चालीस करोड़ औरतों का हौसला- सुभाषिनी अली

अभी कुछ दिनों पहले देश के सर्वोच्च निर्वाचित पद के एक प्रत्याशी ने इस पर
खेद प्रकट किया कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने हमारे प्रधानमंत्री को
देहाती औरत कहकर उनका अपमान किया है। अब इस बात की सफाई दी जा चुकी है कि
नवाज शरीफ ने ऐसा नहीं कहा, लेकिन अभी तक इसकी सफाई नहीं दी गई है कि
प्रत्याशी जी देहाती औरत शब्द को अपमानजनक क्यों मानते हैं।

देश की चालीस करोड़ देहाती औरतों ने कौन-सा ऐसा पाप किया है कि उनके साथ अगर किसी की तुलना की जाती है, तो यह उसका अपमान समझा जाएगा?

सच
तो यह है कि गांवों में रहने वाली महिलाएं बहुत ही विपरीत परिस्थितियों
में हमारे समाज के बहुत बड़े हिस्से को अपनी मेहनत और सेवा के जरिये जिंदा
रखती हैं। इसके बदले में उनको बहुत कम या कुछ भी नहीं मिलता। महिलाएं
पुरुषों से अधिक घंटों के लिए काम करती हैं। वे गृहस्थी और सामाजिक कामों
का अधिक बोझ वहन करती हैं और उनका यह काम अदृश्य और निःशुल्क होता है।

वे
एक दिन में औसतन दो घंटे से थोड़ा अधिक समय खाना पकाने, घर की सफाई करने
और बर्तन धोने में ही बिताती हैं। खेती में भी वे पुरुषों के मुकाबले अधिक
तरह के काम करती हैं। ईंधन और चारा इकट्ठा करना, पानी भरना, सब्जी उगाना और
पशुओं की देखभाल जैसे कई कामों की गिनती तो काम की श्रेणी में ही नहीं
होती।

इन तमाम निःशुल्क सेवाओं के अतिरिक्त देहात की औरतें
मेहनत-मजदूरी भी करती हैं। बुआई, रोपाई, अनाज को खलिहान तक पहुंचाना, ये
सारे काम महिलाएं करती हैं। उनकी मजदूरी पुरुषों की आधी या तीन चौथाई होती
है। वे ये सारे काम खराब और खतरनाक परिस्थितियों में करती हैं। खेती में
तमाम रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल उनके लिए कई तरह के इन्फेक्शन के अलावा
गठिया के मर्ज का खतरा पैदा करता है। ग्रामीण क्षेत्र की करीब 57 प्रतिशत
महिलाएं चूंकि एनीमिया की शिकार हैं, ऐसे में वे तमाम बीमारियों का शिकार
भी आसानी से बन जाती हैं।

मनरेगा में लाखों महिलाएं देश भर में काम
करती हैं। उनको पुरुषों से कम वेतन मिलता है, लेकिन उनसे कम काम वे नहीं
करतीं। राजस्थान के जयपुर जिले के बड़गांव ब्लॉक में चिलचिलाती धूप में रोज
सैकड़ों औरतें 200 फुट ऊंची पहाड़ी पर अपने सिर पर बीस किलो का वजन रखकर
चढ़ती हैं। उनके सिर पर यह बोझ पेड़ों या पत्थरों का होता है। पहाड़ी पर
चढ़कर एक औरत हाथ में डंडा लेकर मिट्टी खोदती है और दूसरी उसके द्वारा खोदे
गए गड्ढे में पेड़ लगाती है।

उनको दिन भर में पच्चीस पेड़ लगाने पर
एक सौ पैंतीस रुपये मजदूरी मिलती है। बाग के चारों तरफ पत्थर की दीवार
बनाने के लिए उन्हें एक सौ पैंतालीस रुपये रोज मिलता है। उन्हें मिट्टी
खोदने के लिए औजार नहीं दिया जाता। पहाड़ी के ऊपर धूप और बरसात से उन्हें
किसी प्रकार की राहत नहीं है। छोटे बच्चों को भी पत्थरों के बीच डाल देना
पड़ता है। वहां पीने के पानी का इंतजाम नहीं है।

