जनसत्ता 16 अक्तूबर, 2013 : सर्वोच्च अदालत के दो ताजा लागू फैसलों और केंद्रीय चुनाव आयोग के एक गैर-लागू निर्णय के बाद चुनावी भ्रष्टाचार के दलदल में रसूखदार राजनीतिकों के धंसने का नया युग शुरू हो गया है। न्यायमूर्ति अनंगकुमार पटनायक और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की पीठ ने दस जुलाई के ऐतिहासिक निर्णय के जरिए यह कील ठोंक दी है कि दो वर्ष या इससे अधिक की सजा पाने वाला कोई भी सांसद या विधायक अपनी सदस्यता कायम नहीं रख सकता; वह छह साल तक चुनाव भी नहीं लड़ पाएगा। नागरिकों के लिए तो अयोग्यता का वैसा कानून पहले से रहा है। दूसरा क्रांतिकारी फैसला मुख्य न्यायाधीश सदाशिवम की अध्यक्षता वाली पीठ ने सुनाया है, जो मतदाता को संवैधानिक अधिकार देता है कि वह कोई भी उम्मीदवार पसंद न होने पर अपनी नापसंदगी जाहिर कर सके। इसके इजहार के लिए मतदान मशीन यानी इवीएम में एक अतिरिक्तबटन होगा। तीसरा महत्त्वपूर्ण फैसला तीन जून को केंद्रीय सूचना आयोग की पूर्ण पीठ का आया। आयोग ने जोर देकर कहा कि सूचना अधिकार अधिनियम की धारा 2 (ज) के अनुसार राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकारी (पब्लिक अथॉरिटी) माना जाएगा। राजनीतिक दलों ने बहुत चिल्लपों मचाई और आयोग के फैसले से बचने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम में वर्णित लोक प्राधिकारी की परिभाषा से राजनीतिक दलों को अलग करने के लिए संसद में संशोधन-विधेयक भी पारित कर दिया।
चुनाव सुधार को लेकर सरकारों की पीठ पर न्यायालयीन पीठों के निर्णयों के कोड़े पड़ते रहे हैं। लेकिन वह मगर की चमड़ी की तरह ढीठ ही रही है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स नामक स्वैच्छिक संस्था ने 1999 में दिल्ली उच्च न्यायालय में दस्तक दी कि भारतीय विधि आयोग की एक सौ सत्तरवीं रिपोर्ट को लागू करने के लिए वह आदेश दे। याचिकाकर्ता ने केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा गठित वोहरा समिति की सिफारिशों का भी हवाला दिया, जिससे आपराधिक प्रवृत्ति के उम्मीदवारों से चुनाव प्रक्रिया को बचाया जा सके। दिल्ली उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि, आर्थिक स्थिति और लोकप्रतिनिधित्व की क्षमता के आकलन और तत्संबंधी सूचना उम्मीदवारों से ही प्राप्त करने संबंधी निर्देशावली बनाए।
फैसले के विरुद्ध वर्ष 2001 में केंद्र की राजग सरकार ने सर्वोच्च अदालत में अपील दायर की। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर कर मांग की कि सर्वोच्च अदालत के निर्णय को अनुच्छेद 141 के तहत देश में लागू कानून की तरह समझा जाए। महाधिवक्ता हरीश साल्वे ने सुप्रीम कोेर्ट से कहा कि जब तक केंद्र सरकार कानूनों में संशोधन करना जरूरी नहीं समझती, हाइकोर्ट को निर्देश देने का अधिकार नहीं है। यह राजनीतिक दलों का अधिकार है कि चुनाव कानूनों में संशोधन किए जाएं या नहीं।
आश्चर्यजनक तो यह हुआ कि कांग्रेस ने भी सरकारी तर्क से गलबहियां करते हुए अपने वकील अश्विनी कुमार के जरिए मौसेरे भाई की कथा का पाठ किया कि आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति आदि आधारों को संविधान सभा ने भी चुनाव कानून में शामिल करना जरूरी नहीं समझा था; कांग्रेस को चुनावों की पवित्रता पर विश्वास है, वहआपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों को विधायिका में आने के लिए समर्थन नहीं देती। लेकिन ऐसा निर्णय केवल संसद में पारितअधिनियम द्वारा ही लागू किया जा सकता है।
