सुधार के नाम पर- विनोद कुमार

जनसत्ता 19 अक्तूबर, 2013 : कोयला घोटाले को लेकर एक बार फिर हंगामा है। इस बार एक बड़े उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला और पूर्व कोयला सचिव पीसी पारख पर सीबीआइ द्वारा दर्ज एफआइआर को लेकर हंगामा मचा है। बिड़ला देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति हैं और पूर्व सचिव पारख को कोयला घोटाले का खुलासा करने वाले कैग ने ‘विसल ब्लोअर’ कहा था। लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि कई वर्ष पूर्व खदानआबंटित होने के बाद भी बिड़ला की कंपनी ने कोयले की निकासी शुरूक्यों नहीं की अब तक? और पारख ने उन्हें कोयला खदान आबंटित करने का निर्णय कैसे ले लिया, जो कि एक बार इससे इनकार कर चुके थे? पारख का कहना है कि अगर उनका यह निर्णय गलत था तो इस निर्णय में प्रधानमंत्री की भी रजामंदी थी और उनके खिलाफ भी मामला दर्ज होना चाहिए। लेकिन यह सवाल बना रहेगा कि छानबीन समिति द्वारा आबंटन की जगह नीलामी की सिफारिश करने वाले पारख ने अपना निर्णय कैसे बदल दिया?
पिछले वर्ष कोयला घोटाले के खुलासे के बाद लगातार संसद और संसद के बाहर पक्ष और विपक्ष दोनों मुखर हैं। कभी प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगा जाता है तो कभी कानूनमंत्री से। लेकिन इस्तीफा देने की बात तो दूर, अब तक आबंटन में हुई गड़बड़ी के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। केंद्र सरकार का इस मामले में रुख क्या है, यह वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा के इस बयान से साफ हो जाता है कि इस तरह की कार्रवाई से उद्योगपतियों में गलत संदेश जाएगा। यानी निवेश को बढ़ावा देना है और देश में औद्योगिक विकास चाहिए तो इस तरह के भ्रष्टाचार को बर्दाश्त करना ही होगा। यह बयान कुछ उसी तरह का है जैसे बिजली चाहिए तो पर्यावरण के बिगड़ने का खतरा उठाना ही होगा।
कोयला घोटाले को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष में राजनीति तो खूब हो रही है, कार्रवाई नहीं। वजह साफ है और वह यह कि इस हम्माम में सभी नंगे हैं। भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियां भी। मसलन, लूट मुख्यत: झारखंड और ओड़िशा के कोयला भंडारों की हुई है, लेकिन झारखंड के प्रमुख नेता, चाहे वे शिबू सोरेन हों या अर्जुन मुंडा, खामोश हैं। वहीं ओड़िशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को बिड़ला की कंपनी हिंडाल्को से कोई शिकायत नहीं, जिसको लेकर यह ताजा विवाद खड़ा हुआ है। वास्तविकता तो यह है कि क्षेत्रीय पार्टियों के नेता दिल्ली जाकर लुटेरों के पक्ष में लॉबिंग करते रहे हैं। उनकी भी राय मुख्तसर में यही है कि जो आबंटन हुए, अगर उन्हें रद््द किया गया तो राज्य का विकास रुक जाएगा।
यहां उल्लेखनीय है कि कोयला और इस्पात उद्योग के लिए गठित स्थायी समिति ने सरकार को जो अपनी रिपोर्ट सौंपी, उसके अनुसार 1993 से 2008 के बीच कुल 195 कोयला भंडार सरकार ने निजी कंपनियों को आबंटित किए, जिनमें से 160 यूपीए के जमाने में 2004 से 2008 के बीच आबंटित हुए। इस दौरान राज्य में भाजपा नेता अर्जुन मुंडा, 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद एक सप्ताह के लिए शिबू सोरेन, फिर अर्जुन मुंडा और अर्जुन मुंडा सरकार के पतन के बाद यूपीए केकठपुतली मुख्यमंत्री मधु कोड़ा के हाथ में झारखंड की कमान रही। जाहिर है, इनकी सहमति से ही कोयला भंडारों की बंदरबांट हुई। एकाध खदान कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत के परिजन भी लपकने में सफल रहे। कैसी-कैसी कंपनियों को आबंटन किए गए, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक सौ साठ में से सिर्फ दो कंपनियां उत्पादन कर रही हैं।
