने को शुगर मिलों तक
पहुंचाने के लिए ट्रालियों में लदवाने तक का पूरा काम खेतिहर मजदूरों
द्वारा ही करवाया जाता रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों से राष्ट्रीय ग्रामीण
रोजगार योजना के लागू होने की वजह से किसानों को खेतिहर मजदूरों की कमी का
सामना करना पड़  रहा है. तहलका की तहकीकात में पता चला था कि मजदूरी के
बढ़ते दामों की वजह से कई गन्ना किसान गरीब गुमशुदा बच्चों को बंधुआ मजदूरों
की तरह रखे हुए हैं और उनसे गन्ने के खेतों में काम करवा रहे हैं. रघुु और
सुमन भी बिचौलियों, तस्करों और गन्ना किसानों के इसी आपराधिक गठजोड़ का
शिकार हुए.

रघु और सुमन बलिया जिले की बेलहरी तहसील में बसेबस्ती गांव के रहने
वाले हैं. सुमन के पिता तेजपाल शाह बताते हैं, ‘सुमन मेरा लड़का है. इससे
छोटे दो और बच्चे हैं मेरे. अपने गांव में मैं मिस्त्री का काम करता था. घर
के सामने राशन की एक छोटी दुकान भी चलाता था. रघु भी हमारे ही घर का है,
रिश्तेदारी में आता है और हमारे गांव में ही रहता है. पिछले साल 20 नवंबर
को सुबह दस बजे के आस-पास ये दोनों बच्चे गांव के ही महेंद्र (परिवर्तित
नाम) के साथ निकले थे. महेंद्र हमारे घर का नहीं है लेकिन गांव में ही रहता
था, 15 साल का लड़का था तब. किसी ने ध्यान नहीं दिया. सर्दियों में अक्सर
बच्चे दोपहर के समय धूप में खेलने निकल जाते हैं. हमें भी यही लगा कि हमारे
बच्चे खेलने गए हैं आस-पास. लेकिन शाम तक इनका कोई अता-पता नहीं चला. फिर
रात हो गई और बच्चे नहीं लौटे. हम लोग रोते-रोते परेशान. पुलिस, प्रशासन,
पड़ोसी, रिश्तेदार कहां-कहां नहीं खोजा, लेकिन नहीं मिले. फिर एक दिन पता
चला कि महेंद्र का फोन गया है उसके रिश्तेदारों के यहां. वह मिल गया था,
लेकिन हमारे बच्चे नहीं मिले थे. उससे पता चला कि बच्चे पुरानी दिल्ली
रेलवे स्टेशन के पास हैं. फिर बच्चों को ढूंढ़ने मैं और रघु का बड़ा भाई
सुनील, हम दोनों दिल्ली आ गए. गुजारे के लिए सोनीपत में मजदूरी करते और फिर
छुट्टी लेकर दिल्ली स्टेशन आते अपने बच्चों को ढूंढ़ने. एक साल हो गया,
लेकिन बच्चे नहीं मिले. फिर एक दिन अचानक एक मिस्ड कॉल आया और वापस फोन
करने पर सुमन से बात हुई. पता चला कि दोनों बच्चे बागपत के खेतों में बंधुआ
मजदूरी कर रहे हैं.’ अपने बच्चों से बात होते ही शाह परिवार ने बाल मजदूरी
के खिलाफ काम करने वाले एक गैरसरकारी संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की मदद से
दिल्ली पुलिस को सूचित किया. दिल्ली पुलिस ने बागपत पुलिस की मदद से एक
बचाव अभियान शुरू करके 11 अक्टूबर की रात रघु और सुमन को बागपत के दोगहत
थाना क्षेत्र से बरामद किया.

‘हम दोनों को सुबह छह बजे उठना होता था. पहले तबेले में जानवरों का काम करते और फिर दस बजे के आस-पास खेत में काम करने जाते’

रघु और सुमन अब भी सदमे में हैं. कुछ देर की खामोशी के बाद सुमन अपने
बागपत पहुंचने की कहानी बताना शुरू करता है. वह कहता है, ‘महेंद्र भैया हम
दोनों को ले गए थे. फिर हम लोग सबसे पहले सुरेमनपुर रेलवे स्टेशन गए. वहां
से ट्रेन में बैठकर बनारस गए. फिर अगले दिन वहीं से ट्रेन में बैठकर वापस
सुरेमनपुर आ गए. भैया कह रहे थे कि पिछली रात दिल्ली की गाड़ी नहीं थी इसलिए
वे हमें बनारस ले गए थे. फिर अगले दिन हम सुरेमनपुर से सद्भावना एक्सप्रेस
में बैठे थे. भैया बोले थे कि हम दिल्ली घूमने जाने वाले हैं. अगले दिन हम
दिल्ली पहुंचे सुबह-सुबह. स्टेशन पर एक लड़का भैया से मिला. उसका नाम अजय
था. उसने भैया से उसके लिए काम करने को कहा और भैया ने हां कहा. फिर उन
दोनों ने मुझे और रघु को पुरानीदिल्लीरेलवे स्टेशन के पास बनी एक चाय की
दुकान पर काम करने के लिए कहा और चले गए. हम दोनों रोने लगे और सुबह ही चाय
की दुकान से भाग कर वापस स्टेशन आ गए. हमें भूख लगी थी. स्टेशन पर हमें
वसंत मिला और उसने हमें खाना दिया. फिर उसने कहा कि हमें अब उसके लिए काम
करना ही होगा और हमें जबरदस्ती बागपत ले आया. तब हम बहुत थक गए थे और भूखे
थे. हमें बाद में पता चला कि हमें 20-20 भैंसों के तबेले में काम करना
होगा, घास काटनी होगी और साथ ही गन्ने के खेतों में भी काम करना होगा. बाद
में पता चला कि वह चौधरी सुखबीर सिंह का घर था और हम बागपत के निरपुडा गांव
में थे.’