चुनाव आयोग को स्वायत्तता संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के तहत दी गई है। आयोग के अधिवक्ता केके वेणुगोपाल ने हाइकोर्ट के निर्देशों और याचिकाकर्ताओं के अनुरोध के अनुरूप अपने सुझाव प्रस्तुत किए। पीयूसीएल के वकील राजिंदर सच्चर ने विनीत नारायण बनाम भारत संघ के मुकदमे का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत में बहुत अधिक निरक्षरता है। फिर भी अगर मतदान के पहले उम्मीदवारों के चरित्र और अन्य जानकारियों का कच्चा चिट््ठा खोल दिया जाए, तो वे सही उम्मीदवार का चुनाव कर सकते हैं। एसोसिएशन की वकील कामिनी जायसवाल ने भी माना कि चुनाव आयोग को अनुच्छेद 324 के तहत जानकारियां मांगने का संवैधानिक अधिकार और कर्तव्य दोनों हैं। सर्वोच्च अदालत ने बाईस पिछले निर्णयों का उल्लेख करते हुए निर्वाचन आयोग से कहा कि वह उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि, मुकदमों, संपत्तियों, सरकारी संस्थाओं को देनदारियों और शैक्षणिक योग्यताओं के संबंध में उनसे ही जानकारी मांगे। तभी उन्हें चुनाव लड़ने की पात्रता होगी।
निर्देशों का पालन करने की आड़ में राजग सरकार ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में धारा 33 (क) और धारा 33 (ख) जोड़ा। धारा 33 (क) के तहत उम्मीदवार को बताना होगा कि उसके विरुद्ध ऐसे मुकदमों का निर्णय या कायमी है जिनके तहत दो वर्ष से अधिक की सजा हुई है या हो सकती है या उसे धारा 8 में वर्णित अन्य अपराधों की सजा मिली हो। निर्णय का मजाक उड़ाती धारा 33 (ख) में कहा गया कि अदालती निर्णय या चुनाव आयोग के निर्देश के बावजूद उम्मीदवार उपरोक्तसूचनाएं तब तक नहीं देंगे, जब तक संबंधित अधिनियमों या नियमों में इसका प्रावधान नहीं किया गया हो। यह उपधारा सर्वोच्च अदालत को ठेंगा दिखाने की वर्जिश ही थी। पीयूसीएल ने 2002 में फिर याचिका दायर की कि धारा 33 (ख) को असंवैधानिक करार दिया जाए।
सर्वोच्च अदालत ने भी कटाक्ष किया कि कभी ताकतवर, अमीर या डाकू साठ वर्ष की उम्र में भी जबरिया किसी नवयुवती के विरोध के बावजूद उसे अपनी पत्नी बना लेते थे। रोने-चीखने के अतिरिक्तउस नवयुवती के पास कोई विकल्प नहीं होता था। अब युवजन, लेकिन अपनी मर्जी से भी जीवन साथी चुन सकते हैं। क्या एक गतिशील लोकतंत्र में मतदाता को जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि जो प्रतिनिधि उसके शासक, विधायक, बल्कि भाग्यनिर्माता बनेंगे, उनका जीवन परिचय क्या है? सर्वोच्च अदालत ने छप्पन पूर्ववर्ती निर्णयों में और विदेशी लोकतंत्रों की पुष्ट परंपराओं पर भी प्रकाश डाला। तीन सदस्यीय पीठ ने सर्वसम्मत फैसला किया कि चुनाव आयोग को दे दिए गए निर्देश लागू रहेंगे। धारा 33 (ख) को सर्वोच्च अदालत ने तत्काल प्रभाव से निरस्त कर दिया।
