इन आठ सालों में जनता ने इस कानून और इसके जरिये मिले अधिकार का भरपूर
इस्तेमाल किया है, इस बात में कोई मतभेद नहीं हो सकता. व्यक्तिगत काम कराने
के लिए भी और देश, समाज व समुदाय के हित में भी. सरकार की गलतियों, सरकारी
तंत्र के भ्रष्टाचार और मनमानेपन को नंगा करने में भी इस कानून का
इस्तेमाल आम जनता ने किया. इसमें वैसे लोग शामिल हुए, जिनका किसी राजनीतिक
या संगठनात्मक गतिविधियों से कोई लेना देना नहीं रहा. इस कानून ने आम आदमी
को वह ताकत दी, जिसने उसे दूसरे कानूनी और संवैधानिक अधिकारों को हासिल
करने में मदद की.
अधिकार में कटौती की कोशिश, पर अप्रत्याशित नहीं इन आठ सालों में इस
कानून में संशोधन के कई प्रयास किये गये. एक चर्चित कोशिश इस साल सफल रही –
राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे से बाहर करने की. यह आरटीआइ को बड़ा
झटका है. हालांकि यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है. यह अप्रत्याशित भी नहीं
है. सूचना का अधिनियम बनाने और उसे लागू करने की लड़ाई में शामिल रहे और
उससे सरोकार रखने वाले लोग यह जानते हैं कि इस कानून का बनना आश्चर्य का
विषय रहा, इसकी धार को भोथरा करने की कोशिश नहीं. इस कानून की राह में बाध
पैदा करने का प्रयास कभी आश्चर्य का विषय नहीं रहा. आरटीआइ को लेकर जिन
बड़ी हस्तियों ने खुद को संघर्ष का हिस्सा बनाया, उनमें वरिष्ठ पत्रकार
प्रभाष जोशी का नाम पहली पंक्ति में आता है. जोशी जी की जनसत्ता में लिखी
ये बातें हमारी समझ को मांजती हैं, ‘.. लगा था कि इस देश की नौकरशाही यह
कभी नहीं होने देगी कि सूचना का अधिकार के जरिये इस देश का आम आदमी सरकार
चलाने में सीधी भागीदारी पा सके. सूचना अगर सत्ता है, जो राजनेताओं के पास
है, तो वे उसे बांटना नहीं चाहेंगे. राजनेता से ज्यादा देश का नौकरशाह उस
सत्ता पर अधिकार किये हुए है और वह उसे जनता के हाथ में नहीं जाने देगा.’
हमारी उम्मीद, बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी आएं आरटीआइ के दायरे में
हां, राजनीतिक दलों को आरटीआइ से अलग करने का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण जरूर
है. दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए कि हम यह उम्मीद कर रहे थे कि आगे चल कर
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी आरटीआइ के दायरे में लाया जायेगा. जोशी कहते
थे, ‘जिस देश में भोपाल जैसा सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा (उसका इशारा 2-3
दिसंबर 1984 की रात में हुए भोपाल गैस रिसाव कांड की ओर था) हुआ, वहां
यूनियन कारबाइड जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को कानून (आरटीआइ एक्ट) के
दायरे में नहीं लाया गया है.
हमें अपने लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास बनाये रखना चाहिए. अगर
पांच साल में हमारी संसद दो विधेयक पास कर सकती है, तो एक दिन सूचना का
अधिकार कानून ऐसा बन सकता है, जो भोपाल जैसे हादसे को भी रोक सके.
लोकतंत्र लोक के पराक्रम पर चलता है. हम लोक को जगाये रखें.’ जाहिर है कि
राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे से अलग रखने की नयी व्यवस्था ने इस लोक
पराक्रम को ऐसे झकझोरा कि अब तो आरटीआइ की बात करने और उसके लिए लड़ने वाली
गैर सरकारी संस्थाएं(एनजीओ) भी कहने लगी हैं कि अगर राजनीतिक दलों को
आरटीआइ के दायरे से बाहर कर दिया है, तो हमें (एनजीओ सेक्टर) भी इस कानून
से छूट दो. यह बड़ा ‘घटनात्मक बदलाव’ है.
