ऊर्जा प्रदेश की खोज में- धीरेन्द्र शर्मा

करीब तीन महीने पहले उत्तराखंड में जब तबाही मची, तो एक राष्ट्र के रूप में
हम ऐसी हिमालयी आपदा के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन तब भी कुछ पर्यावरणविदों
ने यह घोषणा करने में देर नहीं लगाई कि अनियोजित मानवीय गतिविधियों ने इस
आपदा को न्योता दिया है।

कुछ ने कहा कि जलविद्युत परियोजनाओं ने
मानव जीवन को खतरे में डाल दिया है। सुरंगों के लिए पहाड़ों में किए जाने
वाले विस्फोट ने पहाड़ों की नाजुक ढलान को कमजोर किया है और जलविद्युत
परियोजनाएं नदियों और उनकी पारिस्थितिकी प्रणालियों को नुकसान पहुंचा रही
हैं। लेकिन सच यह है कि ऐसी प्राकृतिक आपदाएं इस ब्रह्मांड में आती ही रही
हैं; ये मानवजनित नहीं हैं। हर दौर में और हर राष्ट्र में ऐसा होता आया है।

असल
में, हिमालय के ग्लेशियर काफी ऊंचाई पर स्थित हैं और वहां कोई मानवजनित
विकास नहीं हुआ है। पांच हजार मीटर और उससे भी अधिक ऊंचाई पर स्थित
हिंदू-कुश हिमालय (जिसे तीसरा ध्रुव कहा जाने लगा है) पर न कोई बांध बना
है, न पुल, न बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं और न ही कोई होटल। फिर भी देश में
प्राकृतिक आपदाएं आती हैं।

करीब 5,000 साल पहले हिमालय से ही वैदिक
नदी सरस्वती बहा करती थी, लेकिन वह 2,500 ईसा पूर्व लुप्त हो गई। इतना ही
नहीं, हम यह भी जानते हैं कि कृष्णनगरी द्वारका और रामसेतु हिंद महासागर के
बढ़ते जल में लीन हो गए हैं। तब न तो कोई पर्यावरणविरोधी औद्योगिक
गतिविधियां हुई थीं और न कार्बन डाई-ऑक्साइड जैसे शब्द गढ़े गए थे।

कुछ
पर्यावरणविद हिमालयी क्षेत्रों में हो रहे विकासात्मक कार्यों का विरोध
करते हैं और कहते हैं कि बांध और सड़कों का निर्माण तथा सुरंगों ने पहाड़ों
को कमजोर किया है, लेकिन ऐसे तर्क भावुक अफवाह से अधिक कुछ नहीं। अलबत्ता
सुरंगों ने कमजोर पहाड़ को मजबूती दी है। सूक्ष्म ड्रिलिंग तकनीक की सहायता
से सुरंगों की खुदाई और फिर उसे स्टील फ्रेम से कसने की वजह से निर्माण
कार्य मजबूत होता है। मसलन, कोलकाता और दिल्ली में मेट्रो के लिए सुरंगें
खोदी गईं, बावजूद यहां की ऐतिहासिक और पुरानी इमारतें इन सुरंगों से
सुरक्षित हैं।

गाइया सिद्धांत के अनुसार, धरती मां एक जलीय ग्रह है,
जहां बर्फों के तीन महासागर हैं- अंटार्कटिक, आर्कटिक और हिमालय।
अंटार्कटिक और आर्किटक जहां पिघल रहे हैं, वहीं हिमालय अब तक अक्षुण्ण है।
वास्तव में यह पृथ्वी का तीसरा ध्रुव है, जहां स्वच्छ जल के 5,300 ग्लेशियर
हैं, जिनमें दो लाख मेगावाट जलविद्युत ऊर्जा संचित है। हम प्राकृतिक
ताकतों को नहीं रोक सकते, लेकिन 21वीं सदी की चुनौतियों का समाधान
वैज्ञानिक तरीकों से जरूर ढूंढ सकते हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाले
वैज्ञानिकों की मानें, तो आगामी पीढ़ियों के लिए जैव सुरक्षा सुनिश्चित
करने के लिए हिमालयी जलविज्ञान को अनुकूल बनाना होगा, और इसके लिए उन्नत
इंजीनियरिंग तकनीक हमारे पास पहले से ही मौजूद है।