मुख्य सूचना आयुक्तसत्यानंद मिश्र की अध्यक्षता वाली पूर्ण पीठ के फैसले को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने चुनौती के लहजे में कहा कि उनकी पार्टी निर्णय को न्यायालय में चुनौती देकर खारिज भी कराएगी। जद (एकी) के शरद यादव, माकपा के प्रकाश करात, कम्युनिस्ट पार्टी के एबी बर्द्धन और भाजपा आदि की प्रतिक्रियाएं पवित्रता काकोरसगाते-गाते आयोग पर हमला करने के बहाने नागरिकों के सार्वभौम अधिकारों को ही परोक्ष चुनौती देती लगीं। बसपा और राकांपा ने खुद को लोक प्राधिकारी बताए जाने पर आपत्ति की। एक ओर सर्वोच्च अदालत की लगातार चिंताओं से रूबरू और संपृक्तहोने के बाद संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम बनाया। पर दूसरी ओर उसी संसद ने उस अधिनियम को और जनोन्मुखी बनाने वाले सूचना आयोग के फैसले को प्रभावहीन कर दिया।
दागी सांसदों और विधायकों संबंधी सरकार की पुनर्विचार याचिका सर्वोच्च अदालत ने ठुकरा दी। फिर केंद्र सरकार ने सभी दलों को विश्वास में लेकर जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को संशोधित करना प्रस्तावित किया। संसद का सत्र नहीं होने के कारण हड़बड़ी में अध्यादेश राष्ट्रपति को मंजूरी के लिए भेजा गया। लेकिन हुआ यह कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रत्यक्ष और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी अध्यादेश का कचूमर निकाल दिया। भाजपा सहित कुछ विपक्षी पार्टियों ने अध्यादेश का पुरजोर विरोध किया, लेकिन देश के सामने स्पष्ट नहीं किया कि उन्हें सरकारी संशोधन विधेयक से कोई सैद्धांतिक मतभेद नहीं था। कांग्रेसी सांसद रशीद मसूद, राजद अध्यक्ष लालू यादव जैसे सैकड़ों जनप्रतिनिधि धीरे-धीरे इस जाल में फंसते जाएंगे।
अधिकतर उम्मीदवारों की योग्यता और चरित्र को लेकर जन-दृष्टि में गहरा संदेह होता ही है। जनता को नागनाथ और सांपनाथ में से एक को चुनने की लोकतांत्रिक मजबूरी होती है। जनता रामायणकालीन मंथरा नहीं है जो ‘कोउ नृप होय हमें का हानी, चेरि छांड़ न होउब रानी’ का प्रलाप करे। नवंबर-दिसंबर में हो रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मतदाता को एक बटन अतिरिक्त मिलेगा, ताकि कोई उम्मीदवार पसंद न होने पर उसका इस्तेमाल वह कर सके । जन-इच्छा का ऐसा समादर हमारी चुनावी व्यवस्था में पहले नहीं किया गया था। सर्वोच्च अदालत का डंडा राजनीतिक पार्टियों के चरवाहों को हकालने का काम करेगा। वे सियासी चरवाहे मतदाताओं को भीड़ या रेवड़ समझ कर हकालने का स्वयंभू उत्तरदायित्व संभालते रहे हैं।
राहुल गांधी के कथित लोकतंत्रीय साहस के बावजूद कांग्रेस मतदाताओं को यह कैसे समझाएगी कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4) में सांसदों और विधायकों को संविधानेतर महामानव बनाने का कुचक्र राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व-काल में क्यों रचा गया। इस प्रावधान के कारण कितने दागी सांसदों और विधायकों को संवैधानिक लाभ मिल गया? इस असंवैधानिक कृत्य से हमारे लोकतंत्र को हुए नुकसान की भरपाई कौन करेगा? भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी क्या जनता को बताएंगे कि राजग सरकार ने 2002 में धारा 33 (ख) क्यों जोड़ी? उसे सर्वोच्च अदालत ने नोच कर फेंक दिया। इस धारा के अनुसार किसी भी अदालत या चुनाव आयोग को उम्मीदवारों के चरित्र के संबंध में सवाल करने का अधिकार नहीं है। उसके अनुसार ऐसा अधिकार केवल संसद को है।