आरटीआइ का कमजोर पक्ष
आरटीआइ एक्ट में कई कमियां हैं, जो इसे कमजोर करती है. इन आठ सालों में उन
कमियों को दूर करने की जरूरत थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अलबत्ता संशोधन के
जरिये इसे और कमजोर करने का सरकारी स्तर पर प्रयास हुआ. हम उनमें से कुछ
कमियों की चर्चा कर रहे हैं.
प्रथम अपीलीय पदाधिकारी पर अंकुश नहीं
सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 का सबसे कमजोर पक्ष है प्रथम अपीलीय
पदाधिकारी और उसके स्तर से प्रथम अपील का निष्पादन. अधिनियम की धारा 19(1),
19(2) एवं 19(6) में प्रथम अपील और उसके निष्पादन के प्रावधानों की चर्चा
है, लेकिन प्रथम अपीलीय पदाधिकारी को अपने कर्तव्य पालन में लापरवाही या
उपेक्षा बरतने पर किसी प्रकार के दंड का प्रावधान नहीं है. इसे लेकर कुछ
राज्यों में कई तरह के प्रयोग हुए. बिहार में तो राज्य सूचना आयोग ने पहले
‘प्रयोग’ के तहत 30 हजार अपील को इसी आधार पर रद्द कर दिया कि उनमें प्रथम
अपीलीय पदाधिकारी के स्तर से निष्पादन प्रक्रिया पूरी नहीं की गयी थी.
जनता को अधिकार देने वाले जो कानून बाद में बने, उनमें इस कमी को दूर किया
गया है, लेकिन आरटीआइ एक्ट में सुधार नहीं हुआ.
फाइन की वसूली नहीं हो पा रही
आरटीआइ एक्ट में लोक सूचना पदाधिकारी पर जर्माना और हर्जाना लगाने की शक्ति
का प्रावधान तो किया गया, लेकिन उनकी वसूली को लेकर कोई व्यवस्था नहीं की
गयी. लिहाजा राज्य सूचनाओं आयोगों ने बड़ी संख्या में ऐसे आदेश पारित किये,
जिनमें दोषी अधिकारी को जुर्माना और हर्जाना चुकाने को कहा गया, लेकिन
उसकी वसूली नहीं हो सकती. इस कमी को लोक सेवा का अधिकार अधिनियम और
इलेक्ट्रॉनिक सर्विस डिलिवरी एक्ट में दूर किया गया है, लेकिन आरटीआइ एक्ट
में सुधार नहीं हुआ.
सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में ‘कृपा दृष्टि’ का नुकसान
यह अकेले बिहार या झारखंड की बात नहीं है. देश के दूसरे राज्यों की जनता और
एक्टिविस्टों का अनुभव यही कहता है. इन आठ सालों में आरटीआइ का सबसे कमजोर
पक्ष राज्य सूचना आयोग रहा. इसके लिए सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की
प्रक्रिया को जिम्मेवार माना गया. इस नियुक्ति में सरकार की ‘कृपा दृष्टि
का सिद्धांत’ ज्यादा लागू हुआ. लिहाजा जिन आयुक्तों को आरटीआइ की रक्षा
करनी थी, उनमें से ज्यादातर पर सरकार के चौकीदार होने का आरोप लगा. आयोग की
कमजोरी का लाभ उस पक्ष को मिला, जिसके खिलाफ यह कानून लगाया गया. आयोगों
की स्थिति यह रही कि वे दोषी लोक सूचना पदाधिकारियों पर लगाये गये जुर्माने
और हर्जाने की वसूली तक नहीं करा पाये. नौकरशाहों ने आयोग को उसकी सीमा तक
बांध दिया. बिहार में वर्ष 2010-11 में 8.32 लाख रुपये का फाइन लोक सूचना
पदाधिकारियों को किया गया, लेकिन वसूली केवल 31 हजार की हुई. आलोचना हुई,
तो अगले साल वसूली की दर बढ़ाने की बजाय फाइन की दर घट गयी. यह 8.32 लाख से
लुढ़क कर 2.00 लाख हो गयी.