अपने लेख महिलाएं
और उनका काम में वृंदा करात लिखती हैं, संथरा एक पैंतीस वर्षीय वडार समुदाय
की दलितमहिला है। अपनी तेरह-चौदह साल की बेटी और मां के साथ वह
महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के एक मुख्य मार्ग पर सुबह साढ़े पांच बजे खड़ी
है। थोड़ी देर बाद एक ट्रैक्टर आकर रुकता है और औरतों के पास बड़े पत्थरों
का ढेर डाल जाता है।

संथरा लोहे का एक बड़ा घन उठाती है, और
मां-बेटी दौड़कर पत्थर अलग करने लगती है। एक पत्थर का वजन आठ से दस किलो के
बीच है। उन्हें यह पत्थर आठ एमएम के टुकड़ों में तोड़ना है। तीन औरतों के
बीच दो घन हैं, जिनमें से एक उधार का है, जिसके लिए तीस रुपये रोज का
किराया देना पड़ता है। जब सूरज की किरणें असहनीय हो जाती हैं, तब वे थोड़ी
देर रुककर मिर्च की चटनी के साथ सूखी रोटियां खा लेती हैं। तीनों औरतें
मिलकर तीन सौ रुपये कमाती हैं। यह काम करने के लिए उन्हें हर रोज पांच
किलोमीटर आना पड़ता है।

झारखंड की राजधानी रांची। सुबह साढ़े सात
बजे तीन टैंपो धुआं उगलते हुए आते हैं। दस रुपये देने के बाद उनमें आदिवासी
महिलाएं बैठती हैं। वे श्रमिकों के बाजार में पहुंचती हैं। ठेकेदार
मजदूरों का ऐसे मुआयना करते हैं, जैसे वे जानवर हों। एक ठेकेदार बारह मजदूर
चुनता है, जिनमें पांच कम उम्र की औरतें हैं। ज्यादा उम्र की एक औरत उनके
साथ होने की कोशिश करती है, तो ठेकेदार उसे गाली देकर रोकता है। कम उम्र
वाली औरतों में से एक कहती है, यह मेरी मां है, हम जोड़ी बनाकर काम करेंगे।
ठेकेदार हंसते हुए कहता है, ठीक है, लेकिन एक तिहाई पैसे दूंगा। एक के दाम
में दो मिली!

पिछले साल मार्च में भोपाल स्टेशन पर अधेड़ उम्र की
तीन औरतें हमारे साथ खड़ी हो गईं। उनके सिर पर पत्तों के बड़े-बड़े बंडल
थे। उन्होंने बातचीत में बताया कि वे उत्तर प्रदेश के ललितपुर के पास की एक
गांव की हैं, पर ललितपुर में छोटी-सी कोठरी किराये पर लेकर रहती हैं और
अपने परिवार का पेट पालने के लिए बीड़ी बनाती हैं। एक हजार बीड़ी बनाने पर
उन्हें पैंतीस से चालीस रुपये मिलते हैं। पंद्रह घंटे काम करने पर इतनी
बीड़ियां बन पाती हैं!

ये हैं हमारे देश की देहाती औरतों की कुछ
झलकियां। नवाज शरीफ ने मनमोहन सिंह का अपमान किया या नहीं, यह तो बहस का
मुद्दा बन गया, पर प्रत्याशी महोदय ने देहाती औरत को अपमानजक रूप में
प्रस्तुत कर निश्चय ही देश की करोड़ों औरतों, उनकी मेहनत, उनकी सेवा, उनकी
गरीबी, उनकी लाचारी और उनकी जबर्दस्त हिम्मत को अपमानित करने का काम किया
है।

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