गन्ना किसानों का कसूर- हरवीर सिंह

उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों के लिए एक बार फिर 1996-97 पेराई सीजन का
माहौल बन रहा है। वह पहला साल था, जब राज्य की निजी चीनी मिलों ने गन्ना
किसानों को राज्य सरकार द्वारा तय किया जाने वाला राज्य परामर्श मूल्य
(एसएपी) देने से मना कर दिया था। चालू पेराई सीजन में भी चीनी मिलों ने साफ
कर दिया है कि वे किसानों को 240 रुपये प्रति क्विंटल से अधिक का भुगतान
नहीं कर सकती हैं। लिहाजा राज्य सरकार को गन्ने का एसएपी 40 रुपये प्रति
क्विंटल घटा देना चाहिए। करीब 17 साल बाद पुरानी कहानी दोहराई जा रही है।
ऐसे वक्त में जब गन्ना किसान एसएपी में बढ़ोतरी की उम्मीद कर रहा है, दाम
घटना उसके लिए सबसे बड़ा झटका साबित होगा।

चीनी मिलों ने 1996-97
में कहा था कि वे केंद्र सरकार द्वारा तय किया जाने वाला न्यूनतम वैधानिक
मूल्य (एसएमपी) और उसके ऊपर भार्गव फॉर्मूले के आधार पर किसानों के साथ
बांटा जाने वाला मुनाफा जोड़कर भुगतान करेंगी। जो उस साल के एसएपी से करीब
15 रुपये प्रति क्विंटल कम था। इसके साथ ही मिलें राज्य सरकार के एसएपी तय
करने के अधिकार के खिलाफ उच्च न्यायालय चली गई थीं और करीब सात साल से अधिक
की कानूनी प्रक्रिया के बाद मई, 2004 में सुप्रीम कोर्ट की सांविधानिक
बेंच ने राज्यों के एसएपी तय करने के अधिकार को सही ठहराया था।

इस
बार भी हालात कुछ ऐसे ही बन रहे हैं। एक अक्तूबर से गन्ना पेराई सत्र
(अक्तूबर, 2013 से सितंबर, 2014) शुरू हो चुका है, लेकिन मिलों ने साफ कह
दिया है कि वे राज्य सरकार द्वारा पिछले वर्ष तय किए गए 280 रुपये प्रति
क्विंटल के एसएपी पर गन्ना नहीं खरीदेंगी। यही नहीं मिलों ने कहा है कि इस
समय चल रही चीनी की कीमत के आधार पर वह 230 रुपये से 240 रुपये के बीच की
कीमत ही गन्ने के लिए दे सकती हैं। पहली बार ऐसा हुआ है कि चीनी मिलें
राज्य सरकार से एसएपी तय करने के बाद गन्ना रिजर्वेशन ऑर्डर के लिए आवेदन
की शर्त रख रही हैं। असल में यह गन्ना रिजर्वेशन ऑर्डर ही है, जिसके तहत
सहमति वाले दाम पर गन्ना आपूर्ति का त्रिपक्षीय समझौता होता है। गन्ना
रिजर्वेशन का काम अगस्त में ही पूरा हो जाता था, पर इस साल अब तक चीनी
मिलों ने इसके लिए आवेदन ही नहीं किया है। हालांकि ऐसा कई बार हुआ है कि
चीनी मिलों में पेराई शुरू हो गई और गन्ना किसान दाम की घोषणा की मांग करते
रहे, लेकिन राज्य सरकार ने बाद में एसएपी तय किया।

इस बार चीनी
मिलों ने सोची-समझी रणनीति के तहत काम किया है। सबसे पहले उन्होंने विगत मई
में मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर 25 रुपये प्रति क्विंटल तक की राहत मांगी
थी। उसके बाद दो बार अगस्त में और एक बार सिंतबर में राज्य सरकार को चीनी
उद्योगों के संगठन यूपी शुगर मिल्स एसोसिएशन ने पत्र लिखकर कहा कि मिलें
अपनी क्षमता के मुताबिक ही गन्ना मूल्य दे सकती हैं और राज्य सरकार पहले
एसएपी तय करे। मिलों ने साफ किया है कि चीनी की मौजूदाकीमतों पर वे और
अधिक घाटा उठाकर मिलें चलाने की स्थिति में नहीं हैं।

इस बीच पंजाब
सरकार ने 300 और हरियाणा सरकार ने गन्ना मूल्य में बढ़ोतरी कर अधिकतम दाम
301 रुपये प्रति क्विंटल तय कर दिया है। ऐसे में उत्तर प्रदेश सरकार के
सामने विकल्प कम रह गए हैं। कीमत में कटौती करना सियासी रूप से आत्मघाती
होगा और गन्ना किसानों का सड़क पर आ जाना तय है। लेकिन चीनी मिलों के साथ
बीच का रास्ता निकालने की भी कोई पहल राज्य सरकार की ओर से नहीं दिख रही
है।

इन सबके बीच राज्य के करीब 60 लाख गन्ना किसानों का संकट बढ़ता
जा रहा है। पिछले साल के भुगतान का करीब 2,400 करोड़ रुपये का बकाया चीनी
मिलों पर है। एक तरह से यह पैसा मिलों के लिए ब्याज मुक्त कर्ज की तरह है,
क्योंकि इसके लिए उन्होंने तो किसी बैंक से भी कर्ज नहीं लिया है। हालांकि
चीनी मिलें कह रही हैं कि उनको बैंकों ने वर्किंग कैपिटल के लिए कर्ज देने
से मना कर दिया है। ऐसे में जिन किसानों का यह बकाया है, उनकी माली हालत की
चिंता राज्य सरकार को नहीं है। दूसरी ओर इस खींचतान में पेराई सीजन देरी
से शुरू होगा और तमाम छोटे किसान गेहूं की अगली फसल समय पर नहीं बो सकेंगे,
जो उनके लिए सीधा घाटा होगा।

असल में इस संकट में चीनी उद्योग
एसएपी की समस्या का हल देख रहा है। वह चाहता है कि चीनी उद्योग पर
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष सी रंगराजन की समिति
द्वारा गन्ना मूल्य के लिए दी गई सिफारिशें लागू हो जाएं। इस समिति ने चीनी
के बाजार मूल्य के 75 फीसदी हिस्से को गन्ना मूल्य के रूप में देने की बात
कही है। चीनी की मौजूदा कीमतों पर गन्ने का एसएपी करीब 230 रुपये प्रति
क्विंटल बैठता है। लेकिन क्या यह कीमत किसान के लिए वाजिब है? वह भी तब, जब
बढ़ती मजदूरी से लेकर बढ़ती डीजल और उर्वरक कीमतों के चलते तमाम उत्पादन
लागतें बढ़ती जा रही हैं।

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव और हाल
ही में मुजफ्फरनगर और शामली में सांप्रदायिक हिंसा के चलते सरकार की साख को
लगे झटके के बाद राज्य की अखिलेश यादव सरकार के लिए एसएपी में कटौती करना
राजनीतिक रूप से सबसे मुश्किल फैसलों में एक साबित हो सकता है। सरकार के
सामने चुनौती है कि वह राज्य के सबसे बड़े उद्योग और सबसे अधिक किसानों पर
उसकी सबसे अहम नकदी फसल के इस संकट को किस तरह हल करती है। उसकी जरा-सी चूक
किसानों को सड़कों पर आने को मजबूर कर सकती है।

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