समिति की सिफारिश है कि जो कंपनियां उत्पादन नहीं कर रहीं, उनका आबंटन रद््द कर दिया जाना चाहिए। लेकिन इस दिशा में सच पूछिए तो अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। कभी होगी भी, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। हमारी दिलचस्पी इस बात में है कि आखिरकार कंपनियां उत्पादन क्यों नहीं कर रहीं, क्योंकि घोटाले की पूरी कहानी इसी बात में छिपी है।
दरअसल, इन कंपनियों ने यह बता कर कोल ब्लॉक लिया था कि कोयला उनके अपने बिजली संयंत्र, इस्पात संयंत्र या किसी अन्य कारखाने में इस्तेमाल होगा, क्योंकि आबंटन की सुस्पष्ट शर्त यह थी कि कोयला भंडार, कोयला निकाल कर बाजार में बेचने के लिए नहीं, बल्कि उनके उद्योग में उपयोग के लिए आबंटित किया जाएगा। लेकिन अधिकतर कंपनियां ऐसी हैं जिनके पास न तो अपना विद्युत संयंत्र है, न इस्पात कारखाना या फिर ऐसा कोई अन्य उद्योग, जहां कोयले की निकासी कर वे उसका उपयोग कर पातीं। हिंडाल्को के जिस कोयला भंडार को लेकर विवाद उठा है, वह भी किसी अन्य को मिला था, जिसे हिंडाल्को ने सन 2000 में हथिया लिया।
इन निजी कंपनियों ने कोल भंडार माले-मुफ्त समझ कर ले तो लिया, लेकिन उसका उपयोग नहीं कर सकीं। उन्हें लगता रहा होगा कि देर-सबेर सुधार के नाम पर सरकार कंपनियों को कोयला निकासी कर उसे बेचने की छूट दे देगी और वे आठ सौ से आठ हजार फीसद तक मुनाफा अर्जित कर सकेंगी। ऐसा हम नहीं कहते, कैग की रिपोर्ट कहती है, जिसके खुलासे के लीक हो जाने के बाद यह घोटाला चर्चा में आया।
कोयला ऊर्जा का एक बड़ा स्रोत है। लेकिन उसी तरह खत्म हो जाने वाला स्रोत, जैसे पेट्रोल या कोई भी अन्य प्राकृतिक संपदा। इसलिए यह जरूरी है कि उसकी लूट या बर्बादी न हो। सौभाग्य से भारत में दुनिया के कुल कोयला भंडार का पांचवां भाग जमीन के भीतर दबा पड़ा है। कोयला श्रमिकों को शोषण से बचाने और कोयला उद्योग को सही ढंग से चलाने के उद््देश्य से सरकार ने सत्तर के दशक में कोयला उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया और सरकारी क्षेत्र में सीसीएल का गठन हुआ।
सीसीएल में आज की तारीख में भी डेढ़- दो लाख नियमित कामगार हैं। लेकिन भ्रष्टाचार और लालफीताशाही की वजह से यहां कार्य-संस्कृति का अभाव है। एक साजिश के तहत उत्पादन लक्ष्य कम रखा जाता है और फिर शोर मचाया जाता है कि देश की आवश्यकता को पूरा करने में यह सक्षम नहीं। सरकार के भीतर और बाहर बैठे निजीकरण के पैरोकार रह-रह कर ‘सुधार’ की गुहार लगाते रहते हैं। परिणामस्वरूप दो दशक पहले सरकार ने यह निर्णय लिया कि कोयले की निकासी पर एकाधिकार सिर्फ सीसीएल का न रहे, बल्कि एंड-यूजर्सयानीउसका औद्योगिक इस्तेमाल करने वालों को भी खदानें आबंटित की जाएं।
