केंद्रीय सूचना आयोग ने देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को सूचना का
अधिकार कानून के दायरे में लाने की बात की, तो ज्यादातर राजनीतिक दलों ने
इसका विरोध किया। इसकी वजह साफ थी कि कोई भी दल अपनी आय के स्रोतों का
खुलासा नहीं करना चाहता है, क्योंकि अगर वे सूचना के अधिकार कानून के दायरे
में आ जाते हैं, तो उन्हें आय-व्यय के ब्योरे सार्वजनिक करने होंगे और
पर्दे के पीछे होने वाला राजनीतिक चंदे का खेल बिगड़ जाएगा। केंद्र सरकार
ने तो राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखने के
लिए इस महत्वपूर्ण कानून में संशोधन का मन बना लिया था, पर इस संशोधन के
विरुद्ध उमड़ते जनमत को देखते हुए इसे टाल दिया गया है। एक के बाद एक घोटाले
और राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामलों ने देश की जनता को उद्वेलित किया है और
चतुर्दिक भ्रष्टाचार के खिलाफ उसका गुस्सा उमड़ रहा है। ऐसे में राजनीतिक
दलों में पारदर्शिता की मांग स्वाभाविक है, क्योंकि पूरी लोकतांत्रिक
व्यवस्था की पारदर्शिता के लिए सियासी दलों में पारदर्शिता बहुत जरूरी है।
चुनाव
आयोग के प्रयासों के बावजूद चुनावों में जिस तरह से धनबल और बाहुबल का
प्रभाव बढ़ा है, वह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं है।
ज्यादातर राजनीतिक दल चंदे के रूप में नकद धनराशि लेना ही पसंद करते हैं।
प्रमुख छह राजनीतिक दलों के संबंध में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, उन्हें
वर्ष 2004-05 व 2011-12 के बीच 4,895 करोड़ रुपये के चंदे प्राप्त हुए,
जिसमें से 3,674 करोड़ रुपये का चंदा अनाम स्रोतों से प्राप्त हुआ। इसके
अतिरिक्त कुछ फंड कूपन बिक्री आदि से प्राप्त हुए। जिस चंदे के बारे में
देने वाले का नाम व पता ठीक से दर्ज है, यह कुल चंदे का मात्र लगभग नौ
प्रतिशत ही पाया गया है। लगभग 80 प्रतिशत धन नकद के रूप में प्राप्त किया
गया, जबकि मात्र 20 प्रतिशत राशि ही चेक के जरिये मिली। अतः स्पष्ट है कि
इस समय राजनीतिक दलों के बही-खाते को पारदर्शी नहीं माना जा सकता है।
उन्हें अपने हिसाब-किताब को इस तरह सुधारना होगा कि कितना धन कहां से आया
है व कहां खर्च हुआ है, उसका पूरा रिकॉर्ड रखा जाए।
जो धन कूपन की
बिक्री से प्राप्त किया जाता है, वह भी पारदर्शी तरीका नहीं है। एक कूपन
बहुत छोटी राशि का हो सकता है (जैसे 10 रुपये का), पर यह संभावना बनी रहती
है कि एक ही व्यक्ति बड़ी संख्या में कूपन खरीद ले। इस तरह छोटा चंदा ही
नहीं, बड़ा चंदा भी अनाम हो जाता है। इस तरह की गड़बड़ियों पर अंकुश लगाने
के लिए जरूरी है कि राजनीतिक दलों के खाते पारदर्शी हों और उनके आय-व्यय का
ब्योरा सार्वजनिक हो। राजनीतिक दलों में पूर्ण पारदर्शिता होने से
भ्रष्टाचार नियंत्रण में बहुत सहायता मिलेगी। इस समय एक बड़ी समस्या यह है
कि चंदे और भ्रष्टाचार में भेद स्पष्ट नजर नहीं आता है। जब एक-एक पैसे का
हिसाब लिखा जाएगा, तो यह भेद स्पष्ट हो जाएगा। चुनाव आयोग के लिए भी यह
आसान होगा कि चुनावों पर कितना खर्च हुआ है,उसका बेहतर ढंग से पता लगा
सके।
सच तो यह है कि पारदर्शिता के होने से राजनीतिक दलों को सुचारू ढंग
से चलाने व आंतरिक भ्रष्टाचार से मुक्त रखने में भी मदद मिलेगी। लिहाजा
सियासी दलों को पारदर्शिता अपनाने में परहेज नहीं करना चाहिए।
राजनीतिक
दल भले ही कोई सरकारी संस्था नहीं है, लेकिन सरकार से उसे रियायत मिलती
है, इसलिए उसे आरटीआई कानून के दायरे में लाना उचित ही है। जहां तक उनकी
आंतरिक नीति पर बहस व विचारों के आदान-प्रदान का सवाल है, तो इसे सूचना के
अधिकार के दायरे से बाहर रखा जा सकता है। जब तक संसद की स्थायी समिति सूचना
के अधिकार के संशोधन पर विचार कर रही है, तब तक तो केंद्रीय सूचना आयोग के
निर्णय के तहत राजनीतिक दलों को सूचना देनी ही चाहिए। उम्मीद की जानी
चाहिए कि संसदीय समिति राजनीतिक दलों की पारदर्शिता के पक्ष में सुझाव देगी
व इस आधार पर सरकार सूचना के अधिकार कानून में संशोधन का प्रस्ताव वापस ले
लेगी। इस बीच राजनीतिक दलों में पारदर्शिता का जन-अभियान चलते रहना चाहिए।