भूख के खिलाफ जंग में अब भी पीछे भारत- अरविन्द मोहन

कायदे से जिस साल भारत में खाद्य सुरक्षा कानून बना है और भोजन के हक पर
व्यापक चर्चा हुई, उसमें तो संयुक्त राष्ट्र  के संगठन फूड एंड एग्रीकल्चर
ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) द्वारा जारी नये हंगर इनडेक्स की भी खूब चर्चा होनी
चाहिए थी, पर ऐसा नहीं हुआ. कुछेक अखबारों में थोड़ी विस्तृत और बाकी में
हल्के-फुल्के ढंग से खबर छप कर बात समाप्त हो गयी. कुछ लोग इस बात से
संतुष्ट दिखे कि सूचकांक में भारत कुछ ऊपर आया है, कुपोषण के आंकड़ों में
हल्की गिरावट दिखी है. यह बात खुश होने की है, लेकिन पूरे आंकड़ों पर गौर
करने और सबसे तेज आर्थिक विकास वाले मुल्कों में शामिल होने के दावे के साथ
इसे जोड़ कर देखने पर शर्म ही आती है. शर्म की बात यह भी है कि इस बीच
स्थिति में जितना सुधार हुआ है, उससे ज्यादा बदलाव मानकों में किया गया है.
पहले जितनी कैलोरी रोजाना के भोजन को कुपोषण व स्वस्थ भोजन का विभाजक आधार
मानते थे, अब उसे काफी नीचे कर दिया गया है. अगर इस हिसाब से देखें तो
भारत में ही नहीं, दुनियाभर में स्थिति सुधरने के दावों पर पानी फिर जाता
है. यह स्थिति तब है जब दुनिया भर में अनाज की बंपर पैदावार के चलते उसकी
कीमतों में 16 से 36 फीसदी तक की कमी दर्ज की गयी है.

एफएओ के आंकड़ों के अनुसार 2011-2012 में दुनिया के 84.2 करोड़ लोगों को
भर पेट भोजन नसीब न था. यह संख्या 2010-11 के 87 करोड़ से कुछ कम तो है,
पर संगठन ने यह बताना भी जरूरी माना है कि अनाज की रिकार्ड वैश्विक पैदावार
(248.9 करोड़ टन) के बीच कुपोषण की यह स्थिति चिंताजनक है. हमारे लिए
चिंता और शर्म की बात यह है कि हम भी अनाज का रिकार्ड उत्पादन कर रहे हैं,
पर भूख से पीड़ित लोगों की कुल संख्या का करीब एक चौथाई, दुनिया में सबसे
ज्यादा, भारत में है. भारत में कुपोषितों की संख्या 21 करोड़ से ज्यादा है.
गर्भवती महिलाओं, नवजात से लेकर स्कूली बच्चों तक के लिए आहार योजना
चलाने, भोजन का अधिकार देने के साथ सस्ते से सस्ता और कई बार लगभग मुफ्त
अनाज देने की योजनाएं चलाने का दावा करने के बाद की यह ‘उपलब्धि’ तो
शर्मनाक ही मानी जायेगी. इसमें भी खास शर्म की बात यह है कि सबसे ज्यादा
कुपोषित बच्चे और औरतें ही हैं. एकमात्र राहत की बात शायद यही है कि
कुपोषित बच्चों की संख्या और अनुपात में गिरावट की रफ्तार ज्यादा है. भारत
में कुपोषित लोगों का अनुपात 21 की जगह 17.5 फीसदी रह गया है, अपनी आयु के
हिसाब से कम वजनवाले बच्चों का अनुपात 43.5 से गिर कर 40 फीसदी हो गया है.
पांच वर्ष से कम आयुवर्ग में शिशु मृत्यु दर 7.5 से गिर कर 6 फीसदी हो गयी
थी. पर एक तो यह अनुपात अभी ऊंचा है, दूसरे हम सहस्नब्दि विकास लक्ष्य से
पीछे हैं, तो उसकी वजह यही है. इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि हल्के
सुधार के बावजूद भारत सूडान, कांगो, चैड, नाइजर जैसे देशों के साथ खतरे/> वाली श्रेणी में बना हुआ.