फिर क्या था? देखते-देखते कोयले के दलाल, मंत्रियों के नाते-रिश्तेदार कोयला भंडार अपने नाम आबंटित करवाने में सफल रहे। लेकिन उन्होंने कोयले की निकासी नहीं की, क्योंकि वे वास्तव में अंतिम उपयोगकर्ता (एंड यूजर) थे ही नहीं। उन्हें तो इंतजार था ‘सुधार’ का, ताकि उन्हें लूट की छूट मिल सके। लेकिन राजनीतिक दलों की आपसी प्रतिस्पर्धा की वजह से यह मामला उजागर हो गया।
अपने देश में 280 अरब टन कोयला और 4.1 करोड़ टन लिगनाइट का भंडार है। यह भंडार कितना बड़ा है इसका अनुमान इस तथ्य से हम लगा सकते हैं कि पूरी दुनिया फिलहाल सात अरब टन कोयले का इस्तेमाल प्रतिवर्ष कर रही है। वर्ष 2013-14 में भारत को 77 करोड़ टन कोयले की जरूरत पड़ेगी। लगभग साठ करोड़ टन कोयले की जरूरत की पूर्ति घरेलू उत्पादन से हो जाएगी। करीबन साढ़े सोलह करोड़ टन कोयले का आयात होगा।
सुधार की गुहार लगाने वाले मांग और आपूर्ति के इस अंतर को दिखा कर ही बार-बार कोयला उद्योग के निजीकरण का शोर मचाते रहते हैं। उन्होंने गुहार लगाई कि देश को आने वाले दिनों में दस हजार मेगावाट अतिरिक्त बिजली की जरूरत पड़ेगी। कई बिजली संयंत्र लगने वाले हैं। उनकी जरूरत भर कोयले का उत्पादन सीसीएल नहीं कर सकेगी। सरकार ने निजी कंपनियों को बीस हजार मेगावाट उत्पादन के लायक कोयला खदानों का आबंटन कर दिया। अब तक जो 194 कोयला भंडार आबंटित किए गए हैं, उनमें 40 अरब टन कोयला जमीन के नीचे दबा है। लेकिन नतीजा सिफर रहा। क्योंकि निजी कंपनियां कोयले की कमी और संभावित खर्च को मुद््दा बना कर कोयला उद्योग का निजीकरण चाहती हैं। सुधार के नाम पर लूट की छूट चाहती हैं। कोयला आधारित उद्योग लगाने की न उनमें कुव्वत है न उनकी मंशा। वे तो बस इतना चाहती हैं कि कोयला निकाल कर बेचने की उन्हें छूट मिल जाए। बिजली संयंत्र लगाना, इस्पात संयंत्र लगाना भारी खर्च और समय का काम है। आनन फानन नहीं हो सकता। आसान है कोयला निकाल और बेच कर जबर्दस्त मुनाफा कमाना।
सरकार चाहे तो कोल इंडिया को दुरुस्त कर या फिर सार्वजनिक क्षेत्र में ही कोल इंडिया जैसी एक नई कंपनी गठित कर कोयले की निकासी के काम में तेजी ला सकती है और देश की जरूरत को पूरा कर सकती है। लेकिन फिर निजीकरण का रास्ता कैसे प्रशस्त होगा? लूट की छूट कैसे मिलेगी! क्योंकि अभी तो कंपनियों को ‘एंड यूजर’ के नाम पर प्रति टन कोयला निकासी पर मात्र छब्बीस रुपए का राजस्व देना पड़ता है। यह सही है कि जिन कंपनियों को कोयला भंडार आबंटित किए गए, उन्होंने अभी कोयला निकालने का काम शुरू नहीं किया। लेकिन आबंटन करवाने में भ्रष्ट नेताओं की खूब कमाई हुई। दलाल किस्म के ये नेता हर पार्टी में हैं। इसलिए कोयला घोटाले का ख्ुालासा होने के बाद भी कार्रवाई कम और राजनीति ज्यादा हो रही है।
गौरतलब यह है कि भ्रष्टाचार का घुन तो हर तरह की आबंटन नीति में लग सकता है। नीलामी का विरोध इस वजह से हो रहा था कि कोयला राष्ट्रीयसंपत्ति और ऊर्जा का एक प्रमुख स्रोत है, जो खत्म हो जाने वाला है। उसे विभिन्न विभागों के मंत्रियों की छानबीन समिति विवेकसंगत तरीके से आबंटित करेगी। लेकिन विवेक को भ्रष्टाचार लील गया। अब नीलामी की बात हो रही है। खतरा यह है कि कॉरपोरेट जगत गुट बना कर औने-पौने दामों में कोयला भंडार आबंटित करा ले सकता है। इसलिए कम से कम यह सुनिश्चित होना चाहिए कि कोयला उसी कंपनी को आबंटित हो जो उसका उपयोग करे। कोयला खरीद-फरोख्त से मुनाफे की वस्तु नहीं है।

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