यही दोनों पार्टियां अण्णा हजारे के जनलोकपाल आंदोलन से घबरा कर जद (एकी) और सपा, बसपा और कम्युनिस्ट पार्टियों से गलबहियां कर देश की धड़कन को संसद की खोह में aकैद करती रहीं। दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे को मिली-जुली कुश्ती में कोस रही हैं कि मेरी कमीज तेरी कमीज से ज्यादा उजली है। बाकी पार्टियांसहायक भूमिका में तालियां बजा रही हैं। लोकतंत्र गफलत, सांसत, हैरानी में है। क्या कांग्रेस और भाजपा एक संयुक्तमाफीनामा जारी करेंगी कि चुनावी भ्रष्टाचार को लेकर दोनों की साझेदारी रही है और अब भी है। सांसदों के वेतन-भत्ते और सुविधाएं बढ़ाने का प्रस्ताव आए तो संसद की कार्यवाही कभी ठप नहीं होती। लेकिन जनता की समस्याओं को लेकर सभी पार्टियां मुखौटे लगाती हैं जिससे उनका वास्तविक चेहरा न दिखाई दे।
चुनाव सुधार को लेकर सरकारों की पीठ पर न्यायालयीन पीठों के निर्णयों के कोड़े पड़ते रहे हैं। लेकिन वह मगर की चमड़ी की तरह ढीठ ही रही है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स नामक स्वैच्छिक संस्था ने 1999 में दिल्ली उच्च न्यायालय में दस्तक दी कि भारतीय विधि आयोग की एक सौ सत्तरवीं रिपोर्ट को लागू करने के लिए वह आदेश दे। याचिकाकर्ता ने केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा गठित वोहरा समिति की सिफारिशों का भी हवाला दिया, जिससे आपराधिक प्रवृत्ति के उम्मीदवारों से चुनाव प्रक्रिया को बचाया जा सके। दिल्ली उच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि वह उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि, आर्थिक स्थिति और लोकप्रतिनिधित्व की क्षमता के आकलन और तत्संबंधी सूचना उम्मीदवारों से ही प्राप्त करने संबंधी निर्देशावली बनाए।
फैसले के विरुद्ध वर्ष 2001 में केंद्र की राजग सरकार ने सर्वोच्च अदालत में अपील दायर की। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर कर मांग की कि सर्वोच्च अदालत के निर्णय को अनुच्छेद 141 के तहत देश में लागू कानून की तरह समझा जाए। महाधिवक्ता हरीश साल्वे ने सुप्रीम कोेर्ट से कहा कि जब तक केंद्र सरकार कानूनों में संशोधन करना जरूरी नहीं समझती, हाइकोर्ट को निर्देश देने का अधिकार नहीं है। यह राजनीतिक दलों का अधिकार है कि चुनाव कानूनों में संशोधन किए जाएं या नहीं।
आश्चर्यजनक तो यह हुआ कि कांग्रेस ने भी सरकारी तर्क से गलबहियां करते हुए अपने वकील अश्विनी कुमार के जरिए मौसेरे भाई की कथा का पाठ किया कि आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति आदि आधारों को संविधान सभा ने भी चुनाव कानून में शामिल करना जरूरी नहीं समझा था; कांग्रेस को चुनावों की पवित्रता पर विश्वास है, वहआपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों को विधायिका में आने के लिए समर्थन नहीं देती। लेकिन ऐसा निर्णय केवल संसद में पारितअधिनियम द्वारा ही लागू किया जा सकता है।