कुछ ही दिनों बाद रघु को पास ही के सूप गांव में रहने वाले चौधरी सुखबीर
सिंह के रिश्तेदार उधम सिंह के यहां भेज दिया गया. अपने हाथों पर मौजूद
काटने के निशान दिखाते हुए रघु बताता है, ‘हम दोनों को सुबह छह बजे उठना
होता था. चाय और दो रोटी खाके पहले तबेले में जानवरों का काम करते और फिर
दस बजे के आस-पास खेत में काम करने जाते. वहां हमें घास काटने के साथ-साथ
गन्ने के खेतों में काम करना होता. मुझे गन्ने की जड़ें काटने का काम दिया
गया था. मेरे हाथ बहुत दुखते थे. वे हमें एक भी रुपया नहीं देते थे, हमसे
काम करवाते. हमें होली में घर जाने से भी मना कर दिया. कहते थे, अभी काम
है…अभी नहीं जाओगे. हमारे पास फोन भी नहीं था. वो तो यहां काम करने वाले
एक बड़े भैया जब काम छोड़कर गए तब हमें अपना फोन दे गए. तब जाकर घर पर किसी
से बात हो पाई. हम दिन भर खेतों में काम करते, फिर शाम को आकर जानवरों का
काम करते और रात में तबेलों के पास सो जाते. राजीव राणा जो सुखबीर सिंह का
बेटा है, वही हमारा सारा काम देखता था. वहां गांव में हमारे जैसे और भी
बच्चे थे लेकिन कुछ हमारे लौटने से पहले ही भाग गए.’
तहलका की तहकीकात
प्रकाशित होने के बाद दिल्ली पुलिस की एंटी-ट्रैफिकिंग यूनिट ने राजधानी से
गुमशुदा होने वाले बच्चों की तस्करी के इस नए नेटवर्क का अस्तित्व
स्वीकारते हुए प्राथमिक पड़ताल की शुरुआत भी की, लेकिन लगभग एक साल बाद भी
जमीनी हकीकत जस की तस बनी हुई है.

गेहुएं रंग के मासूम चेहरे वाले सुमन को गले से लगाते हुए उसके पिता
तेजपाल शाह सुबकने लगते हैं. फिर धीरे से खुद को संभालते हुए सिर्फ इतना
कहते हैं, ‘जब सुमन मेरे सामने आया तो पुलिसवालों ने इससे पूछा कि इनको
जानते हो. वो धीरे से बोला, हां, मेरे पापा हैं, और जोर-जोर से रोने लगा.
मैंने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी कि मेरा लड़का मुझे कभी वापस मिलेगा. हम गरीब
लोग हैं लेकिन आज तक अपने लड़के सेे घर पर पानी का ग्लास तक नहीं उठवाया. और
ये लोग मेरे बच्चों को बंधुआ मजदूर बनाकर रखे थे. और भी पता नहीं कितनों
के बच्चे चुराए होंगे. और ये सबजाटों और चौधरियों की खाप पंचायत वाले गांव
हैं. बहुत बड़े और दबंग लोग हैं इसलिए इन्हें लगता है कि ये सबको खरीद सकते
हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘जब से इनका लड़का राजीव गिरफ्तार हुआ है तब से हमारे
पीछे पड़े हैं. गांव से ही चिल्लाना शुरू कर दिया था इन्होंने. गांव के लोग
मुझसे कह रहे थे कि चाहे जितने पैसे ले लूं , लेकिन केस वापस कर लूं. फिर
ये लोग अदालत तक पीछे आए, बच्चों को भी बहलाने की कोशिश की, पुलिस और
वकीलों को सेट करने की कोशिश करने लगे. यह सब देखकर मुझे लगता है कि मैं
बहुत खुशकिस्मत था जो मेरे बच्चे मिल गए. वर्ना इन जैसे लोगों के पास जो
बच्चा फंस जाता है, उसका वापस आना बहुत मुश्किल है’.

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