सूचना आयोग से मोहभंग
निखिल डेजैसेआरटीआइ एक्टिविस्ट मानते हैं कि सूचना आयोग आरटीआइ के अनुकूल
काम नहीं कर रहे. पिछले माह पटना आये श्री डे ने बिहार के एक्टिविस्टों को
इसका विकल्प तैयार करने की सलाह दी. यह विकल्प सूचनाओं को ज्यादा से
ज्यादा लोगों के बीच प्रसारित करने और लोक सूचना पदाधिकारी की कार्यशैली को
लेकर जन दबाव बनाने के रूप में हो सकता है. उन्होंने अपना अनुभव बांटा. यह
राजस्थान के राज्य सूचना आयोग से जुड़ा था. उन्होंने कहा, आयोग जाना, वक्त
बरबाद करना है. झारखंड में आयोग को लेकर कई बार जनता के बीच बहस हुई. हर
बार लोगों का आस्था कमजोर हुई. दूसरे राज्यों का भी करीब-करीब ऐसा ही
अनुभव है.
जनतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी हैं ये कानून
आरटीआइ आम जनता के बीच लोकप्रियता और प्रयोग के मामले में अब तक का सबसे
सफल कानून रहा है. इस ने सरकारी गुप्त बात अधिनियम जैसे काले कानून को मार
कर सच्चे जनतंत्र का रास्ता निकाला. इस ने तमाम बातों के बावजूद जनता में
नये आत्मविश्वास का संचार किया और सरकारी तंत्र की उस सोच में बदलाव लाया,
जो अपने काम-काज में जनता के हस्तक्षेप को जरा भी कबूल करने का तैयार नहीं
था. इस ने जनता को अन्य संवैधानिक अधिकारों को प्राप्त करने में मदद की. इस
सबके बावजूद आरटीआइ अभी अधूरा है. सूचना हासिल करने का रास्ता तो इससे
मिल गया, लेकिन इस रास्ते में बिछी चुनौतियों और खतरों को कम करने तथा
सूचना हासिल करने के बाद की कार्रवाई के कानूनी औजार अभी जनता को नहीं मिले
हैं. इसके लिए देश भर में सोशल एक्टिविस्ट अपने स्तर से आंदोलन कर रहे
हैं और सरकार पर दबाव बनाने में जुटे. इस आंदोलन का विस्तार सभी इलाकों
में होना चाहिए.
शिकायतकर्ता सुरक्षा कानून : यह ऐसा कानून होगा, जो शिकायतकर्ता को वैसे
तत्वों से सुरक्षा प्रदान करेगा, जो उनके जान-माल को नुकसान पहुंचने की
मंशा रखते हैं या ऐसा करने की कोशिश करते हैं. यह बिल अभी संसद में पड़ा
हुआ है.
शिकायत निवारण कानून : यह एक प्रकार से आरटीआइ पार्ट-टू है. अभी आरटीआइ
के जरिये हम वैसी सूचनाएं निकालने में सफल हो जा रहे हैं, जो इस बात के
साक्ष्य हैं कि सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों ने किसी मामले में गंभीर
गड़बड़ी की या भ्रष्टाचार किया, लेकिन उस पर कार्रवाई को लेकर स्थिति वही
ढाक के तीन पात जैसी होती है.
सुनवाई का अधिकार कानून : यह बिल भी अभी प्रक्रिया में पड़ा हुआ है.
राजस्थान सरकार ने यह कानून बनाया है और उसे लागू भी किया है. इस तरह के
केंद्रीय कानून की जरूरत पूरे देश को है.
आरटीआइ एक्ट बना मॉडल
आरटीआइ एक्ट की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि नागरिकों को अधिकार देने के
मामले में यह एक मॉडल एक्ट बन गया. प्रभाष जोशी इसे पश्चिमी देशों के
लोकतांत्रिक अधिकार वाले कानून से बेहतर मानते थे. यह लोकप्रिय भी बहुत
हुआ. इसके प्रयोग में सभी वर्ग के लोग आगे गये. कम पढ़े-लिखे और गांव-समाज
के आम कहे जाने वाले लोगों ने इस अधिकार को खूब आजमाया भी और इसे हथियार के
रूप में भ्रष्टाचारियों, बिचौलियों, अधिकारियों और ठेकेदारों के आगे
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चमकाया भी. शायद इसका भी प्रभाव रहा कि बाद में जनता को अधिकार देने वाले
जितने भी कानून बने, करीब-करीब सभी का आधार और पैटर्न यही कानून बना. जैसे
लोक सूचना का अधिकार, जन सुनवाई का अधिकार अधिनियम, इलेक्ट्रॉनिक सर्विस
डिलिवरी एक्ट वगैरह.