चुनाव आयोग को स्वायत्तता संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 के तहत दी गई है। आयोग के अधिवक्ता केके वेणुगोपाल ने हाइकोर्ट के निर्देशों और याचिकाकर्ताओं के अनुरोध के अनुरूप अपने सुझाव प्रस्तुत किए। पीयूसीएल के वकील राजिंदर सच्चर ने विनीत नारायण बनाम भारत संघ के मुकदमे का उल्लेख करते हुए कहा कि भारत में बहुत अधिक निरक्षरता है। फिर भी अगर मतदान के पहले उम्मीदवारों के चरित्र और अन्य जानकारियों का कच्चा चिट््ठा खोल दिया जाए, तो वे सही उम्मीदवार का चुनाव कर सकते हैं। एसोसिएशन की वकील कामिनी जायसवाल ने भी माना कि चुनाव आयोग को अनुच्छेद 324 के तहत जानकारियां मांगने का संवैधानिक अधिकार और कर्तव्य दोनों हैं। सर्वोच्च अदालत ने बाईस पिछले निर्णयों का उल्लेख करते हुए निर्वाचन आयोग से कहा कि वह उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि, मुकदमों, संपत्तियों, सरकारी संस्थाओं को देनदारियों और शैक्षणिक योग्यताओं के संबंध में उनसे ही जानकारी मांगे। तभी उन्हें चुनाव लड़ने की पात्रता होगी।
निर्देशों का पालन करने की आड़ में राजग सरकार ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में धारा 33 (क) और धारा 33 (ख) जोड़ा। धारा 33 (क) के तहत उम्मीदवार को बताना होगा कि उसके विरुद्ध ऐसे मुकदमों का निर्णय या कायमी है जिनके तहत दो वर्ष से अधिक की सजा हुई है या हो सकती है या उसे धारा 8 में वर्णित अन्य अपराधों की सजा मिली हो। निर्णय का मजाक उड़ाती धारा 33 (ख) में कहा गया कि अदालती निर्णय या चुनाव आयोग के निर्देश के बावजूद उम्मीदवार उपरोक्तसूचनाएं तब तक नहीं देंगे, जब तक संबंधित अधिनियमों या नियमों में इसका प्रावधान नहीं किया गया हो। यह उपधारा सर्वोच्च अदालत को ठेंगा दिखाने की वर्जिश ही थी। पीयूसीएल ने 2002 में फिर याचिका दायर की कि धारा 33 (ख) को असंवैधानिक करार दिया जाए।
सर्वोच्च अदालत ने भी कटाक्ष किया कि कभी ताकतवर, अमीर या डाकू साठ वर्ष की उम्र में भी जबरिया किसी नवयुवती के विरोध के बावजूद उसे अपनी पत्नी बना लेते थे। रोने-चीखने के अतिरिक्तउस नवयुवती के पास कोई विकल्प नहीं होता था। अब युवजन, लेकिन अपनी मर्जी से भी जीवन साथी चुन सकते हैं। क्या एक गतिशील लोकतंत्र में मतदाता को जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि जो प्रतिनिधि उसके शासक, विधायक, बल्कि भाग्यनिर्माता बनेंगे, उनका जीवन परिचय क्या है? सर्वोच्च अदालत ने छप्पन पूर्ववर्ती निर्णयों में और विदेशी लोकतंत्रों की पुष्ट परंपराओं पर भी प्रकाश डाला। तीन सदस्यीय पीठ ने सर्वसम्मत फैसला किया कि चुनाव आयोग को दे दिए गए निर्देश लागू रहेंगे। धारा 33 (ख) को सर्वोच्च अदालत ने तत्काल प्रभाव से निरस्त कर दिया।
मुख्य सूचना आयुक्तसत्यानंद मिश्र की अध्यक्षता वाली पूर्ण पीठ के फैसले को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने चुनौती के लहजे में कहा कि उनकी पार्टी निर्णय को न्यायालय में चुनौती देकर खारिज भी कराएगी। जद (एकी) के शरद यादव, माकपा के प्रकाश करात, कम्युनिस्ट पार्टी के एबी बर्द्धन और भाजपा आदि की प्रतिक्रियाएं पवित्रता काकोरसगाते-गाते आयोग पर हमला करने के बहाने नागरिकों के सार्वभौम अधिकारों को ही परोक्ष चुनौती देती लगीं। बसपा और राकांपा ने खुद को लोक प्राधिकारी बताए जाने पर आपत्ति की। एक ओर सर्वोच्च अदालत की लगातार चिंताओं से रूबरू और संपृक्तहोने के बाद संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम बनाया। पर दूसरी ओर उसी संसद ने उस अधिनियम को और जनोन्मुखी बनाने वाले सूचना आयोग के फैसले को प्रभावहीन कर दिया।