हिमालयी
क्षेत्रों में विकास कार्यों का विरोध इस आधार पर भी किया जाता है कि
हिमालय दिव्य आत्माओं का निवास स्थान है और बांधों का निर्माण हमारी पुरातन
सभ्यताओं के धार्मिक विश्वास को खत्म कर सकती है, लेकिन यह नहीं भूलना
चाहिए कि यह तीसरा ध्रुव अथाह प्राकृतिकसंसाधनों का स्वामी है, जिसमें कई
तरह के खनिज पदार्थ और गैस भरी पड़ी हैं।

भूविज्ञानी डॉ के एस वाल्दिया ने वर्ष 1999 के अपने अध्ययन द टेक्टॉनिक्स ऑफ द हिमालय ऐंड रिसेंट क्रस्टल मुवमेंट- एन ओवरव्यू
में बताया है कि संरचनागत और भूकंपीय दृष्टि से हिमालय के सक्रिय रहने की
वजह एशियाई और भारतीय उपमहाद्वीप की भूगर्भीय प्लेटों का आपस में टकराना
है। उत्तर की दिशा में लगातार हो रहे झुकाव की वजह से भारतीय प्लेट का
उत्तरी हिस्सा लगातार टूट रहा है, जिस वजह से कई विकृत पत्थरीय संरचनाओं का
जन्म हो रहा है। वर्तमान में भारतीय महाद्वीप पांच सेंटीमीटर प्रति साल की
दर से उत्तर की ओर बढ़ रहा है।

लिहाजा, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि
यूरेशियाई और भारतीय भूगर्भीय प्लेटों की टक्कर की वजह से हिमालय की चोटी
हर वर्ष बढ़ रही है। यह ऊपरी भाग पर बर्फों का पिघलना तेज करेगा और नदियां
पिघलने वाले ग्लेशियर से भर जाएंगी। ये बातें आने वाले हजारों वर्षों के
लिए स्वच्छ जल और असीमित जलविद्युत ऊर्जा को लेकर हमें आश्वस्त करती हैं।
जरूरत है, तो बस इसका अपने हित में इस्तेमाल करने की।

उन्नत
प्रौद्योगिकी की सहायता से हम आगामी पीढ़ियों के लिए जल-विज्ञान संबंधी
गड़बड़ियों के बुरे प्रभाव को कम कर सकते हैं। पर्यवारण-हितैषी घर,
अस्पताल, पुल, स्कूल आदि का निर्माण हमारे भविष्योन्मुखी विकास नीति का अंग
हो सकता है, और तकनीक-वैज्ञानिक विकास नीति की सहायता से हम उत्तराखंड को
वास्तविक ऊर्जा-प्रदेश बना सकते हैं, जहां जलविद्युत परियोजनाएं होंगी और
स्वच्छ जल होगा।

बहरहाल, यह तभी संभव है, जब हम कुछ ठोस प्रयास
करें। इसमें जरूरी है कि सभी राजनीतिक दल भविष्योन्मुखी हिमालयी जल विकास
नीति को अपने चुनावी घोषणापत्र में स्थान दें, सभी रुके हुए जलविद्युत
परियोजाएं बिना किसी विलंब से चालू किए जाएं और हिमालय क्षेत्र के अध्ययन
को महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों के अध्ययन-अध्यापन में स्थान मिले। अगर
हम चंद्रमा पर तिरंगा फहरा सकते हैं, तो हिमालयी ग्लेशियर के पिघलने की
रफ्तार भी बांध और सुरंगों की सहायता से रोक सकते हैं।

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