 सूचकांक में शामिल आंकड़े पोषण, स्वास्थ्य और स्वच्छता भर के हैं और
इनमें भी हम सिर्फ एशिया में ही नहीं, अफ्रीका के गरीब देशों से भी काफी
पीछे हैं. बांग्लादेश और श्रीलंका तो हमसे काफी आगे है, पाकिस्तान भी कई
मामलों में आगे है. संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में भी भारत
पाकिस्तान से भी पीछे है और कई मामलों में बांग्लादेश और नेपाल-भूटान से भी
पिछड़ा है. बुरा यह है कि भारत में सुधार की रफ्तार दुनिया के औसत से ही
नहीं, एशिया के औसत से भी कम है. हाल में हुए दूसरे सव्रेक्षणों से पता
चलता है कि भारत में भोजन की पौष्टिकता की गिनती भी गड़बड़ा रही है. कभी एक
स्वस्थ व्यक्ति को रोज 2200 कैलोरी ऊर्जा दे सकनेवाले भोजन को पर्याप्त
माना जाता था. अब यह मानक ही घटा कर 2000 और 1950 कैलोरी पर ले आया गया है.
हाल के एनएसएस के आंकड़े इसी आधार पर तैयार हुए थे.

हमारे योजना आयोग की रिपोर्ट बताती है कि 1983 तक भी हमारे गरीबों को जो
प्रोटीन और कैलोरी मिलता था, उसमें भी कमी आ गयी है. ग्रामीण इलाकों में
यह गिरावट आठ फीसदी है, तो शहरी इलाकों में तीन फीसदी. संभवत: यह कमी दालों
की खपत घटने से हुई है. यह आंकड़ा भी कम चौंकाऊ नहीं है कि आज भी ग्रामीण
आबादी का लगभग दो तिहाई और शहरी आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा दोनों शाम
भरपेट भोजन नहीं करता. हमारे आधे से भी ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं और यह औसत
अफ्रीका के सबसे गरीब देशों से भी बुरा है. दुनिया में सबसे ज्यादा अंधापन
हमारे यहां है. हमारे आधे से ज्यादा बच्चों को सभी रोग-निरोधी टीके नहीं
लगते. साल-दर-साल पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के कुछ इलाकों में
एक ही महामारी फैलती है और बच्चे पटपटाकर मरते हैं. सरकार सब जान कर चुप्पी
साधे रहती है. मुल्क के आधे से ज्यादा घरों में शौचालय और साफ पानी के
इंतजाम नहीं हैं. पर यह भी हुआ है कि मानव विकास रिपोर्ट के आधार पर योजना
आयोग और उसके पीछे-पीछे अंगरेजी मीडिया देश में समृद्धि आने का ढिंढोरा
पीटने में लग गया है. पक्के मकान, बिजली, फोन, स्कूल जानेवालों की संख्या
का हवाला देकर मानव विकास सूचकंक में 20 फीसदी सुधार का दावा किया गया है.
इसी आधार पर करीब दो करोड़ लोगों के गरीबी से मुक्त होने का भी दावा किया
गया है. पर सबसे ज्यादा चिंताजनक बात भारतीय गरीबी और कुपोषण का जिद्दीपना
है.

 यह आम हिसाब है कि विकास की रफ्तार जितनी हो, उसकी आधी रफ्तार से
कुपोषितों की संख्या कम होती जाती है, लेकिन भारत में आधी क्या, चौथाई दर
से भी कुपोषण कम नहीं हो रहा. अगर चिदंबरम साहब के सवा छह फीसदी से ज्यादा
दर से विकास का दावा मानें तो कुपोषण को कब का खत्म हो जाना चाहिए था. अपने
यहां कुपोषण में कमी आने की रफ्तार 0.7 फीसदी से भी नीचे आती है. कुपोषित
लोगों, बच्चों और शिशु मृत्यु दर की चर्चा ऊपर की ही जा चुकी है. गरीबी
घटने का नामनहींले रही है. हाल में 28 रुपये और 2 रुपये के आधार पर जब
गिनती बतायी गयी तो क्या परिदृश्य उभरा, सब जानते हैं. माना जाता है कि अब
भी भारत में कुपोषितों से ज्यादा चिंताजनक स्थिति बच्चों और औरतों की है.
एक अनुमान के अनुसार 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 52 फीसदी औरतें रक्ताल्पता
की शिकार है. कहना न होगा कि यह भोजन के साथ चार पैसे की आयरन गोली की कमी
का नतीजा है, जिसे उपलब्ध कराना सरकारों की प्राथमिकता में नहीं रहा है. हम
जानते हैं कि आयोडीन की कमी से घेंघा जैसे रोगों ने कुछ इलाकों में क्या
जुल्म ढाया है. पानी में कुछ पैसों का कीटनाशक न डालने से नारू जैसे रोग
जीवन को अपंग बना देते हैं. लेकिन हमारे कथित विकास की एक सच्चाई यह भी है!

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