दागी सांसदों और विधायकों संबंधी सरकार की पुनर्विचार याचिका सर्वोच्च अदालत ने ठुकरा दी। फिर केंद्र सरकार ने सभी दलों को विश्वास में लेकर जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को संशोधित करना प्रस्तावित किया। संसद का सत्र नहीं होने के कारण हड़बड़ी में अध्यादेश राष्ट्रपति को मंजूरी के लिए भेजा गया। लेकिन हुआ यह कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रत्यक्ष और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी अध्यादेश का कचूमर निकाल दिया। भाजपा सहित कुछ विपक्षी पार्टियों ने अध्यादेश का पुरजोर विरोध किया, लेकिन देश के सामने स्पष्ट नहीं किया कि उन्हें सरकारी संशोधन विधेयक से कोई सैद्धांतिक मतभेद नहीं था। कांग्रेसी सांसद रशीद मसूद, राजद अध्यक्ष लालू यादव जैसे सैकड़ों जनप्रतिनिधि धीरे-धीरे इस जाल में फंसते जाएंगे।
अधिकतर उम्मीदवारों की योग्यता और चरित्र को लेकर जन-दृष्टि में गहरा संदेह होता ही है। जनता को नागनाथ और सांपनाथ में से एक को चुनने की लोकतांत्रिक मजबूरी होती है। जनता रामायणकालीन मंथरा नहीं है जो ‘कोउ नृप होय हमें का हानी, चेरि छांड़ न होउब रानी’ का प्रलाप करे। नवंबर-दिसंबर में हो रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मतदाता को एक बटन अतिरिक्त मिलेगा, ताकि कोई उम्मीदवार पसंद न होने पर उसका इस्तेमाल वह कर सके । जन-इच्छा का ऐसा समादर हमारी चुनावी व्यवस्था में पहले नहीं किया गया था। सर्वोच्च अदालत का डंडा राजनीतिक पार्टियों के चरवाहों को हकालने का काम करेगा। वे सियासी चरवाहे मतदाताओं को भीड़ या रेवड़ समझ कर हकालने का स्वयंभू उत्तरदायित्व संभालते रहे हैं।
राहुल गांधी के कथित लोकतंत्रीय साहस के बावजूद कांग्रेस मतदाताओं को यह कैसे समझाएगी कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 (4) में सांसदों और विधायकों को संविधानेतर महामानव बनाने का कुचक्र राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व-काल में क्यों रचा गया। इस प्रावधान के कारण कितने दागी सांसदों और विधायकों को संवैधानिक लाभ मिल गया? इस असंवैधानिक कृत्य से हमारे लोकतंत्र को हुए नुकसान की भरपाई कौन करेगा? भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी क्या जनता को बताएंगे कि राजग सरकार ने 2002 में धारा 33 (ख) क्यों जोड़ी? उसे सर्वोच्च अदालत ने नोच कर फेंक दिया। इस धारा के अनुसार किसी भी अदालत या चुनाव आयोग को उम्मीदवारों के चरित्र के संबंध में सवाल करने का अधिकार नहीं है। उसके अनुसार ऐसा अधिकार केवल संसद को है।
यही दोनों पार्टियां अण्णा हजारे के जनलोकपाल आंदोलन से घबरा कर जद (एकी) और सपा, बसपा और कम्युनिस्ट पार्टियों से गलबहियां कर देश की धड़कन को संसद की खोह में aकैद करती रहीं। दोनों बड़ी पार्टियां एक दूसरे को मिली-जुली कुश्ती में कोस रही हैं कि मेरी कमीज तेरी कमीज से ज्यादा उजली है। बाकी पार्टियांसहायक भूमिका में तालियां बजा रही हैं। लोकतंत्र गफलत, सांसत, हैरानी में है। क्या कांग्रेस और भाजपा एक संयुक्तमाफीनामा जारी करेंगी कि चुनावी भ्रष्टाचार को लेकर दोनों की साझेदारी रही है और अब भी है। सांसदों के वेतन-भत्ते और सुविधाएं बढ़ाने का प्रस्ताव आए तो संसद की कार्यवाही कभी ठप नहीं होती। लेकिन जनता की समस्याओं को लेकर सभी पार्टियां मुखौटे लगाती हैं जिससे उनका वास्तविक चेहरा न दिखाई दे।