दुनिया ने ठुकराया, सुलभ ने अपनाया

कोलकाता: हर इंसान की यह इच्छा होती है कि उसके जीवन के आखिरी क्षण अपनों
के साथ अपनी धरती पर बीते, पर पश्चिम बंगाल की ऐसी सैकड़ों महिलाएं हैं, जो
अपनी आखिरी सांस वृंदावन में लेना चाहती हैं.

समाज व धर्म की रुढ़ीवादी मान्यताओं की मारी सैकड़ों विधवाएं वर्षो से
वृंदावन की खाक छान रही हैं. ऐसे में सुलभ होप फाउंडेशन ने इन्हें गले
लगाया है. इस संस्था ने इन दुखियारी महिलाओं की इतनी मदद की है कि वे अपना
गम भूल चुकी हैं. अब परिजनों के आश्वसान के बावजूद वे बंगाल में रहना नहीं
चाहती हैं.

सुलभ होप फाउंडेशन के संस्थापक बिंदेश्वरी पाठक कहते हैं कि सरकारी आंकड़े
के अनुसार, वृंदावन के सात-आठ आश्रमों में लगभग 1800 विधवा महिलाएं हैं,
इनमें से 95 प्रतिशत पश्चिम बंगाल की निवासी हैं. इनमें 33 से 107 वर्ष तक
की विधवा हैं. इस आंकड़े में वे शामिल नहीं हैं, जो आश्रमों के बजाय किराये
के घरों में रहती हैं और भजन गाकर एवं मांग कर जीवन गुजारती हैं. एक वर्ष
पहले तक आश्रम में विधवाओं को रोजाना आठ रुपये मिलते थे, जिससे उन्हें अपने
खाने-पीने की व्यवस्था करनी पड़ती थी. आर्थिक तंगी के कारण कई का अंतिम
संस्कार तक नहीं किया जाता था और लाश को यमुना नदी में बहा दिया जाता था.
एक वर्ष से सुलभ ने 900 विधवाओं की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा रखी है.
संस्था की ओर से प्रत्येक महीने हर विधवा को दो हजार रुपये दिये जाते हैं.

चिकित्सा का भी इंतजाम किया गया है. संस्था की ओर से एक एंबुलेंस की भी
व्यवस्था की गयी है. इसके साथ ही उन्हें जीविका चलाने के लिए विभिन्न
प्रकार के प्रशिक्षण भी दिये जा रहे हैं. वर्षो बाद इनमें से 50 विधवा सुलभ
की सहायता से दुर्गापूजा देखने के लिए कोलकाता आयी हैं. 107 वर्षीय ललिता
अधिकारी को जब उनके बेटे ने अपने घर ले जाना चाहा, तो उन्होंने साफ इनकार
कर दिया. एक अन्य विधवा मानु घोष ने कहा कि दुख की घड़ी में बंगाल ने हमें
छोड़ दिया, जबकि उत्तर प्रदेश ने हमें आसरा दिया. पुष्पा अधिकारी कहती हैं
कि उन्हें अब बंगाल के नाम से ही चिढ़ होती है. आरती रावत कहती हैं कि हम
लोगों ने अपनी जिंदगी काफी कष्ट में जिया है. अब जा कर थोड़ी राहत मिली है.
राज्य सरकार एवं इस समाज को चाहिए कि वह ऐसा प्रयास करें कि बंगाल की कोई
और विधवा वृंदावन या देश के किसी अन्य स्थान पर दर-दर की खाक न छाने.

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